Friday, December 6, 2013

प्रेम परिधि ...


मैं तुमको प्रेम का
एक गोल परिधि दूँगा,
जिसके हर एक कोण पे
सहर्ष सा
मैं तुमको धँसा हुआ मिलूँगा,
जहाँ मेरे पास तुझे देने को
अपने जज्बात, अपना उम्र,
अपना वजूद, अपना ह्रद्य,
अपना साँस, अपने सपनें होंगें,
और सुन तू पगली
मैं तुझे
उस गोल सी परिधि के अंदर ही रखूँगा,
ताकि तुझे मेरे आगोश की
महफूज़ बाहें मिल सके,
जहाँ कभी तुझे दुःखों के
बाहरी कठफोड़वे छू न सके,
जहाँ हम और तुम होंगे
और साथ होगी
अपलक झपकी हमारी ख़ुशियाँ,
जिसकी नग्नता में
तू चाँद बनके निकलना
और मैं चाँदनी बन
तेरे बदन से लिपटा करूँगा, 
कभी तू फूल बन जाना
कभी मैं उस फूल की मादक खुशबू बन
हवाओं में बिखर जाया करूँगा,
देखना
तेरे एहसासों को प्रेम की
वो परिभाषा दूँगा
जिसके काजल तेरे
भाव विभोर आँखों में लग कर
एक प्रेमिका होने का स्वेत सा पहचान देगा
फिर तेरा ह्रदय करे तो झूम लेना
मैं रोकूँगा नहीं
क्योंकि
मैं भी पहली बार ही किसी
ख़ुशी को नाचते देखूँगा,  
बस
तुम इस
परिधि को स्वीकार लेना,
मेरे महफूज़ बाँहों में समा के
अंगीभोर होने के लिए … !

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