Sunday, August 30, 2015

“तारकोल का चोर” (कहानी).



कहीं धरती हमेशा उबलती है, कहीं आसमां हमेशा झुकता है। कहीं भूख हमेशा सोती है, कहीं रोटी हमेशा लड़ती है
यह सच है, भूख जब चरम पर पहुँच जाती है तो हर प्राणी अपनी भूख के लिए लड़ता है, अपनी  रोटी के लिए लड़ता है। कई बार ये लड़ाई मानवीय और अमानवीय दोनों तरह की हो जाती है।
मधेपुरा, बिहार का एक ऐसा जिला, जो जिला तो है मगर उसको पूरी तरह से जिला बनने में अभी बहुत वक़्त लगने वाला था। रेलवे स्टेशन से शुरू होता शहर कॉलेज चौक पर आकर ख़त्म, दो किलोमीटर में पूरा शहर। तमाम स्कूल कॉलेज, सरकारी दफ्तर, बाजार इन्हीं दो किलोमीटर के दायरे में थे। सन १९९० की बात है, मई दोपहर की उफनती गर्मी में शहर के बीचोबीच पीडब्लूडी ऑफिस के मेन गेट पर बड़ी तादाद में लोग इक्कठे हुए और जम कर नारेबाजी करने लगे। मौज्मा गाँव को शहर से जोड़ो, शहर से जोड़ो, शहर से जोड़ो पक्की सड़क बनवाओ, सड़क बनवाओ, सड़क बनवाओ। उस वक़्त पीडब्लूडी चीफ़ इंजिनियर ने उस भीड़ को यकीन दिलाते हुए कहा जल्द से जल्द सड़क बनवा दी जाएगी, हमे सरकार के भी आदेश मिल चुके है। देरी हो रही है तो सिर्फ तारकोल की वजह से, जैसे ही हमें तारकोल मिल जायेंगे, मौज्मा गाँव को मुख्यालय आने वाली पक्की सड़क से जोड़ दिया जाएगा
यह आश्वाशन नेताओं के तरह तो नहीं थे और न ही सड़क बनवाने की माँग, किसी पार्क या सौंदर्यी करण की थी। यह उस गाँव की मूलभूत जरुरत और वहाँ के जनता का वाजिब हक़ था। जिसे पीडब्लूडी चीफ़ इंजिनियर ने बड़े ही गंभीरता से लिया था।   
कुछ महीने दिन बाद सड़क बनाने का काम शुरू हो गया। मगर यह काम ज्यादा दिन नहीं चल पाया। रोज-दिन तारकोल की कमी के कारण काम रुक जाता। एक बार फिर जब ग्रामीणों ने बबाल काटा तो चीफ़ इंजिनियर ने कहा अब काम तब ही शुरू होगा, जब तक हमें पूरा तारकोल नहीं मिल जाता। तारकोल हमें जैसे-जैसे आगे से मिलेंगे, उसे आपके गाँव में भरोसे के तौर पर रखवाते जायेंगे। जिस दिन प्रयाप्त मात्रा में तारकोल इकठ्ठा हो जायेगा, काम पुनः शुरू कर दिया जायेगा
फिर क्या था, चीफ़ इंजिनियर के कथानुसार मौज्मा गाँव के बाहर चिकनी पोखर के पास तारकोल जमा होने लगा तारकोल जमा तो हो ही रहे थे मगर जमा किये गये तारकोल के ड्रमों में से कुछ ड्रम धीरे-धीरे गायब भी होने लगे। जब यह बात पीडब्लूडी के चीफ़ इंजिनियर को पता चली तो उन्होंने शत्रुघन और राम खिलावन नाम के दो चौकीदार रखवा दिए। उन्हें लगा शायद कोई छोटा मोटा चोर या गाँव के आवारे लड़के होंगे, जो अपने पॉकेट खर्च के लिए ऐसा करते हो। ऐसे में जब तारकोल की रखवाली शुरू होगी तो वे ऐसा नहीं कर पाएंगे। 
चौकीदार रखने के बाद अब तारकोल की चोरी होनी लगभग बंद हो गई थी। मगर फिर भी कभी-कभी कुछ न कुछ ड्रम गायब हो ही जाते। उस दिन शत्रुघन और रामखिलावन को बुला कर चीफ़ इंजिनियर ने खूब डांट-फटकार लगाईं तुमलोगों को तारकोल के ड्रमों की निगरानी करने के लिए रखा गया है, न की रात को सोने के लिए इस डांट के बाद भी उस रात वे दोनों बड़े गुस्साए मन से तारकोल की रखवाली कर रहे थे।    
ये  वक़्त भी बड़ी अजीब है। एक तो, है भी ढाई आख़र की और चाल भी टेढ़ा, बिलकुल उ शतरंज के घोड़ा के माफ़िक। देखो कहाँ लाके पटक दिया है हमको। कितना निमन से थे अपने गाँव में, सुबह, शाम, या रात, कोनो बेला अकेले नहीं रहते। कोई न कोई हमेशा संगे रहता, फिर उ चाहे माल-जाल ही काहे न हो और आज इहाँ, न आदमी, न आदमी का जात, बस लाठी थमा दिए है और भगाते रहो भूत को, जेकर कोनो अता पता नाही। इ भी साला कोनो नौकरी है छेssssssssssssss........
जरूरतें हम सब से वो करवा लेता है जो हम करना नही चाहते, पर हकीकत तो दिल ही जानता है उन जरूरतों को पूरा करने के लिए, हमें किन हालातों और दौर से गुजरना पड़ता है। कुछ तो चुप्पी साध के सह लेते है और कुछ अल्फाजो में अपना दर्द कह जाते है। कभी क्या ठाट थे शत्रुघन के भी, और आज सर्द की इस अकेली रात में अपने आज को डंडा मारता हुआ, अतीत की सुख अग्नि में मन को धधका रहा है। जिससे उसे कुछ तो अभी के अकेलेपन से मुक्ति मिल जाए। लगता है उसके अकेलेपन की पुकार उसके साथी ने सुन ली, जमीन से पूछ-पूछ कर डंडा पटकता हुआ राम खिलावन शत्रुघन के पास आकर अरे शत्रुघन अकेले में का बडबडा हो भाई?
अरे राम खिलावन भाई आवा, आवा। का बताये ससुरी ठंड को भी साय लग गया है। सारा जलावन धुक दिए मगर हाड़ से कंपकंपी जा ही नहीं रहा। बिहान तक बच गये, तो समझेंगे माई ने जितिया अच्छे से की थी। 
हाहाहा ... सही कह रहे हो शत्रुघन। आज तो वाकई में बड़ी ठंडी है। हमको लगा तुम आग जला रखे होगे, इसलिए आ गये थोड़ा गरमाने मगर तुम तो ...
चिंता नाही करो भाई, अभी आग धधका देते है
शत्रुघन ने बुझती हुई आग में प्राण फूंकने के लिए, थोड़े सूखे पत्ते और टहनियाँ पास पड़ी बोरी से निकाल कर रखा और फूंक मारते हुए बोला, इ बताओ भाई, इ चौकीदारी हमलोग कब तक करते रहेंगे ??
जब तक तारकोल का चोर पकड़ा नहीं जाता। 
चोर का नाम सुनते ही गुस्से से तमतमा गया शत्रुघन कसम से राम खिलावन भाई, इ चोर जोन दिन धड़ाया न नरेट्टी दबा देंगे हम
जब भी गाँव का कोई आदमी शत्रुघन के सामने तारकोल के चोरकी जिक्र करता, वो यूँ ही आग बबूला हो जाया करता। एक बार तो उसने माधो चमाड़ का गिरेहबान पकड़ लिया था, जब उसने सिर्फ ये कहा जाय दो शत्रुघन भाई, उ चोरो त एगो आदमी है न। वैसे भी उ सरकारे का धन चुराता है, हमरा और तुमरा नहींइहाँ बात सरकार की नाही है, हमरी इज्ज़त की है और उ चोर का पक्ष लेने का कोनो जरूरत नाही। शत्रुघन के लिए तारकोल की रखवाली एक इज्ज़त बन चुकी थी और वो अपने इज्ज़त के लिए कहीं समझौता नहीं कर सकता था।       
राम खिलावन नरेट्टी दबा देंगे वाली बात पर हँसते हुए कहा हाहाहा, शत्रुघन भाई तुम बड़े मजाकिया हो
का मजाकिया है, हम अपना क्रोध चोर के लिए दिखाए और आपको मसखरी लगा। अजीब तो नहीं पर अजीब के आस-पास का शख्स था शत्रुघन, पल में हँसता और पल में गंभीर हो जाता। आप का जाने हमरे दर्द को कार्तिक महीना में एक जोड़ी बैल ख़रीदे उहो मुखिया से कर्जा लेकर। सोचे हर बोह कर थोड़ा पैसा कमा लेंगे मगर हराशंका किस्मत देखिये। दुए महीना में दोनों बैल मर गया। सर पर कर्ज आ गया अलग मुखिया का भी तगादा रोजे आना लगा सो अलग, का करते शहर आ गये सोचे इहाँ कुच्छो काम करके पैसे कमा लेंगे और कमाए पैसे से मुखिया का कर्जा चूकाय देंगे पर इहाँ तो पैसा कमाना, इतना आसान नाही है। शेर के मुँह से खाना निकालने वाला कहावत सुने है ठीक वैसने मुश्किलों भरा है
बड़ा दुःख हुआ सुन कर शत्रुघन भाई, हमे लगता था आप यह नौकरी टाइम पास के लिए करते है। मगर आप तो बहुत परेशान है। ऐसा कीजिये आप जब तक अपने जीवन का लेखा-जोखा कीजिये, हम तब तक एक चक्कर मार के आते चिकनी पोखर का है, आज आपकी भौजी ज्यादा प्यार से खिला दी। राम खिलावन के जाते ही शत्रुघन ने भी सोचा एक बार तारकोल के डिब्बो की गिनती कर आये। 
डंडे को जमीन पर पटकता गुनगुनाते हुए आगे बढ़ा बीती न बितायी रैना, बिरहा की जाई रैना। तारकोल के ड्रमों के पास पहुँचकर अपने तीन सैलिया टौर्च की मरी हुई रौशनी में दुय-दुय चार, चार-चार आठ, आठ-आठ सोलह, सोलह छाके छियानवे और इ दुय,अट्ठानबे हो गये पुरे। वापस आते हुए, उसके जेहन में गिनती पूरी होने की ख़ुशी के साथ एक सवाल भी था चोरवा तारकोल का आखिर करता क्या होगा, जलावन तो है नहीं जो जलाय लेता होगा, और नाही कोनो बेचने वाला समान, फिर काहे ऐसा करता है समझ नहीं आता, जोन दिन धरायेगा तो जरुर पूछ लेंगे आखिर ससुरी करता क्या है
छह महीने से लगातार चल रही तारकोल की पहेदारी में शत्रुघन का गाँव वालों से इतना लगाव हो गया था कि उन लोगों ने उसके लिए बांस की बल्लियों का एक मचान बना दिया था। जिसमें पूस की रातों में खुद को महफूज़ रख सके और रात बिरात में कुछ देर सुस्ता सके। शत्रुघन आकर अभी उसी मचान पर बैठा ही था कि चिकनी पोखर वाले हनुमान मंदिर से घंटा बजने की आवाज़ आई इतने रतिया में इ गाँव में बजरंगबली का कौन भक्त जग गया भाई, कलाई पर बंधी एचएमटी की घड़ी पर टौर्च जला कर देखा तो साढ़े बारह का वक़्त हो रहा थाजो आग राम खिलावन के आने पर धधकाई, वो भी अब बुझ चुकी थी। जैसे-जैसे रात गहरा रही थी ठंड और बढ़ती जा रही थी। रही सही कसर बची हवा ने पूरी कर दी। दूर खेतों से गेहूँ के बालियों को छूकर आने वाली ठंडी हवा शत्रुघन को जब छूती तो उसे अपने अम्मा की यादों के आँचल में पहुँचा देता। कैसे अम्मा के साथ रातों को वो अपने गेहूँ से बालियों से लदे खेतों की रखवाली करने जाता था। जुगनू को पकड़ कर माँ के आँचल में रखता और कहता माई, टौर्च की कोनो जरुरत नाही पड़ेगा, हम अहि रौशनी में खेत ओगर लेंगे और माई हँसते हुए कहती बेटा, एक्कोगो जुगनू मर गया न तो पाप लिखेगा, इहो एगो जीव है छोड़ दे इसे और जब माँ के कहने पर शत्रुघन उसे छोड़ता तो वहीँ जुगनू पुरे खेत में मंडरा कर रौशनी फैला देते। पर आज यादों की वो गर्माहट भी बेअसर थी।
ठंड से बचने के लिए अम्मा की आखिरी निशानी वाली शौल से खुद को ढँकने की मशक्कत करता पर बार-बार नाकाम हो जाता। एक तो शौल छोटी उपर से वक़्त ने उसपर गरीबी की बड़ी-बड़ी सुराक बना रखे थे।
बुझाता है आज माई भी हमे नहीं बचा पायेगी, हे बजरंगबली तुम ही कछु करो
मचान पर करवटें लेते खुद को ढँकने की नाकाम कोशिश कर ही रहा था कि इस बार हनुमान मंदिर से उसे एक तेज़ रौशनी आती दिखाई दी, जैसे वो रौशनी उसे इशारा कर रही हो, उसे बुला रही हो? इ राम खिलावन भाई भी गजबे है। बोलकर तो गये कि चिकनी पोखर जाते है मगर इतनी रात को मंदिर में का कर रहे है और हमको इशारा काहे दे रहे है? कहीं उ कोनों मुसीबत में तो नाही है, हे बजरंगबली का हो रहा है इ, पहले घंटा बजने की आवाज अब इ रौशनी, कोनो बात तो है जरुर, लगता है देखे ले जाय पड़ेगा
एक शंका के साथ उसके जेहन में एक डर भी गहराने लगा था। कहीं सत्तो का उ गंधर्व वाली बात तो सच नाही है, की जब रतिया में चाँद मस्तक के उपर होता है तो इस चिकनी पोखर में गंधर्व आकर नहाते है और फिर वे बजरंगबली की पूजा करते है। बाप रे कही सत्तो का बात सच हुआ तो अरे नाही उ साला गंजेरी है, अल-बल ऐसे ही बकता रहता है। उ जरुर राम खिलावन भाई होंगे, जाकर देखते है और अभी पूछते है का बात है ???
सत्तो से दोस्ती रामखिलावन ने ही करवाई थी अभी कुछ हफ्ते दिन पहले। सत्तो मौज्मा गाँव में अपने छोटे परिवार के साथ रहता है, दिन में साईकिल पर बर्तन-हांडी बेचकर अपने परिवार का गुजारा चलाता और शाम में वक़्त गुजारने के लिए इसी मचान पर आ कर बैठ जाता। जहाँ राम खिलावन और सत्तो चिलम पर चिलम सुलगाते। धुएं के हर कश पर जब सत्तों की आँखें छोटी होकर लाल हो जाती तो ऐसी ही बातें करता।
शत्रुघन डंडा पिटता हुआ मंदिर के करीब पहुँच कर आवाज़ लगाई राम खिलावन भाई लेकिन उधर से कोई जवाब नहीं आया। जवाब नहीं आने पर शत्रुघन की हिम्मत लड़खड़ाने लगी। सत्तो की बातें याद आने से उसके मन में एक डर घर कर गया था। डरते-डरते मंदिर के अन्दर टौर्च की रौशनी डाली तो वहाँ कोई नहीं दिखा इहाँ जब कोई नाही है फिर उ रौशनी कौन दिखाया था, बाप रे कहीं सचमुच में गंधर्व तो नाही था। शत्रुघन को मिली नाकामी उसके चेहरे पर डर बनके झलकने लगी। वो दम साधे वापस मुड़ा और तेज़ डग भरते हुए मचान के तरह हो लिया। अभी कुछ कदम बढ़ा ही था कि मचान के पास बुझी आग से लपटे उठनी लगी। उन आग की लपटों को देखकर उसकी सारी हिम्मत हिल गई। हे बजरंगबली इ का हो रहा सब और फिर अरे नाही, सब ठीक है, उ राम खिलावन भाई होंगे उहाँ, उनको ठंड लगी होगी तो आग जला लिए होंगे, मगर उहाँ तो कोई बैठा नाही दिख रहा है।
शत्रुघन अजीब कशमकस में फँस गया था जो आँख से देख रहा था उसे अभी झुठलाता और कभी खुद पर हावी कर लेता डर की परिस्तिथि में हर इंसान की कमोबेश ऐसी ही हालत होती है जो अभी शत्रुघन की हो रही है उसे बचपन की अम्मा की कही बात याद आ गई जोन बखत तुमपर कोनो संकट आये या डर लागे और ऐसन बखत में तुमको कुछो समझ नाही आये तो बजरंगबली का पाठ करने लगो, देखना तुरंते तुमरा सारा संकट छू मंतर हो जायेगा अब उसके होंठ पर हनुमान चालीसा के श्लोक थे जय हनुमान ज्ञान गुण सागर, जय कपिश तिहूँ लोक उजागर
आज माँ उसके साथ पहले से नहीं थी, इसलिए उनकी शौल से लेकर कही बातें निरर्थक हो रही थी। हनुमान चालीसा के पाठ करने के बाद भी आग बना वो दानव धधक रहा था और हाँथ में थमा बड़ा डंडा बचपन के खेल वाली गिल्ली-डंडा से भी ज्यादा छोटा नजर आ रहा था। ऐसे में डर के शत्रुघन इस विशाल दानव को अपने छोटे से डंडे से कहाँ तक फेंक पाता।     
मचान के पास पहुँच कर चारो ओर देखा तो वहाँ कोई नहीं था सिवाय धधकते आग के। अब तो शत्रुघन के चेहरे पर इतने ठंड में पसीने भी उतर आये, कि तभी धड़ाम से तारकोल के ड्रमों की गिरने की आवाज़ आई, साथ ही किसी के कराहने की भी।
बुझाता है चोर आया है और बेसुध उस आवाज़ की ओर दौड़ लगा दी। हर दौड़ते क़दमों के साथ उसे अपनी आखिरी हिम्मत दिख रही थी। मन में खौफ़ और शंका की ऐसी धुंध जमने लगी थी जो तारकोल के ड्रमों के पास कुछ और उल्टा-पुल्टा होता तो ये धुंध सुबह के पहली रौशनी में ही हटती।  
तारकोल के ड्रमों के पास पहुँचकर जो उसने देखा, उससे हैरान और परेशान दोनों कर गया, सत्तो
एक तारकोल के ड्रम के नीचे दबा हुआ था सत्तो, उसे एक औरत और तीन छोटे-छोटे बच्चे तारकोल के ड्रम के नीचे से निकालने की कोशिश कर रहे थे।
अरे सत्तो, तू इहाँ, कर का रहा है??? और इ ड्रम के नीचे कैसे आ गया???
शत्रुघन ने सत्तो को देखते ही सवालों की लड़ी लगा दी थी। तारकोल से भरे ड्रम के वजन के कारण सत्तो की टांग टूट गई थी और जिसके कारण वो दर्द से बुरी तरह कराह रहा था। शत्रुघन ने उस औरत और बच्चों की मदद से सबसे पहले सत्तो को बाहर निकाला। शत्रुघन ने ड्रम से थोड़ी दूरी पर लाकर सत्तो को बैठाया ही था कि औरत छूटते बोली “हमको जाने दीजिये हम चोर नाही है”।
गजब आदमी है महराज आपलोग भी, हम इ कब बोले की आप चोर हैं
दर्द भरे आवाज़ में सत्तो बोला हमलोग ही तारकोल के चोर है शत्रुघन भाई
तारकोल के चोर ये वो शब्द थे, जो शत्रुघन को क्या-क्या नहीं करवा दिया था। कभी कुछ देर पहले इसी तारकोल की रखवाली के चक्कर में एक डर तो उसकी जान निगलने वाला था। बिना कुछ समझे बुझे उसने गुस्से से उसका गिरेहबान पकड़ कर कहा पूरा परिवार मिलकर चोरी करता है, आज धडाया है, दिन में बर्तन हांडी बेचता है, साँझ में गंधर्व का खिस्सा सुनाता है, और रतिया में चोरी-चकारी, उहो विथ फैम्लिज, काहे रे पाखंडी ऐसन काहे करता है???
इसी सवाल का जवाब तो शत्रुघन तब से जानना चाहता था, जब से उसने यहाँ चौकीदारी शुरू की थी। 
इस दफा जवाब सत्तो ने नहीं उसकी औरत ने रोते हुई दी साहिब, इ सब हमलोग पेट के खातिर करते है
त का तुमलोग तारकोल खाते हो??? शत्रुघन के सवाल हास्यापद तो जरुर थे मगर उस परिस्तिथि के लिए जायज थे।
नाही साहिब
फिरो तारकोल का, का करते हो तुमलोग??
साहिब तारकोल को खाते नाही है, हमनी लोग इ राक्षस को मिट्टी के निचे गाड़ देते है
पर ई से का फ़ायदा तुमको मिलता है, औरों इ राक्षस कबे से हो गया
साहिब फायदा अहि की सड़क नाही बनेगा और जब सड़क नाही बनेगा तो इ राक्षस हमरे छोटे से परिवार का मुँह का निवाला नाही छिनेगा
औरत की इस जवाब ने शत्रुघन को चौका दिया था, फिर भी खुद की तसल्ली के लिए उसने पूछा का मतलब”??
औरत फफक-फफक कर रोने लगी थी, सत्तो के दर्द और कराह ने उसे ओस की गीली घासों पर बैठा दिया था। और अर्धनग्न बच्चे इस दानवी ठंड में एक गर्म आस की राह तक रहे थे शत्रुघन की ओर देख कर। शत्रुघन अब तक सत्तों के गिरेहबान को उसी क्रूर अंदाज में पकड़े हुए था जैसे माँ के आँचल में जुगनुओं को पकड़ कर रखता था।
रोते हुए सत्तो की बीबी बोल पड़ी थी साहिब सड़क नाही रहने से सत्तो दिन में आस-पास के गाँव में बर्तन-हांड़ी सायकिल पर रख कर बेच लेता है। जेकरा से हमार दो बखत का चूल्हा चल जाता है, अगर अहि सड़क बन जायेगा तो सब शहर जाकर ही बर्तन-हांड़ी खरीद लेंगे फिर हमसे कौन खरीदेगा, कहाँ से हमारा चूल्हा जलेगा ??
सत्तो की बीबी के जवाब ने उसके पकड़ को ढीला कर दिया था। हाँ, वो सही कह रही थी आज सड़क नहीं होने के कारण या यातायात के सही साधन के अभाव में गाँव वाले अपनी छोटी-छोटी जरूरतों के लिए बाज़ार नहीं जा पाते है। जिससे उस छोटे से परिवार की जीविका चलती है। ऐसे में अगर सड़क बन जाएगी तो उसके परिवार का क्या होगा, कैसे वो बच्चों की भूख और अपने जरुरतों को पूरा करेंगे? शायद इस सवाल का जवाब शत्रुघन के पास नहीं था तभी तो उसने सत्तो के गिरेहबान को छोड़ते हुए कहा जाओ, आज हम फिरो से कोनो जीव का हत्या नहीं करेंगे। हम तोहनी लोगन को छोड़ते है पर तुम अपनी लड़ाई जारी रखो जब तक सबको इ एहसास न हो जाए कि प्रगति जरुरी है लेकिन इ प्रगति कोनो परिवार के पेट पर लात मार कर नाही। या तो सरकार या समाज तुम जैसे परिवार के बारे में पहले सोचे फिर प्रगति करे फिरो सही मायने में परिवर्तन का धुप सब के देहिया पर फबेगा। वरना इ परिवर्तन और प्रगति सब बेकार होगा।   
मेरी यह कहानी उतना ही बड़ा सच है, जिसे आप और हम कई दफे अपने स्वार्थ के बंद दरवाजे के अन्दर से नहीं देख पाते है। पर सच तो बंद दरवाजे के उस पार भी होता है। और उस बंद दरवाजे के अंदर और बाहर कई ग्रहों का फासला होता है। जेकरा जाने के जरुरत छेय, कोशिश त करा एक्को बार।  


Friday, August 28, 2015

“कभी-कभी ऐसा होता है”



तीन महीने बाद, आज नैना को वो लम्हा मिला था, जो एक जगह कहीं ठहर जाने जैसा था। कॉफ़ी शॉप में कप थामे, उसकी नज़र शीशे के बाहर भींगी शाम के अँधेरे में खुद को उतारना चाहती, तो आसमान में टंगे यादों के काले बादल, उसे रोक लेते। बाहर गिरती बारिश की बूंदों के शोर से नैना का एक ऐसा दर्द जुडा था, जो उसके दिल की सारी मस्तियाँ, सारी जिंदादिली छीन चुकी थी। बच गई थी, तो उसके अंदर सिर्फ एक चुभती हुई ख़ामोशी, एक दर्द। जिससे दूर जाने के लिए, उसने शहर बदला, नौकरी बदली। पर दूर तो दूसरों से जाया जाता है, अपने दिल से, खुद से, नहीं। अर्णव और उसकी यादें भी तो कोई दूसरी नहीं थी |
बारिश की इस शाम ने नैना के उन ज़ख्मों को कुरेद दिया। जिसको दिल्ली आने के बाद वो मसरूफ़ियत से भरने की कोशिश कर रही थी। फोन की घंटी बजी, उठाया तो 
कहाँ हो नैना? पार्टी शुरू होने वाली है
सॉरी अंजलि, मैं नहीं आ पाऊँगी, ऑफिस के बाद बारिश में फँस गई हूँ
पर इधर तो नहीं हो रही
बारिश तो हर वक़्त कहीं न कहीं होती ही है, पर भींगता कोई-कोई।
नैना ने अपने ज़ज्बात को उन लम्हों से जोड़ा तो अंजलि ने सवाल की,
मैं समझी नहीं, क्या बोल रही है तू
वेल लीव दिस, इधर तो बहुत हो रही है, तुम सब एन्जॉय करो, वन्स अगेन हैप्पी बर्थडे टू यू डिअर
सच कहा था नैना ने भींगता कोई-कोई ही है। यहाँ बैठे-बैठे, वो भी तो भींग ही रही थी अर्णव की यादों में, और बाहर बारिश रुक सी गई थी।
कानपूर में वो बरसात का ही तो दिन था। जब नैना कॉलेज से अपनी ऍमबीऐ की डिग्री लेकर, रोहन के बाइक पर सवार होकर भींगते हुए अर्णव के पास पहुँची थी। जिसे अर्णव ने न जाने किन बातों से जोड़ दिया। तुम, रोहन के साथ, वो भी इस हालत में आई हो, क्या है ये? कब से चल रहा है ये सब? अर्णव इतने पर कहाँ रुका था। उसने तो रोहन को भी क्या-क्या कह दिया, उनदोनो की दोस्ती के रिश्ते को गालियाँ तक दे दी तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई, मेरी गर्ल फ्रेंड को अपने बाइक पर बैठाने की। अर्णव  के इस तमाशे ने वहाँ कितने चेहरे को खड़े कर दिए थे, जैसे किसी फिल्म की शूटिंग चल रही हो। नैना को जब ये सब देख जब रहा नहीं गया तो बोली अर्णव क्या हो गया तुम्हें। जिस पर अर्णव चिल्लाते हुए कहा तुम चुप रहो, मैं तुमसे बाद में बात करता हूँ। फिर वो बाद कहाँ, नैना उसी वक़्त वहाँ से चली आई।
यह अच्छी बात है कि सामने वाला possessive हो पर इतना न हो कि possessiveness शक का रूप इख्तियार कर ले। रिश्तों को खाक कर देता  है ये शक। उस दिन के बाद, फिर न कभी नैना ने उससे संपर्क किया और न ही अर्णव ने।
आज तीन महीने के बाद दोपहर में ऑफिस के टेलीफ़ोन पर अर्णव का कॉल आया था, नैना, आई ऍम सो सॉरी, न जाने उस दिन मुझे क्या हो गया था। रोहन के साथ तुमको देखने के बाद। सो प्लीज फोर्गिव मी, मैं आज शाम के फ्लाइट से दिल्ली आ रहा हूँ। मुझे वहाँ जॉब मिल गई है। प्लीज एअरपोर्ट आ जाना नौ बजे। नैना ने बिना जवाब दिए रिसीवर रख दिया।
उसके लिए, जितना अर्णव का कॉल आना सवाल नहीं बना, उतना ये आखिर अर्णव  को, यहाँ का नंबर कहाँ से मिला। दिमाग पर जोर दिया तो याद आया, करीब सप्ताह भर पहले फेसबुक पर उसका रिक्वेस्ट आया था। जिसे उसने अब तक पेंडिंग छोड़ रखा है। शायद वहीँ से मिला होगा। 
घड़ी को देखा तो सात बज रहे थे। वक़्त तो दौड़ रहा था मगर बारिश ने दिल्ली को रोक दिया था। ठहर गई थी दिल्ली पर जो कुछ नहीं ठहर था, तो वो थी, हर बीतते लम्हों के साथ नैना के दिल की बैचैनी। फोन उठा कर एक नंबर मिलाया हेल्लो इजी कैब
यस, हाउ मे आई असिस्ट यू मेम
आई ऍम नैना अग्रवाल ...,
नैना ने पिक्कअप और ड्राप पॉइंट नोट करवाया तो अगले पन्द्रह मिनटों में कैब कॉफ़ी शॉप के बाहर आ कर खड़ी हो गई। नैना के बैठते ही कैब सड़क पर जमे पानी को तेज़ रफ़्तार के साथ हवा में उछालते दौड़ने लगी। वो अपने प्यार को एक ऐसा ही रफ़्तार देने को निकली है, जो तीन महीने से कहीं ठहर गया था। ठहरे पानी में तो काई भी लग जाती है, और वो अपने प्यार को शक की आग में खाक होते हुए भी तो नहीं देखना चाहती।
सीपी से एअरपोर्ट के इस सफ़र में वो बहुत खुश थी। तेज़ रफ़्तार से दौड़ती कैब के विंडो से हाँथ बाहर  निकालती और बारिश बुँदे हंथेलियों पर जमा कर अंदर कर लेती। ये बुँदे उसकी तीन महीने से जाया होने वाले वे आँसू थे। जिसे समेटने का उसे आज मौका मिल रहा था।
एअरपोर्ट पर कैब से उतर कर, वो एरावल के गेट नंबर तीन पर एक फूलों का गुलदस्ता ले कर और खड़ी हो गई, अर्णव के इंतजार में। गेट से एग्जिट करते हुए नैना ने अर्णव को देख लिया था, मगर लोगों की भीड़ में अर्णव नैना को नहीं देख पाया। नैना ने उसे आवाज़ लगाया अर्णव, दिस साइड
नैना को तलाशती अर्णव की नज़रें जब एक जगह ठहरी तो उसे मुस्कुराती हुई नैना दिखी, जिसका उसने कभी दिल दुखाया था। उसकी नज़रे शर्म से झुकी तो नहीं थी पर नैना की प्यार से भरे जरुर दिखे। नैना के सामने पहुँच कर जब उसने अपना सनग्लास उतारा तो लगा अब छलक जायेंगे।
अर्णव के पास आते ही नैना ने फूलों का गुलदस्ता देते हुए बोली वेलकम बेक अर्णव । अर्णव लोगों के भीड़ के सामने नैना से फिर से माफ़ी माँगने की कोशिश की तो नैना ने उसके होठों पर हाँथ रखते हुए आगे बोली मुझे यकीन था, तुम एक दिन आओगे, तुम आये यही काफी है मुस्कुराहटों की शक्ल में अर्णव के चेहरे पर नैना की आत्मविश्वास झलक रही थी। उसके मुस्कुराते हुए चेहरे को देखकर नैना अपना सारा गिला सिकवा भूल चुकी थी। हँसते हुए उसने अर्णव की कान पकड़ी और बोली यार, प्यार में कभी-कभी ऐसा होता है अर्णव भी कहाँ पीछे हटने वाला था उसने आगे बढ़कर नैना को बाँहों में भरा और माथे को चुमते हुए बोला हाँ, यार प्यार में “कभी-कभी ऐसा होता है। फिर तो बिजली की तेज़ करकराहट के साथ पूरी रात बारिश होती रही।