Monday, December 30, 2013

तेरे प्रेम में कलम है मेरा ...


तुम मेरे प्रेम में देह मात्र नहीं हो,
तुम सलील स्वरुप की मधुशाला नहीं हो,
तुम तो कंपन हो मेरे हिर्दय की
जिसकी गति से धरा सी मेरी आत्मा
तेरी परिक्रमा करता है,

जहाँ उम्र की चक्षु पे
एहसासों का दिन रात होता है,
और मेरा पुलकित मन
उन एहसासों के आलम में
हर लम्हा तेरे आगोश में जवां होता है,

तुम भी चाहो तो
इन एहसासों को महसूस कर सकती हो,
ढ़ीला कर अपने बदन को
मेरे बांहपाश के फंदे में खो सकती हो,

सिर्फ उस आलम का चित्रण ऐसा होगा,
तू मेरी और मैं तेरा होऊँगा,
तेरी साँसें अधीर होके मेरे आंलिगन में टूटेगी,
और मेरे हसरतें सुर्ख तेरे लबों को चूमेगी,


तनिक कश्मकश का मोहोल होगा
बीच तेरे मेरे
जहाँ तेरे माथे पे मेरे चुम्बन की बिन्दया होगी,
और शरमाते तेरे नैनों में मेरी दुनिया होगी,
तू और बेहक जाने को मुझसे कहेगी,
और मैं पिघल जाने को तुझमें उतरूंगा,

ये दृश्य तेरे मेरे अकूत प्रेम कि निशानी होगी,
जहाँ फिर से एक राधा किश्न की दीवानी होगी,

शायद तू भी यही चाहती है
तभी तो रोज चाँद बन मुझसे मिलने आती है,
महज ये सिर्फ कल्पना नहीं है,
बस जान ले तू चाँद
तू मेरी है अब उस आसमा की नहीं है,

तुझे सिर्फ मेरे आँगन में निकलना होगा,
मेरे बेताब रूह को अपना बदन देना होगा। …  

Saturday, December 7, 2013

तेरा प्रेम और उस प्रेम का बिम्ब ...




तेरा प्रेम
और
उस प्रेम का बिम्ब,
अक्सर मेरे
यतार्थ के भावों से
ऊपर रहे है,
मैंने जब भी इन दोनों को
छूने कि कोशिश की,
मुझे कुछ और ही हाँथ लगे.
जैसे मैं किसी आईना में
खुद को देख रहा हूँ,
कभी सिंदूर बन तेरे टिके में
सज रहा हूँ,
तो कभी चुन्नी बन तेरी लाज
संभाल रहा हूँ,
ऐसे असंख्य भाव
जिसके छुअन ने मुझे
अलौकिक सा एहसास दिया है, अब तक
सोच रहा हूँ,
आज जिक्र कर डालू
उन सारे असंख्य भावों का
जिससे मेरा प्रेम सार्थक हुआ है,
और तू बिम्बों में परिभाषित हुई है,
पर आज ज़ेहन में याद मुझे
बस उस एक रात कि आ रही है,
जिस रात तूने
अपने अधीर साँसों की
मर्यादा तोड़ी थी
और मुझको
अपने बाँहपाश के फंदों में
जकड़ी थी,
उस वक़्त
व्याकुल तू थी या तेरे लब
जिसने मेरे माथे को चूमा था
तत्काल वो हरक़त
मैं समझ नहीं पाया था,
पर जब तेरे भाव विभोर चक्षु से
अश्रु के समान मोतियाँ गिड़ी
और लब खुल के
जो पुष्प से भाव उगले
जो मेरे भों और सीने को तनने का
और साथ ही मुझे आसमा कि ऊंचाई का
गर्व दिया
जिससे मुझे समझ आया
सच में
तेरा प्रेम और तू क्या है ?
हाँ मैं मूक हो गया था,
उस वक़्त
तेरा प्रेम का द्रवित लम्हा और स्वरूप देख कर
इसलिए आज इसे
परिभाषित कर रहा हूँ,
तेरा प्रेम
और
उस प्रेम के बिम्ब को
मेरा कद कभी माप नहीं सकता
बस ये कहूँगा,
तूने मुझे जो दिया है,
और जो दे रही हो,
उससे मैं अपना ह्रदय हाँथ में लेके
तेरे लिए
सदा यूँ ही खड़ा रहूँगा,
ताकि तू हर वक़्त मुझे यूँ ही छू सके
और मैं तुम्हें … 

Friday, December 6, 2013

प्रेम परिधि ...


मैं तुमको प्रेम का
एक गोल परिधि दूँगा,
जिसके हर एक कोण पे
सहर्ष सा
मैं तुमको धँसा हुआ मिलूँगा,
जहाँ मेरे पास तुझे देने को
अपने जज्बात, अपना उम्र,
अपना वजूद, अपना ह्रद्य,
अपना साँस, अपने सपनें होंगें,
और सुन तू पगली
मैं तुझे
उस गोल सी परिधि के अंदर ही रखूँगा,
ताकि तुझे मेरे आगोश की
महफूज़ बाहें मिल सके,
जहाँ कभी तुझे दुःखों के
बाहरी कठफोड़वे छू न सके,
जहाँ हम और तुम होंगे
और साथ होगी
अपलक झपकी हमारी ख़ुशियाँ,
जिसकी नग्नता में
तू चाँद बनके निकलना
और मैं चाँदनी बन
तेरे बदन से लिपटा करूँगा, 
कभी तू फूल बन जाना
कभी मैं उस फूल की मादक खुशबू बन
हवाओं में बिखर जाया करूँगा,
देखना
तेरे एहसासों को प्रेम की
वो परिभाषा दूँगा
जिसके काजल तेरे
भाव विभोर आँखों में लग कर
एक प्रेमिका होने का स्वेत सा पहचान देगा
फिर तेरा ह्रदय करे तो झूम लेना
मैं रोकूँगा नहीं
क्योंकि
मैं भी पहली बार ही किसी
ख़ुशी को नाचते देखूँगा,  
बस
तुम इस
परिधि को स्वीकार लेना,
मेरे महफूज़ बाँहों में समा के
अंगीभोर होने के लिए … !

दाह संस्कार ...

कहते है
मुख में अग्नि
मरणोपरांत दी जाती है
अब इसको क्या कहे
जो एक अरसे से
मैं खुद की मुख में अग्नि
का धधकता हुआ ताप रखता हूँ
शायद
साबित करने को
कि इस हाड़ मांस के जिस्म के अंदर की आत्मा
दम तोड़ चुकी है
बहुत पहले
अब तो रोज अपने अस्तिव का दाह संस्कार कर रहा हूँ
पर कोशिश हर रोज असफल रहती है
कुछ क्या बहुत कुछ जलता भी है
हासिल राख भी होता है
लेकिन खोखली जिद्द की हदें इतनी ऊँची है
उस राख को झटक
फिर से खड़ा हो उठता है मेरा कद
मेरा इंसानी कद सरीक बदन
पीड़ा के फोड़े से रिसते पानी को
आँसू का बूँद समझ कर पोछ तो लेता है
पर दर्द के टीस से
नमक पड़े होठों को न छुपा पाया है
न छुपा पाता है
यहीं से शुरू होता है
लोगों के उपहास का सिलसिला
जो किसी दर्जी के मशीन के सामान होता है
कुछ दर्द को सील तो देता है
पर गुदरी के लिहाफ के जैसे
जिसके आस्तीन में कई रंगों के कतरन
के जमावड़ा छोड़ जाता है
और
फिर दूसरा कोई
मेरा ये लिहाफ देख कर
मेरे निर्धनता पे पत्थर मरता है
उपहास उड़ाता है
मेरे आत्म सम्मान जैसे चीज को
पावं तले रौंदता है 
बिना मेरा मानसिक मनोदशा को जाने समझे 
क्या ऐसे में
मेरे हाँथों किया गया
वो दाह संस्कार किस मायने में गलत है
अगर में सालीनता से
तिल तिल करके रोज खुद को
अपने अस्तिव को मिटा रहा हूँ तो
मुझे लगता है कोई गलत काज नहीं है
क्योंकि
इस जीवन का अंत तो मौत है
फर्क सिर्फ इतना है
मैंने अपनी मौत कि पहचान पहले कर ली है
बस देख रहा हूँ
और
कितनी अधजली साँसें सीने में बाँकी है
और कितने
अपने आत्मसम्मान का दाह संस्कार करता हूँ !!

Friday, November 29, 2013

वियोग की आखरी रात ...


खिड़की से चाँद को
निशब्द सी निहारती
अल्हड़ सी
कविता की मेरी वो प्रियसी
जो घुटने तक
मेरे विरहा की दलदल में धँसी थी
वो मानो उस चाँद को
एक निवाले की तरह आज निगल जाना चाहती थी
और अपने
उधेड़ बुन की साख से
वियोग के उल्लू को डण्डे मार मार
भगा के
सुबह कि लाली के साथ
पँछियों के कलरवों संग खुद को
गुम कर देना चाहती थी

क्योंकि
उसे कल ही मेरा एक ख़त मिला था
जिसमें मैंने
पूर्णमासी की इस पूर्ण चाँद कि रात के बाद का
मिलने का वादा किया था

पर मुयी
रात तो रात ठहरी
जो सरकती अपने वक़्त के साथ ही है

मिलन की आतुरता इतनी सख्त थी कि
उसके चेहरे के हाव भाव खुद-व-खुद
आड़े तिरछे होके परिवर्तित हो रहे थे
जिसे ज्ञात कर लिया था
उस कमरे कि मध्यम सी रौशनी ने
जो मुंडेरे के डिबरी
सुर्ख शरद हवा के थपेड़े सह कर फैला रही थी
बीच बीच में वो
चुनरी कि पल्लू अपने उँगलियों में घूमा घूमा के लपेट रही थी
होंठ सिर्फ मुखर नहीं थे उसके
पर बाजू वाली लाल मूँगे से सजी ऊँगली को
नैन बहुत कुछ बोल रहे थे

तेरी वियोग भी खत्म करवा दूँगी
मुझे मेरे प्रिय से मिल तो लेने दे
एक छल्ला उम्र भर का
तेरे बाजू के तन्हा पड़ी ऊँगली में
उनके हाँथों से डलवा लूँगी
फिर हम सब पूर्ण हो जायेंगे
इस पूर्णमासी की रात के बाद

बस ये मुयी रात
सरक जाये
जितनी जल्दी से हो जल्दी …

Thursday, November 28, 2013

बाट में प्रियसी ...


वियोग में चकोर सी निग़ाहें
कर के बैठी मुंडेर पे
अपने आँखों को अपलक झपकाती
वो मेरी प्रियसी,

मन में भावनायों के असीमित सी
वेदना लिए
कभी अपने कमरे में दाखिल होती
कभी मुंडेरे में आ बैठती
कभी आईना निहारती
अभी रूत को कोसती
अभी ताखे पे
एक लाल लिफ़ाफ़े में
लपेटा हुआ
मेरे हिजर कि मुफ़लिसी से भरा
वो ख़त
जिसमें मैंने उकेर दिया था कभी
वियोग कि अपनी वो तमाम रातें
जो बगैर उनके मैंने काटे थे,
उसे उसके शब्दों के एहसासों संग पढ़ती
और मन मसोस कर
लहू का कतरा सा
वो एक बूँद आँसूं
प्यासी ज़मीं के सुपुर्द कर देती,

फिर तुरंत उसे
न जाने क्या हो जाता
चोके में जा
बुझी हुई राखों में
कुछ बीनने लगती
जैसे किसी ठंड पड़ी
किस्मत कि चिंगारी को वो
अपने इरादों से प्रज्वलित
करना चाहती हो
वही कोने में रखे
धान की बोरे को देखती हैरत से
जब पिछले कई महीने से
यूँ ही पड़े इस धान के बोरे से कोपलें से
निकल सकते है
तो फिर मेरे
एक दशक के सपनों के बंजर पड़े खेत में
प्रेम और खुशियों की  बियाड़ क्यों नहीं लग सकती,

इसी आस पे वो पगली
रोज दरवाज़े को सांकल को पोछती
की जब कभी वो मेरा प्रिय आएगा
तो देखे
मैंने भी उसके इंतज़ार में
हर चीज़ को कैसे नाजुकता से संभाल के रखा है
जिस जिस चीज़ को उसकी स्पर्श छुएगा
चाहे फिर
वो मेरा देह हो या पवित्र मन ...!!

Monday, October 21, 2013

कौन किसको है समझा ...



शायद मैं जल रहा हूँ,
लोग हँसते है,
मुझे इश्क़ के सिवा कुछ न आया,

ऐ काश !
कहीं से आके
ऐसे में तू समझा जाती "इनको"
जितना भी सीखा तुमने
तुझे बहुत है आया,

की लोग हँसते है ...
मुझे इश्क़ के सिवा कुछ न आया,

कम कैसे हैं ये तासीर इश्क़ के
जब खूं के जैसे ताबीर अश्क के
खुद समझ कर
जब औरों को ये समझा न पाया,

फ़कत गुलिश्तां में तो गुल भी जीते है
क्यों काँटों को कोई देख न पाया,

की लोग हँसते है ...
मुझे इश्क़ के सिवा कुछ न आया,

झाँक अपने में तोहमत खेर जलील-ए-नज़र
तुझे क्या मिला मुझे क्या मिला नूर-ए-हसर
उड़ा के खिल्लियाँ
जब तू खुद मुख़्तसर खिल न पाया,

उम्र भर खंगालते रहे गैरों को
क्यों कभी अपने अस्क को तू छू न पाया,

की लोग हँसते है ...
मुझे इश्क़ के सिवा कुछ न आया !

Wednesday, October 16, 2013

"काश मेरा ये प्रेम तुमसे होता" ...



ऐ मूरत !
शायद आज तुमने
कुछ कहा था मुझसे
अपनी वो बेचैनी
वो विडम्वना ,
जो सिर्फ और सिर्फ
मैं महसूस
कर सकता हूँ ,

कैसे पथ्थरों का भी
दिल रोता है
कैसे बूँदें अश्कों की
पथ्थरों की आँखों से
छलकता है
रंग लिप्त
उदाशीनता लिए ,
वो मैं अब समझ
सकता हूँ ,

क्यूँकी तूने आज
अपने दर्द की
हर ताबीर से रु-ब-रु
करवाया था मुझको
जिसको महसूस कर
मेरी काया ने भी
अश्क बहाये थे,

"क्या दिल सिर्फ
इंसानों का ही होता है
क्या वजूद के लिए
सिर्फ इंसान ही लड़ते है
क्या प्रेम करने का हक़
सिर्फ इंसानों को ही होता है"

ऐसे तेरे कई अनगिनत
सवाल
जिसके जवाब की शक्ल में
मेरे पास
लज्जा के सिवाये
कुछ नहीं था ,

मुझे मालूम है
तुझे भी प्रेम हो चला है
किसी इंसान से
जो तुझे
सिर्फ व सिर्फ
चट्टान का महज
एक टुकड़ा समझता है
पर मैं कह दू
मेरे दोस्त
हम इंसान
उसी चट्टान की बनाई
मूरत को पूजते है,

अधीर मत हो
अपने प्रेम को वो रूप दो
जो तुझे
सिर्फ पत्थर समझे
वो भी
तुझे कुछ यूँ ही पूजे

इतनी बात मेरी सुन
वो थोड़ी खिलखिलाई
और फिर बोली
तूने इंसान होके भी
हम चट्टानों को
इतनी अच्छी तरह
से समझा है
"काश मेरा ये प्रेम तुमसे होता"

मैं हँसा
और मन में बोला
काश मेरी प्रेमिका तुम जैसी होती
जो खुले मुँह ये कह देती
"काश मेरा ये प्रेम तुमसे होता" ..

Tuesday, October 15, 2013

चंपा की पेड़ ...


वक़्त के
चम्पई लम्हों के दरारों से
झाँकती वो रात
आज बहुत अरसों बाद
ईख की चासनी सी
मेरे अरमानो संग अभिषेक किया

मुझे याद है,
जब में हर रात
ख्यालों में
एक कील तरह हर वक़्त
साथ उनके धंसा रहता था

बेचैनियाँ इतनी सर्पशील थी
की मैं माटी के बिछोने पे भी
तरस के सो नहीं पाता था

उम्र का ये नौसीखियाँ प्रेम
मुझे बिना प्रिय के रातों को
आँख तक मुंदने नहीं देती थी
और मैं फिर
उनके ख्यालों में डूबा
तेरे सायों में चला आता था

वो ठंडक
वो भींगी खुशबू तेरी
बिना निगले कलेजे तक
उतर जाती थी
जैसे मुझे उनके संग बैठने
की इजाज़त मिल गई हो
जिसके संग वक़्त बिताने को
हर लम्हा मेरा तरसता था.

तेरी छोटी सी काया
मुझे उस वक़्त
बहुत ही विशालकाय
लगता था
और
तेरे पहलुओं में गिरे हुए
तेरे चम्पई उपहार(फूल)
मुझे उनकी यादों की तरह
पास बिखरी नज़र आती थी.

जिन्हें मैं अक्सर चुनता
अपने आँसुओं से धोता
और गोधुली के वक़्त
वहीँ कान्हा की मंदिर में
चरणों में कान्हा के
समर्पित कर देता था
ये बोल के की
मेरे ये प्रेम तेरे प्रेम जैसा ही है,
इनको महसूस कर
इसे साकार कर
क्यूँ की मैं अपने राधा के बिना
नहीं रह सकता हूँ,

आज जब मेरे वो सपने साकार
हो रहे है तो
ऐ चंपा की पेड़
तेरा वो चम्पई लम्हों की देन है,
जिसे मैं कभी नहीं भूल सकता
एक रात आऊंगा
मैं और मेरी प्रिय तुमसे मिलने
बस तू वहीँ इंतजार करना ..

Friday, October 11, 2013

प्रेम में पगलपंती ...



मुझे कल न तेरी फिर से
सनक सवार हुई
वही पगलेट वाली
रातों को
खुले आसमानों के निचे घूमना
चाँद को देख
इशारा करके ज़मी पे बुलाना
हवाओं को छू के
पास बैठा के बातें करना
और बहुत कुछ ..

क्या तुम वो सब सुनना चाहोगी ?

बोलो न
क्या तुम वो सब सुनना चाहोगी ?
क्या ..
तूने हाँ बोला क्या ?
मुझे कुछ ऐसा ही सुनाई पड़ा
तो ठीक है सुनो
फिर मत कहना मुझे
सच में ये पागल हो गया है
मेरे प्रेम में

अगर तू ऐसा कहोगी
सच मैं और पागल हो जाऊँगा
इस बार रेत पे तेरी तस्वीर नहीं
तेरे घर के दीवारों पे बनाया करूँगा
उस आसमा को चाँद को छोड़
तुझको इशारा किया करूँगा
हवाओं को धत्ता कर
सिर्फ और सिर्फ
तुमसे बातें किया करूँगा
क्या तुम्हें ये सब मंजूर होगा
एक पागल आशिक़ का आशिक़ी बनना

सोच लो फिर मत कहना
एक पागल न डोरे डाल के
मुझको फांस डाला
क्योंकि
मेरा काम है तेरे प्रेम में
बस पगलपंती करना
तेरे लिए कविता लिखना
और वक़्त मिले तो
तेरे यादों का धुएं का छल्लें बनाना ...!!

Thursday, October 10, 2013

गृहस्थ खोते गृहस्थी ..



अजी सुनते हो ..
क्या है,
मैंने कहा आप न ऑफिस से लौटते वक़्त
कुछ हरी सब्जी
और
वही मेज पे पड़ी है कुछ
किचन के सामान की लिस्ट है
वो लेते आना,

अच्छा और भी कुछ है क्या ?

हाँ है न ,
आप का लंच बाक्स वही तैयार कर के रखी है
भूल मत जायेगा
शूज भी पोलिस कर दी हूँ
कपड़े भी प्रेस करके वही बिस्तर पे रखे है
सुनो मैं ना आज नीली वाली शर्ट निकली दी है
वही पहन के जाना
हाँ उस कमीज का एक बटन टुटा हुआ है
मैं अभी आ रही हूँ टांक दूंगी
बस ब्रेड टोस्ट कर लिया है
चाय उबलने वाली है
उबलते ही लेके के आ रही हूँ
तब तक आप तैयार हो लो

थोड़ी देर बात

गुस्से से आप न अभी तक तैयार नहीं हुए
हद कर दी
चलिए जल्दी से कमीज पहन लीजिये मुझे बटन टांकने है
बटन टांकते वक़्त ...
जानते हो आप न हमेशा बच्चे ही रहोगे
मुझे लगता है यूँ ही रोज तैयार करना पड़ेगा आपको

अब मैंने कहा ..
क्या करे बीबी आपकी आदत सी हो गई
रोज सुबह जो आपकी इतनी बातें सुनने को न मिले
तो जैसे लगता है कुछ गड़बड़ है
फिर मैं सारा दिन परेशान रहता हूँ
आपका इतना प्यार बीबी मुझे क्या बोलू

अरे जो बोलना है बोल दीजिये
वैसे मैं सब समझती हूँ
ये मस्का मत लगाइए
आपको जाते वक़्त जो चाहिए वो भी मिल जायेगा

मैं फिर बोला  .. अरे पगली
यही तो तेरा प्यार है
जो बिना बोले मेरे आप सब समझ जाती है

ऑफिस जाते वक़्त
फिर बीबी ने अपना प्यार दिया
और मैं हँसी ख़ुशी अपने ऑफिस को निकल गया ..

शाम में
उसके दिए लिस्ट के सामान
सब्जी और एक प्यारा गिफ्ट उनके लिए
मैं लेके आया
जिसे देख वो बहुत खुश हुई
आँखें उनकी भर आई
और आई लव यू करके गले लगा लिया ..

इतना प्यार बीबी का देख
जैसे मुझे यूँ लगा आज मुझे सब कुछ मिल गया ..

लेकिन ये कहानी मैंने यूँ नहीं सुनाई है  .. इसके पीछे एक बहुत ही प्यारा सा मकसद है .. दरसल आज मैंने ऐसे कई गृहस्थ जीवन को पास से देखा जहाँ पति-पत्नी के बीच से प्यार नदारत हो चुके है, मैं आज अपने शब्दों के सहारे उन्ही को ढूंढने को निकला हूँ ताकि हर कोई मेरे काल्पनिक सोच की तरह सुखमय जीवन जी सके .. और जब घर परिवार खुश तो आप सोच लो आगे क्या हो सकता है ..

वैसे कहने तो आज पति-पत्नी दोनों साथ तो रहते है पर एक दूसरों से काफी दूर .. जहाँ पत्नी घर और बाहर का हर छोटे से बड़े हर काम करते करते परेशान रहती है और पति सिर्फ पैसे कमा के देने पे रोब झाड़ने में लगा रहता है .. ऐसे मानसिकता से ग्रस्त हो चुके है पुरुष मैं मानता हूँ आपको पैसे कमाने के बहुत सारे तनाव रहते है जिसके कारण ऐसा करते है पर तनाव को दूर करने का सोचिये उसको दिल में जगह देना का नहीं ! आपकी पत्नी भी तो आपके गृहस्थ जीवन की हिस्सेदार है वो भी सुबह से शाम कर देती है आपकी छोटी छोटी हर ज़रूरत को पूरा करते करते उसका क्या ? वो तो कभी आप पे रोब नहीं दिखाती हाँ पर आपसे हमेशा थोड़ा सा प्यार मांगती है जिससे वो हर अगले सुबह उसी समर्पण के जज्बे से दैनिक कार्य को कर सके .. मैं तो कहूँगा आप अपने पुरुषार्थ के खोखली कमीज उतार कर अपने तनाव का चोला फेंक कर थोड़ा अपने पत्नी को समझे और खुद को भी समझने का उसे मौका दे .. फिर देखे जिंदगी जीने में क्या मज़ा आता है .. ये आजमाया हुआ नुस्खा है, कारगर होगा आप सब के लिए भी !!

बाबूजी ...



कुछ समेटना चाहता हूँ
आज आपकी खामोशी से
रिटायरर्मेंट पे मिली
तन्हाइयों के पेंशन से
आपके रेडियो के आल इंडिया
चैनेल से
सुबह के अख़बारों के पन्नों से
और न जाने क्या क्या
आपके ख्यालों से

पर मैं सोचता हूँ
क्या ये सब मैं समेट पाउँगा "बाबूजी"

शायद कभी नहीं
क्योंकि मुझे हमेशा याद आता है
आपका वो विशाल हिर्दय
जिसके नग्न उँगलियाँ पकड़ कर
मैंने जीवन पथ में चलना सीखा
आपके कंधों पे बैठ कर
जहाँ बोझा ढ़ोना सीखा
आप के तीखे तल्ख भरे
डांट के स्वर सुन
खुद को संभालना सीखा

न नहीं मैं कभी नहीं समेट पाउँगा
"बाबूजी"

सच तो ये है
आज मैं बिखरना चाहता हूँ
आप के
गंगा जैसे पावन चरणों में
खुले आकाश जैसे सीने में
उम्र की इस ढ़लती साँझों में
एक आस से मेरी और घूरती
आपकी इन शांत पड़ी आँखों में
क्योंकि
आज की आपकी ये दशा देख
मुझे
मेरे बचपन की याद आती है
कैसे आपने मेरे हर विवशता को
अपने वजूद से पुचकारा था

कर लेने दो
आज मुझे फिर अपने मन की
उन दिनों की तरह फिर मत रोकना
क्योंकि आप बूढ़े हो गये हो
पर मैं आज भी बच्चा हूँ
जिसको आपने एक उम्र से
अपने पसीने से है सींचा
जहाँ
कल आप मेरा खिलौना थे
आज मैं आपका खिलौना बनना चाहता हूँ
वही रेडिओ , वही अखबार
वही उम्र भर की कमाई का खुशियों का पेंशन ...!

Monday, October 7, 2013

तेरा-मेरा प्रेम ...



कई बार
किताबों की दुनिया में झाँका
पर
एक मेरे और एक तेरे जैसा
कोई किरदार वहाँ नहीं दिखा
क्या हम-तुम
हकीकत में एक ही बार बनाये गये है

जबकि
वो राम-सीता की जोड़ी
वो कृष्ण-राधा की जोड़ी 
मुझे हमारा ही रूप प्रतीत होता है
क्या तुमको
ऐसा नहीं लगता है

लगता होगा
क्योंकी
जब जब तूने मुझे अपने सीने से
लगाया था
मैं खो के तेरे आगोश में
उन्हीं युगों में पहुँच जाता था

वही कृष्ण की सारी
नादानियाँ मैं तेरे साथ दोहराता था
और
तुम राधा की तरह शर्मा के
मेरे भुजाओं में सिमट जाती थी
मैं प्रेम में तेरे बंशी बजाता
और
तू प्रेम गीत गा के उसे साभार करती थी

ये सब क्या था

ये सब
एक मात्र प्रेम का स्पर्श तो नहीं हो सकता
ये और भी कुछ था
और भी कुछ है 
जिसे तुझे तुझे महसूसना है
तब नहीं महसूसा
तो अब
हमारे वियोग की वेदना में

अपने रातों के करवटों में
स्याह रात के घुप अंधेरें  में
बिस्तरों पे सुबहों के उभरें सिलवटों में
पूस की रात के बिलकते सर्द में
जेठ के चीखती धुप में
सावन के टप-टप गिड़ते बूँदों में
आँगन में अकेले गड़े तुलसी में

इन सबों के छुपे दर्द में
मैं तेरे वियोग को भोगता दिखूँगा
जैसे
मुझे हमेशा तू इन दर्दों में दिखती है

एक बार
बस तू अपने दिल को शांत कर
बैठ जाना
खुले आसमान के निचे
वही यमुना नदी के
पास की बरगद के पेड़ के निचे
जहाँ हमारा तुम्हारा बचपन बिता था
देखना
तुझे फिर सब दिख जायेगा
और फिर से
तुझे वैसा ही प्रेम हो जायेगा

अगर जो ऐसा हो जाये
तो
नदी की धारा पे
मेरे नाम से
एक कस्ती कागज की खतनुमा
बहा देना
मैं अगले दिन ही आ जाउँगा
तुझसे अपना वही अकूट प्रेम माँगने

क्योंकि
बरसों से नदी के दुसरे किनारे पे अकेला बैठा
बहुत ही व्याकुल हो चूका हूँ
बस एक तेरे इंतजार में .. समझी पगली ..

Friday, September 27, 2013

कभी - कभी ...



मेरे वो प्रेम में दिए
तोहफे और ख़त जैसे सारे दस्तावेज
संभाल के रखना
जिसको तुम अक्सर रातों को
अपने तन्हाई में देखा करती थी
खुद को भूल फिर मेरे ख्यालों में
रातों को जगा करती थी

कभी कभी रह रह कर
उन विरहा की काली रातों में
मेरे में भी बदन में सिहरन हो उठता था
मैं तनिक हैरान नहीं होता था
तुरंत ही समझ जाता था
तूने ज़रूर आज फिर
मेरे दिए दस्तावेज का धुल झटका होगा
अपने सूक्ष्म भावनाओं
की नग्न वेदना की तपिश में
सोम्य हाँथों से स्पर्श किया होगा

पर
इस स्पर्श की अनुभूति
जितना मुझे तेरे यादों में धकेला था
इनसे कहीं जादा
तुमको इसके गहराई में उतारी होगी
ये तो तय है ..

क्योंकी
उन तमाम रातों को
चाँद आसमा से ओझल रही
मैं और मेरी आँखें टकटकी लगा के
सारी रातें उन्हें बादलों में खोजता रहा
पर वो नहीं मिली
आज एहसास हो रहा
उन्हीं बातों का
की वो आसमा का चाँद कोई और नहीं
तेरा ही एक स्वरूप था ..

जो हर रातों को
अपने प्रकाश के सहारे मुझसे
मिला करती थी
मेरे बदन से लिपट कर
तेरे साथ होने का एहसास दिया करती थी
भले ही कुछ नहीं बोला करती थी
पर उस समय वो एहसास मात्र ही काफी
होता था मेरे लिए
सारे दिन का थकान मिटाने के लिए
शायद
तू भी इतना ही चाहती थी
तभी तो उन दिनों मुझे भी
रातों को खुले आसमा के निचे
सोने की आदत सी हो गया था

लेकिन
आज फिर आसमा में
जब तुझको नहीं देख रहा हूँ तो
अच्छा सा लग रहा है
क्योंकी
रोज मिलते रहना ही प्रेम नहीं है
कभी कभी पुराने तोहफे और ख़त
जैसे दस्तावेज से धुल झटकना
भी प्रेम है ...

तेरे मुँह से ही सुना था
तेरा हर तोहफे ..
तेरे हर ख़त जैसे दस्तावेज को स्पर्श करना
मुझे तेरे बदन के स्पर्श की अनुभूति देती है,

सत्य था तेरा वो कहना ..
आज मैंने भी वही किया है ..

Thursday, September 26, 2013

सोच रहा हूँ इतना ...



सोच रहा हूँ इतना तेरे नाम के आगे क्या लिख डालू
हर्फ़ लिखू हलंत लिखू या कोमा रख यूँ ही छोड़ डालू

तुम पढ़ ले हर शब्द को मुझसे ऐसा कुछ कर जाऊँ
साँसें रख तेरे हाँथों में संग दूर तेरे कहीं निकल जाऊँ

तू देखे मुझको और मैं देखू तुझको इतना बदल जाऊँ
पा के प्यार सागर सा प्यार की परिभाषा बदल डालू

है मुझे थमना नहीं तेरे प्यार में कहीं ये भी कह डालू
कागज़ की कस्ती बना तेरे संग खुद को दूर बहा डालू

रख के ख्याल तेरा तुझमें मुक्म्वल इतना हो जाऊँ
खुद की सिसकियाँ को भूल तेरे हर गम निगल डालू

सोच रहा हूँ इतना तेरे नाम के आगे क्या लिख डालू
हर्फ़ लिखू हलंत लिखू या कोमा रख यूँ ही छोड़ डालू

Friday, September 20, 2013

अर्जिया भरे ख़त ...



यूँ ठंडे बस्ते में न डाला करो
तुम मेरी अर्जियों को
वक़्त बेवक्त निकाल के
पढ़ लिया करो कभी
हम प्रेम करते है तुमसे
तभी तो लिखते रहते है
ये अर्जिया भरे ख़त तुमको ..

जिसको कभी मैं
रातों को जग
जुगनुयें पकड़ के लिखता हूँ,
कभी अहीर भेरवी के सुबह में
पँछियों के शोर के संग लिखता हूँ,
कभी साँझ के सिंदुरी आलम में
सूरज के डुबकी के संग लिखता हूँ,

और
न जाने कैसे कई
नजारों के संग
जिसकी तुमने कभी ताबीर नहीं की होगी
ऐसे मंजरों के संग लिखता हूँ,
और तुमने
उन सारे खतों को
यूँ रख छोड़ा है ...

मेरी बात मानो
आज अपनी व्यस्त ज़िंदगी से
वक़्त निकाल के पढ़ो
मेरे उन खतों को ..

देखना तेरा रोम-रोम
न सिहर उठे तो कहना
अगर तेरे अंदर प्रेम की वही
लालसा न जगी तो कहना,
क्योंकी मैंने इनमे
रखे एक एक एहसास में
तुझको महसूसा है
फिर अर्जियां लिखा है,

बस
पढ़कर महसूस कर
स्वीकार लेना ...

मैं और मेरा प्रेम
यूँ ही निर्जीव से सजीव हो जायेंगे ...

Thursday, September 19, 2013

काश .... !



बहुत ही भोली हो तुम
जो आज भी
मेरे दिल को नहीं समझती हो
मैं वही मगरूर सा आशिक़ हूँ
मेरा पेशा भी वही है
एक चित्रकार का
जो दुनिया के लिए तस्वीरें तो बनाता है
पर खुद के लिए कभी कुछ नहीं करता
तुम खुद भी उसी तस्वीरों की एक उपज हो
जिसे मैंने खुद के दिल के
सूक्ष्म रंगों से सजाया था
ताकि दुनिया तेरे वजूद को
हर रंगों में ढाल के अपना सा महसूस कर सके

मुझे पता है
मैं एक हद तक
सफल हुआ हूँ
अपने इस चित्रकारी में
पर एक सत्य ये भी है की
मैंने जब तेरी तस्वीर बनाई
तब से तुझे प्यार कर बैठा हूँ
अपने मगरूरपन को ताक पे रख कर

मैंने फिर हर दिन घंटों बीता के
तुझसे न जाने क्या-क्या बातें की
और तुम चुपचाप उसे सुनती रही
मुझे लगता था
तुम मेरा इतना प्रेम देख
मेरी बातें सुन
खुद ही बोल पड़ोगी
पर कई अरसे बीत गये
तुम न बोली

और
मैं अपने मगरूरपन में
तेरी वही तस्वीर बेच डाली
अब खल रहा है मुझे
अपना यही मगरूरपन
जब तुम दूसरों का हो गई हो
कोई दूसरा तुमपे अपना अधिकार
जताता है

काश !
तुम मुझे समझ पाती
और उस वक़्त बोल लेती
फिर आज हम ऐसे नहीं होते
अपने ही रंगों से खुद को रंगा हुआ
महसूस करते  ..

खैर छोड़ो  .. तुम्हें क्या .. !!

Wednesday, September 18, 2013

तू चली आ ...



तुम क्यों नहीं
चली आती हो
इस कटीले बार के
इस पार
जहाँ मेरे निगाहों का
ठहराव बसता है
जहाँ एक लगन से
मेरा प्रीत
तेरा इंतजार करता है
साँझ के सिंदूरी आलमों से
करके लड़ाई
रातों को मेरा दिल जगता है

और क्या क्या
मैं बताऊँ तुमको ..

जो तुम ही तो कहती रहती हो
मैं तुमको खुद से जादा जानती हूँ

फिर क्यूँ ..
मेरे बिस्तरों पे
मेरे अकेलेपन की सिलवटें
रोज सुबह को मिला करती है
तकियों के रुइओ से
मेरे आँसुओं की बू आती है
क्या यहाँ भी तुमको
मेरे लेखन कला का नाटक दीखता है

अगर ऐसा है तो
मैं और खुद के बारे में लिख नहीं पाऊँगा
तुमको खुद आके
मेरे प्रेम को परिभाषित करना होगा
और साथ ही
मेरे दिल को दिखाना होगा
जैसे मैं बेचैन हूँ
जीवन के इस कटीले बार के
इस पार
तू भी इतना ही बेचैन है उस पार

अब देर न कर
तू चली आ ..

अधीर मेरे साँसें
मेरे सीने को कोसती है
तेरे विरहा की अग्नि में ...

Tuesday, September 17, 2013

तुम्हें क्या ...



मैं एक गंवार था
दुनिया के
तोर - तरीके का चलन
मुझे नहीं आता था
मुझे तो ये भी नहीं पता था
की मैं क्या हूँ ...?

फिर
एक दिन यूँ ही
मुझे तू मिल गई
तुमने मुझको देखा समझा
और अपना बहुत सारा स्नेह दिया
शायद तुमने मुझमें छुपे
सादगी को जो देख लिया था मुझसे मिलकर,
वक़्त और आगे बढ़ा
धीरे- धीरे हम रोज
मिलने लगे
फिर क्या था
तेरा साथ और स्नेह पा के
मैं बहुत जल्दी ही बदल गया
एक सभ्य और सुलझा हुआ इंसान
बन गया,

पर
यूँ रोज मिलते मिलते
मुझे तुझसे प्रेम हो चला था
और मेरे अंदर हुए बदलाव के लिए
मैं तुझे कुछ तोहफा देना चाहता था
जिसे तूने लेने से इनकार कर दिया था
ये कह कर दोस्ती में
ऐसा नहीं होता है
ये सुन मैं बेहद खुश हुआ

फिर क्या था
मैंने एक रोज हिम्मत करके
तुझे आखिर बोल ही डाला
की .. मैं तुम्हें प्रेम करने लगा हूँ
जिसे सुन तुम सबसे पहली हंसी
फिर बोली
तुम बहुत देर कर दिए हो
मैं किसी और की हो चूँकि हूँ
उस समय मैं शब्दवान होके
भी निःशब्द हो गया
तेर बात सुन
जैसे मानो आसमान की सारी बिजलियाँ
मुझपे गिड़ आई हो
लेकिन खुद को संभाल कर
अगले क्षण मैंने तुझसे
हँस के झूठ बोल डाला
अरे ये तो मैं मजाक कर रहा था तुमसे
शायद फिर तुम्हें मेरी ये बात सुन
राहत मिली ..

पर सत्य तो यही था
मैं तुझसे प्रेम करने लगा था
तेरा मेरे प्रेम को यूँ ठुकराना
मुझे फिर से
जैसे वहीँ लाके खड़ा कर दिया था
जहाँ से मैं चला था
एक गंवार बनके ..
और आज तुमको न पाके
दिल के हाँथों फिर से गंवार बन गया

खैर छोड़ो .. तुम्हें क्या .

Tuesday, September 10, 2013

मुबारक हिना ...



तेरे हाँथों में 
आज भी जिन्दा हूँ .. कैसे, 
मुबारक हिना के 
खुशबू से पूछ लेना 
जो यकीं न हो तो ..

तेरे हाँथों के सुर्ख रचे
गोटे से निकल के 
सरल वरन 
पर कथित मेरा ही संवाद देगा 
ये हिना ..
जिसके सुर्ख रंगों के देख 
तेरे आँखों में एक सवालिया 
बीज पनपता था हमेशा 

क्या .. सच में 
ये हिना के गोटे  की लाली 
तेरे अकूट प्रेम की निशानी है ...

जवाब होगा वही जो 
तेरा दिल चाहता है .. हाँ 

तनिक हैरान होगी 
पर सुर्ख पड़े रंगों की लाली 
देख .. अवश्य ही तुझे 
यकीं हो जायेगा 
तेरे हाँथों के हिना का भी 
नाता मुझसे ही है ...

Friday, May 10, 2013

"काश मेरा ये प्रेम तुमसे होता"

ऐ दरख्त शायद
आज तुमने
कुछ कहा था मुझसे
अपनी वो बेचैनी
वो विडम्वना
जो सिर्फ और सिर्फ
मैं महसूस
कर सकता हूँ तेरा

कैसे चट्टानों का भी
दिल रोता है
कैसे
बूँदें अश्कों की 
चट्टानों की आँखों से
छलकता है
रंग लिप्त
उदाशीनता लिए
वो मैं अब समझ
सकता हूँ तेरा

क्यूँकी तूने आज
दर्द की हर ताबीर से
अपने रु-ब-रु
करवाया था मुझको
जिसको महसूस कर
मेरी काया भी
अश्क बहाई थी

"क्या दिल सिर्फ
इंसानों को ही होता है
क्या वजूद के लिए
सिर्फ इंसान ही लड़ते है
क्या प्रेम करने का हक़
सिर्फ इंसानों को ही होता है"

ऐसे तेरे कई अनगिनत
सवाल
जिसके जवाब की शक्ल में
मेरे पास
लज्जा के कुछ नहीं था 

मुझे मालूम है
तुझे भी प्रेम हो चला था
किसी इंसान से
जो तुझे
सिर्फ व सिर्फ
चट्टान समझता है
पर मैं कह दू
मेरे दोस्त
हम इंसान
तुझसे बनाई
मूरत को ही पूजते है
अधीर मत हो
अपने प्रेम को वो रूप दो
जो तुझे
सिर्फ पत्थर समझे
वो भी
तुझे कुछ यूँही पूजे

इतनी बात मेरे सुन
वो थोड़ी खिलखिलाई
और फिर बोली
तू इंसान होके भी
हम चट्टानों को
इतने अच्छे से समझा है
"काश मेरा ये प्रेम तुमसे होता"

मैं हँसा
और मन में बोला
काश मेरी प्रेमिका तुम जैसी होती
जो खुले मुँह ये कह देती
"काश मेरा ये प्रेम तुमसे होता"  ..

Monday, March 25, 2013

जब झाँकती है वो


एक भोली सी
ज़िद्द ही उनका मेरे
जीने का सबब है
जब झाँकती है वो
दरारों से मेरे घर को
फिर उनका उन दरारों
घर कह जाना ही गज़ब है

उलझ जाता हूँ मैं
बारिशों में टपकते
अपने छतों को देख कर 
उनका उन टपकते पानियों को
हिज़ाब कह जाना ही गज़ब है

ज़मीन पे बिखरा
लेटा रहता हूँ
अक्सर उनके यादों में
उनका मिट्टी के इस
बिछोने को ख्वाबगाह
कह जाना ही गज़ब है

तिलस्मी किवारें
मेरे घरों की
जब हवाओं के संग
शोर करती है
फिर उनका उन शोरों को
मेरी आह
कह जाना ही गजब है 

भूख से चीत्कारता
मन मेरा
जब गैरों को
अन्न के टुकड़े बाँटता है
फिर उनका मेरे इस
रहमदिली को
प्यार कह जाना ही गज़ब है

अपने आस्तीन के
खाली जेबों के सहारे
मुफ्लिशी मैं रोज
बिफर रहा हूँ मैं मगर
उनका उन खाली जेबों में
मेरे इश्क़ का दीनार
भरा है
कह जाना ही ग़जब है !!

Friday, March 22, 2013

कटिंग धाड़ ...

गोय्ठों की छाप से
धूमिल दीवारों की सफेदी
अधकीचरों शब्दों से
जैसे किसी ने सफ़ेद पन्ने को
अपने कुरीतियों से ढ़क दिया हो
और बची खुची ज्ञान
ईटों की तरह दीवार
की नींव को बचाने में
अपनी ताकत झोंक रहा हो

व्यर्थ के ये प्रयत्न है सारे
क्यूंकि मानसिकता
आज शून्य पे जा पहुँची है
भूख और कोलाहल
इतना बढ़ चुका है
की इंसा अपने ही
सीमा भूल चुके है
तभी तो अपने दक्षता
साबित करने के लिए
अधकिचरें बिंगे हाफ रहा है
और दुसरें की हदे धूमिल कर रहा है

सच्चे मायने में आज ज़रूरत है
ऐसे इंसानों को और सामाजिक
परिवेश में रहने वालों
ऐसे क्षुब्द बुद्धिजीवी को
हमारे शहर से गुजरने वाली
शोक ग्रस्त तीखी नदी कटिंग धाड़ की
क्यूंकि जब ये इनके
मनमस्तिक से होकर गुजरेगी
एक बाढ़ सी स्तिथि पैदा होगी
जो गुजरने के पश्चात
इनके मानसिकता को कोरा कर देगी
और फिर इस कोरेपन में
जो बीज ज्ञान का बोया जाय
वो पोधे से पेड़ की श्कल
कटिंग धाड़ की तरह लेगा
जो एक साफसुथरे ज्ञान की
दूकान की तरह होगी
जिसके खरीदार अच्छे ज्ञान की
पुस्तक के बदोलत हमारे समाज
और परिवेश को साफ़ सुथरा रखेंगे
गंदगी और धूमिल नहीं !!

Sunday, March 17, 2013

लिख दू ...

एक पंक्तियों में
ग़ज़ल लिख दू
हाल अपनी मोहब्बत
उसमे सब सरल लिख दू

में खुद को ठोस चट्टानों सा
अपनी जीनत को
पानी सा तरल लिख दू
वो बहती जाये बहती जाये
निराधार नदी सा
ओर मैं उसमे खुद को
ईच्छाओं का कमल लिख दू

और लिखू ..

मोहब्बत के बाज़ारों में
अपनी आसुओं का
हर असल लिख दू
लौट के जो आई कभी दुआएं
उनकी चोखट से
उनकी भी फज़ल लिख दू

लिख दू हर मुमकिन जो हो

एक बार एतबार के
नामो का खुद को
खेतों का फसल लिख दू
काट ना सके फिर
उसको ऐसा कोई गरल लिख दू .. !!


Saturday, March 16, 2013

ये हवाएं गुस्ताख है ...



किन-किन हवाओं ने तेरी ख़बर
मुझ तक ना पहुँचाई
उन ना फरमानों का
पंख क़तर डालूँगा मैं,
एक दिन की जुदाई
का सबब कायनात से
उनको सुना डालूँगा मैं,

वो रोयेंगे भी तो
ना पिघलूँगा मैं
इश्क़ की वादा खिलाफ़ी
क्या होता
उनको सरेआम बता दूंगा मैं,

आगे से जब भी तुमसे मिलेगा
झुक के सलाम करेगा वो
मलिका-ए-इश्क़ कह कर
हर घड़ी तेरा एहतराम करेगा वो
गर जो फ़िर भी कोई
शिकायत होगी तो बता देना
उनके आवाज़ को भी कैद कर दूंगा मैं,

किन-किन हवाओं ने तेरी ख़बर
मुझ तक ना पहुँचाई
उन ना फरमानों का
पंख क़तर डालूँगा मैं,

मैंने सुना था कैसे इन गुस्ताखों ने
आशिकों से अपनी रंजिश निभाई थी
तभी तो उसने हीर की ख़बर
रांझे तक नहीं पहुँचाई  थी
अपने साथ ये नहीं करने दूंगा
तेरा गुलाम इसे बना के रखूँगा मैं,

घड़ी घड़ी तेरे जुल्फों को
मेरा नाम लेके उड़ाएगा ये
मेरे बारें
में कह कह कर
तेरे कानो में
तेरा मन बहलाएगा ये
जो इस बार भूल से भी कोई गलती की
तो तेरी क़सम जीनत
इन सबका दुनिया से नाम मिटा दूँगा मैं,

किन-किन हवाओं ने तेरी ख़बर
मुझ तक ना पहुँचाई
उन ना फरमानों का
पंख क़तर डालूँगा मैं,
एक दिन की जुदाई
का सबब कायनात से
उनको सुना डालूँगा मैं .. !!

Friday, March 15, 2013

तू दूर ही खड़ा रहना मुझसे ...



ना मैं उलझुंगा तुमसे
ना तू उलझना मुझसे
मेरी किस्मत
तू दूर ही खड़ा रहना मुझसे,

मैं चुपके से आके
तेरी गलियों से गुज़र जाऊँगा
तू रहम की
एक नज़र ना फेकना मुझपे,

बात जब भी तेरी आएगी
पन्नों के हाशिये छोड़ दूंगा
जो तुम्हें लिखना होगा
लिख देना मैं कुछ ना कहूँगा तुमसे,

बड़ी बड़ी बातें करते थे तुम
एक छोटी सी बात प्यार ना समझ सके तुम
अब इलज़ाम बेवफाई का मुझपे आये या तुमपे
अपनेपन का एक भी जिक्र ना कोई करूँगा तुमसे,

ना मैं उलझुंगा तुमसे
ना तू उलझना मुझसे
मेरी किस्मत
तू दूर ही खड़ा रहना मुझसे,

कल बिताये थे बहुत सारे पल साथ तेरे
आज यादों की सोगात समझकर साथ रखूँगा उसे
तू कुछ और माँग लेना जब तुम्हे माँगना होगा
पर एक भी याद ना बाटूंगा तुमसे,

मैं अकेले अब बहुत खुश हूँ
फिर मजाक बनके ना आना तू कभी धमसे
बहुत जलाया हूँ दिल अपना तेरे दूरियों में
अब मैं माफ़ी चाहूँगा तुमसे,

मेरे रास्ते गरीबी की ही सही
अकेला चलना मंजूर होगा तुम सब से
थक के जो कभी प्यास आई तो
फिर तेरे नाम की एक घूँट पी लूँगा झट से,

ना मैं उलझुंगा तुमसे
ना तू उलझना मुझसे
मेरी किस्मत
तू दूर ही खड़ा रहना मुझसे !!

तुझे सब पता चल जायेगा ...




मेरे बेचैन सांसों को एक नज़र तू देख ले
हुआ है क्या मेरे दिल को मेरे दिल से तू पूछ ले

तुझे सब पता चल जायेगा
तुझे सब दिख जायेगा
मेरे बेचैन सांसों को एक नज़र तू देख ले,

क्यूँ खामोश दूर तक जाती है आँखें
क्यूँ सितम तेरी सह जाती है रातें
क्यूँ उलझ कर ठहर जाती है बातें
क्यूँ याद में तेरे सिहर जाती है बाहें

तुझे सब पता चल जायेगा
तुझे सब दिख जायेगा
मेरे बेचैन सांसों को एक नज़र तू देख ले,

हँस-हँस के गुज़ारा था जो पल तेरे पनाहों में
छुप-छुप के बिठाया था जो तुम्हे निगाहों में
वहीँ कैसे दूर देखू तुझे में अब किनारों में
जब तू ही तू, जब तू ही तू,थी मेरे एक सहारों में,

तुझे सब पता चल जायेगा
तुझे सब दिख जायेगा
मेरे बेचैन सांसों को एक नज़र तू देख ले,

है जुस्तुजू आरज़ू इनायत सब तुमसे 
तुम हो तो सब है, तुम हो तो तुमसे
जो तू नहीं तो कुछ नहीं
जो तू है तो सब तुमसे
बस आ देख ले,

तुझे सब पता चल जायेगा
तुझे सब दिख जायेगा
मेरे बेचैन सांसों को एक नज़र तू देख ले !!

और एक वो है ..

हम खलिश मुफलिशी में भी मोहब्बत के दीनार बाँटते रहे,
वो इकलोते ज़िंदगी के जागीरदारी में भी बटुए सिलाते रहे,

हमने तमाम उम्र अपने को ये कह कर कोस लिया,
और एक वो हैं की अपना ही चेहरा मुझसे छुपाते रहे,

इतने पे गर जो मैं नाफरमान बन जाऊं तो गम ना होगा,
इलज़ाम सर आये सितमगढ़ का तो वो कम ना होगा,

क्यूँकी खासा प्यास से इश्क़ के धुप में हम घुलते रहे,
और एक वो है की मेरे तस्वीरों को अपने अश्क से पोछते रहे !!

Thursday, March 14, 2013

नभ छूने की चाह ...


धूमिल सी काया
दिल में लिए
नभ छूने की चाह
शोषित मन
कुपोषित सपने तले   
जैसे बोराया सा पावं
भूख से चीत्कार रहा हो
सफलता के आग  खाने के लिए ..

यूँ तो आज
वक़्त के मिश्रित सभ्यता में
फसलें तो कई लगे हुए है
पर इनके अनाज के दाने कहीं
और भूसे कहीं रखे हुए है
ऐसे पक्षपाती हालत है
तो ऐसे कैसे मेरे भूखे कदम ढूंढेंगे
नभ छूने की चाह ..

हो चाहे जैसे हालात
किरदार भी चाहे कितने हो
जग के माचिस की डिब्बी में
पर आत्मविश्वास का
जलता मसाल
मेरे निर्धन और दरिद्र ज्ञान ने भी
उठा रखा है
फूंक ही डालूँगा 
जिस दिन अवसर हाँथ लगा 
दुनिया के रद्दी के भाव को 
क्यूंकि मेरे पास है  
नभ छूने की चाह ..