Thursday, March 14, 2013

नभ छूने की चाह ...


धूमिल सी काया
दिल में लिए
नभ छूने की चाह
शोषित मन
कुपोषित सपने तले   
जैसे बोराया सा पावं
भूख से चीत्कार रहा हो
सफलता के आग  खाने के लिए ..

यूँ तो आज
वक़्त के मिश्रित सभ्यता में
फसलें तो कई लगे हुए है
पर इनके अनाज के दाने कहीं
और भूसे कहीं रखे हुए है
ऐसे पक्षपाती हालत है
तो ऐसे कैसे मेरे भूखे कदम ढूंढेंगे
नभ छूने की चाह ..

हो चाहे जैसे हालात
किरदार भी चाहे कितने हो
जग के माचिस की डिब्बी में
पर आत्मविश्वास का
जलता मसाल
मेरे निर्धन और दरिद्र ज्ञान ने भी
उठा रखा है
फूंक ही डालूँगा 
जिस दिन अवसर हाँथ लगा 
दुनिया के रद्दी के भाव को 
क्यूंकि मेरे पास है  
नभ छूने की चाह ..

No comments:

Post a Comment