Monday, March 14, 2016

इंटरसिटी एक्सप्रेस ...




दयाल बाबू की आँखें अभी भी लखनऊ स्टेशन की एग्जिट गेट पर ज़मी थी। सब कुछ तो वैसा ही था जैसे उस रात था। किसी को लखनऊ आने की ख़ुशी तो किसी को लखनऊ छुट जाने की गम, कोई फिर किसी की ज़िंदगी में बेधडक घुस जाने के लिए अमादा था तो कोई किसी के जिंदगी से बिन बताये निकल जाने की गुस्ताखियाँ कर रहा था।  
“इंटरसिटी एक्सप्रेस की सारी सवारियां प्लेटफार्म से बाहर आ गई है दयाल बाबू, अगर हुकम हो तो ये ताम झाम समेट लू, रात भी काफ़ी हो गई है और उपर से आज फिर चीनी भी नहीं है। दूकान तो बंद करनी ही पड़ेगी, वैसे भी आपके चक्कर में मैं भी तीन कप बिन शक्कर की चाय घोंट चूका हूँ लेकिन अब और नहीं घोंट सकता, न जाने आप कैसे पी लेते है?”
दयाल बाबू ने एक गहरी साँस भरी और फिर चानो की ओर देख मुस्कुरा कर कहा “उसके इंतज़ार में आज भी उतनी ही मिठास है, जितनी कशिश उसकी मोहब्बत में होती थी। खफ़ा मत हो, बढ़ा लो अपना ये ताम झाम, सात साल से रोज मुझे ऐसी ही चाय पिलाते हो, क्या मैंने कभी तुमसे शिकायत की?“ 
“कुछ बातें कही नहीं जाती, सिर्फ समझी जाती है दयाल बाबू, जैसे आज से ठीक सात साल पहले वो लखनऊ न आकर, आपको सबकुछ कह गई”। 
“वो आएगी चानो और देखना एक रात इसी इंटरसिटी एक्सप्रेस से उतरेगी” और फिर दयाल बाबू चानो की उस चाय की रेहड़ी को छोड़ घर की ओर बढ़ जाते है।
आज फिर खाली हाथ जाते हुए दयाल बाबू को देख चानो का दिल उदास हुआ था। “कहाँ से मिलता  है उनको इतना  आत्मविश्वास? हर रात नाउम्मीद होकर लौटते है फिर भी चेहरे पर शिकन की एक लकीर नहीं दिखती? ये प्यार नहीं पागलपन है और मेरे ख्याल में दयाल बाबू पागल हो गये है। देवंती को आना होता तो वो उसी रात नहीं आ जाती, कब समझेंगे इस बात को वो, हे भगवान उनकी मदद  करो।“
मदद , वो खुद ही तो लेना नहीं चाहते, वरना ऐसा तो नहीं है कि उनके पास देवंती का पता नहीं है और फिर इलाहाबाद यहाँ से है ही कितनी दूर।
चानो और दयाल बाबू के रिश्ते की शुरुआत सात साल पहले एक ऐसी ही रात से हुई थी, कितने खुश थे दयाल बाबू उस रात, मारे ख़ुशी के उनके पाँव एक जगह टिक नहीं पा रहे थे। बार-बार कलाई पर बंधी घड़ी देखते और फिर स्टेशन से निकलने वाली  अजनबी भीड़ के एक एक चेहरे को , जिनके  बीच से उनका कोई अपना आने वाला था। उन्हें तो ख़ुशी में इतना तक होश नहीं रहा था कि वो वक़्त से एक घंटा पहले स्टेशन आ गये है और इंटरसिटी एक्सप्रेस को आने में अभी घंटे भर और लगने वाली है। प्यार का पहला-पहला एहसास होता ही ऐसा है, उस वक़्त कहाँ हम वक़्त की नुमाइन्दगी करते है, अजी जनाब उस वक़्त तो हर वो दिल एक शहंशाह है, जो इन एहसासों से दो चार होते है, उनके लिए कायनात की हर चीज उनकी गुलाम होती है। और अपने दयाल बाबू इश्क़ की इसी फ़ितूर का तो शिकार हुए थे।
घड़ी की सुईयां देवंती की इंतज़ार में अपने हिसाब से ही खिसकती, इसलिए दयाल बाबू ने  उसे अपने हिसाब से खिसकने देने के लिए चानो की बंद होती इस दूकान को चुना था।
“भैया, चाय पिला दो”
एक के बाद एक, चानो से माँग कर पाँच कप चाय पी चुके थे। इतनी देर में इंटरसिटी एक्सप्रेस आई भी और चली भी गई।
“कौन सी ट्रेन पकड़नी नहीं है, बाबूजी?” पाँचवें कप के खत्म होने पर चानो ने पूछा।
“कोई सी भी नहीं, कितने पैसे हुए चाय की?”
“दस रुपैया”
“ये लो, चाय अच्छी थी”।
चेहरे पर उस रात भी शिकन नहीं थी और आज भी नहीं, पैसे देकर दयाल बाबू वहाँ से चल दिए थे। घर पर दयाल बाबू की आँखों से आज नींद नदारत थी और एक बैचैनी करवटों की शक्ल में रात बर्बाद करने पर तुली थी। बार-बार करवट बदल रहे थे और हर  करवट के साथ अपने हाथ को भी चूम रहे थे। यादें जब हद पार कर जाए तो बैचनी कांटें बन तन्हाइयों में चुभते है। और दयाल बाबू से तन्हा शख्स कौन हो सकता है? अब तो इनके घर वालों ने भी फ़ोन करना बंद कर दिया है, बची है तो बस वहीँ नीरस जिंदगी और नीरस सी उनकी जर्जर लाइब्रेरी, जिसके काउंटर पर कभी देवंती से उनकी मुलाकात हुई थी। देवंती को किताबें पढ़ने का  जुनून सा  सवार था  उन दिनों, शहर में एक भी ऐसी लाइब्रेरी नहीं बची थी जहाँ उसका नाम रेगुलर रीडर में शामिल न हो। ये इत्तेफ़ाक ही था कि दयाल बाबू की लाइब्रेरी में उसके  कदम अब तक नहीं पड़े थे  लेकिन उस सुबह जब वो आई दयाल बाबू लाइब्रेरी में कुछ ज्यादा ही व्यस्त थे, उनकी टेबल पर रखी हुई चाय की कप चीख़-चीख़ कर कह रही थी कि इस शख्स ने मुझे ठंडा कर के मारा है। इतनी फुर्सत नहीं थी उन्हें की वो चाय की तरफ़ देखे भी और तभी एक प्यारी सी आवाज़ “माफ़ कीजियेगा, क्या आप बता सकते है? राजकमल चौधरी की “खरीद-बिक्री”  किताब अवेलेबल है आपके यहाँ?”
बिना उसकी ओर देखे ऊँगली से इशारा कर कहा “आप वहाँ कुछ देर बैठ जाए, मैं अभी थोड़ा व्यस्त हूँ, पहले इसे निपटा लू फिर देख कर बताता हूँ”।
देवंती दयाल बाबू के बताये जगह पर बैठ गई। तक़रीबन दो घंटे हो गये थे देवंती को बैठे हुए लेकिन दयाल बाबू की व्यस्ता अब तक खत्म नहीं हुई थी। उसने भी  इंतज़ार को काटने के लिए किताब निकाल लिया था  ।  
काम खत्म करने के बाद दयाल बाबू की नज़र जब सामने बैठी उस खुबसूरत सी देवंती पर गई तो उनके होश उड़ गये, वो अब तक बैठी थी और उसे देख कर उनका दिल कह रहा था  “आप बड़े लापरवाह है दयाल बाबू, आपके पाँच मिनट के लिए वो लड़की पिछले तीन घंटे से बैठी है। अब जाइये पहले उससे माफ़ी की दरखास्त कीजिये और फिर उसकी उस किताब के बारे में बताये”।
“माफ़ कीजियेगा  आप हमें, दरअसल मैं काम में इतना मशगुल हो गया था कि आप के होने की मौजूदगी तक को भूल गया। लीजिये मैंने  आप की वो किताब ढूँढ निकाली”।
उस किताब को देख कर वो किसी छोटी बच्ची सी उछल पड़ी थी, उसे दयाल बाबू के अफ़सोस जताने से उतनी ख़ुशी नहीं हुई, जितनी ख़ुशी राज कमल चौधरी की उस किताब को देख कर हुई। “कोई नावेल की इतनी दीवानी भी हो सकती है” दयाल बाबू ने खुद से कहा था उसके चेहरे की उस अजीब सी ख़ुशी को देख कर।
“मैं आपका शुक्रिया कैसे अदा करू? मुझे समझ नहीं आ रहा ” उसकी मुस्कराहट से अलंकृत इन शब्दों ने , पूरी लाइब्रेरी में लगे कीप साइलेंस की बोर्डस को मुस्कुराने पर मजबूर कर दिया था। दयाल बाबू भी उसकी मुस्कराहट देख कर खुद को रोक नहीं पाए थे, वो जिस अंदाज़ से उसे देख रहे थे। उसे मेरे अंदाज़ में पहली ही नज़र में फ्लैट हो जाना कहते है।  
“मतलब की आप नाराज नहीं है, आपको जो इतना  लम्बा इंतज़ार करना पड़ा ?”
“नहीं ..”
“वाह, ये तो मेरे लिए ख़ुशी की बात है, तो आइये किताब लेने की फोर्मेलिटीज पूरी कर लेते है।“
“जी .. श्योर, जानते है इस बुक को पुरे लखनऊ में ढूँढ कर थक गई थी, ऐसे में आपकी लाइब्रेरी ही मेरी आखरी उम्मीद बची थी और आपने मेरी उस उम्मीद को टूटने नहीं दिया।“
“जी धन्यवाद, ये लाइब्रेरी दिखने में जर्जर भले ही है लेकिन यहाँ किताबों का एक बहुत बड़ा जखीरा हमेशा उपलब्ध होता  है।“
किताब लेने की सारी फोर्मेलिटीज पूरी हो गई थी और दयाल बाबू चाह रहे थे कि देवंती कुछ देर और उसके सामने रहे, मगर उसके लिए उनके पास कुछ तो बात करने के लिए हो। बातों के फकड़ थे, साधारणतः तो उनके मुँह से कुछ निकलता नहीं और अभी तो उनके सामने एक निहायत ही खुबसूरत लड़की बैठी थी।
देवंती ही बोली “किताब की फॉर्मेलिटी के बहाने आप ने मेरा नाम पता सब जान लिया लेकिन आप ने अपना नाम नहीं बताया?”
उधर देवंती के मुँह से सवाल निकले इधर दयाल बाबू के मुँह से हँसते हुए जवाब थे “जी, जी दयाल उपाध्याय, लेकिन प्यार से लोग दयाल बाबू भी कहते है”
‘फिर मैं आपको क्या कहू दयाल उपाध्याय या दयाल बाबू क्योंकि अब तो मेरा यहाँ रोज का आना तय है।“
“अरे वाह, फिर तो जी सिर्फ दयाल” और कह कर मुस्कुरा दिए।
दयाल बाबू की चेहरे पर इतनी ख़ुशी पहले कभी देखने को नहीं मिली थी, और ये ख़ुशी तो सिर्फ देवंती के रोज आने की बात भर से हुई थी। उस दिन पहली बार उनकी नज़र ने  किसी ग्राहक को हँसते हुए एग्जिट डोर तक छोड़ा था। वे खुश थे क्योंकि कल से इस नीरस लाइब्रेरी में उन्हें एक जोड़ी खुबसूरत आँखें और दिल तक सीधे उतर जाने वाली देवंती की वो मीठी आवाज़ सुनने को मिलने वाली थी।    
अगले दिन दयाल बाबू की आँखें बार-बार दरवाजे पर जाती और खाली लौट आती, अजीब  हो रहा था आज उनके साथ, किसी काम में कंसन्ट्रेट ही नहीं कर पा रहे थे। महज कल ही तो बात है देवंती को इसी कंसंट्रेशन की वजह से तक़रीबन तीन घंटे इंतज़ार करना पड़ा था  और आज ... सच ही कहते है लोग इश्क़ इंसान को बेकार कर देती है। हैरत तो इस बात की है कि दयाल बाबू जैसे लोग भी इश्क़ की इस हंसी गिरफ्त में गिरफ्तार होते दिख रहे थे। जबकि ये प्यार, मोहब्बत, इश्क़ इनके लिए महज एक अल्फ़ाज़ है या किस्सों  कहानी में रोचकता लाने के लिए एक विषय वस्तु। लेकिन जनाब, जब इश्क़ अपनी आगोश में किसी को लेता है तब उपरवाले को भी कई बार अपने कई फैसले बदलने पड़ते है। फिर देखते है अपने दयाल बाबू कब तक और कहाँ तक बच पाते है।
दरवाजे पर देवंती को देखते ही, उनके होठों पर एक मुस्कान और आँखों में चमक उतर आई थी। वो खुद को देवंती के सामने इस तरह जताना चाहते थे कि वो काम में बहुत उलझे हुए है और उन्होंने उसे आते हुए देखा नहीं है। दो-चार मोटी-मोटी लेज़र(बहीखाता) खोलकर न जाने तुरंत में क्या मिलाने लगे एक दूसरों से।
काम में मशगूल देख दयाल बाबू को देवंती बिना डिस्टर्ब किये वहीँ सामने की कुर्सी पर बैठ गई। वो चुप चाप दयाल बाबू को मुस्कुराते हुए देखे जा रही थी और बेचारे दयाल बाबू इस इंतज़ार में थे कि वो हाई, हेल्लो कह कर उन्हें इस काम की तक्क्लुफ़ से बाहर निकाले। उनका हाल तो ऐसा था जैसे सामने मीठा रखा हो और डॉक्टर ने अभी अभी आ कर कहा कि तुम्हें डायबिटीज है। खुद से रोग ले लिए बैठे थे तो इस रोग को ख़त्म भी तो उन्हें ही करना  पड़ता  वरना पहले आप और पहले आप में कई प्रेम कहानी शुरू होने से पहले खत्म हो चुकी है।
देवंती को दयाल बाबू को खुद में जद्दोजेहद करता देख अच्छा लग रहा था, वो शायद जान चुकी थी दयाल बाबू जानते है कि वो वहाँ है और वो चाह रहे है की पहले मैं कुछ बोलू। “ओफ ओ अब छोडिये भी, ये मसरूफियत के बहाने दयाल। आपसे ये नहीं होगा बेकार में परेशान हो रहे है।“
दयाल बाबू खिलखिला कर हँस पड़े थे, “थैंक यू, ये एक्टिंग वाकई में इतनी आसन नहीं है जितनी देखने से लगती है। लेकिन देवंती आपको कैसे पता चला ?”
“आपके माथे पर आये इन पसीनो से, लेकिन आप ऐसा कर क्यों रहे थे?”
दयाल बाबू की चोरी पकड़ी जा चुकी थी, लेकिन देवंती के इस सवाल का जवाब दे तो वो क्या दे? क्या वो यह कह दे कि ये सीधा साधा इंसान तुम्हें पसंद करने लगा है, और वो यह जाना चाहता है कि क्या तुम्हें भी वो पसंद है? लेकिन जब लब खुले तो “जी वो, जी वो बात” जैसे अल्फ़ाज़ हक्ला गये थे दयाल बाबू के।
“रहने दीजिये मुझे मालूम है आपसे ये भी नहीं हो पायेगा, अच्छा ये बताये आपकी लाइब्रेरी में मेरी जैसी मेम्बर को चाय या कॉफ़ी पिलाने की रिवायत है या नहीं?
“जी नहीं, ओह सॉरी जी क्यों नहीं”
और फिर लाइब्रेरी के ठीक सामने की चाय की दूकान से दो कप चाय आती है, चाय की हर चुस्की के साथ देवंती के बारे में जानने का और मौक़ा मिल रहा था दयाल बाबू को। वो बातों की पंख लगाये दयाल बाबू के दिल के  आसमान में बेधड़क उड़ी जा रही थी। वो थी ही एक आज़ाद चिड़ियाँ की तरह  जिसे खुले आसमान में जीना पसंद था। उसे प्यार था कुदरत की हर उस चीज़ से जिसमें सादगी और अपनापन हो, इसलिए वो हर उस राइटर की बुक पढ़ती थी जिसके लेखनी में ये दोनों बातें मौजूद होती।
“जानते है दयाल, आपमें भी वही सादगी और अपनेपन वाली बात है, क्या हम दोस्त बन सकते है?” अचानक बातों की बीच में उसने अपनी रिक्वेस्ट रख दयाल बाबू की ओर हाथ बढ़ा दिया।
“मुझे लगता है ये जल्दबाजी है, और फिर दोस्ती हमेशा बराबर वालों से करनी चाहिए। मैं तो आपके पसंगे  में भी नहीं हूँ।“
यही कुछ कमीयाँ थी दयाल बाबू के अंदर हर बार अपने दिमाग की बातें सुन कर उसे सही साबित करने में लग जाते थे। पर हर बार दिमाग सही ही हो ये जरुरी तो नहीं। इसलिए हमें कई दफे खुद को दूसरों की नज़र से देखना चाहिए क्योंकि हर दफे हम सही नहीं हो सकते। इसी कारण से उनकी अपने  ही माँ-बाबूजी से नहीं बनती थी, माँ शादी के लिए लड़की ढूँढ कर लाती तो ये जनाब उनमें कोई ऐब खोज निकालते, अब हर लड़की में हर गुण तो मौजूद नहीं हो सकते, इन्हें तो चाहिए पढ़ी लिखी, सुन्दर और सुलझी हुई लड़की, वैसे इनकी खाहिश की फेहरिश्त तो काफी लंबी है जिसके  जिक्र का अभी मतलब नहीं बनता। ऐसे में आज जब एक वैसी ही लड़की खुद चलकर दोस्ती का  हाथ बढ़ा रही है तो जनाब खुद में ऐब निकाले बैठे है। धन्य हो दयाल बाबू।
“यही आपकी अच्छाई है, आप जो अंदर से है वही बाहर से भी, आपको एक जरा भी तक्क्लुफ़ करना नहीं आता। और ये बात मैंने हमारी पहली मुलाकात में ही जान लिया था अगर आपको वक़्त चाहिए तो ले सकते है, मैं कल फिर आऊँगी”।
जाते-जाए देवंती ने दयाल बाबू की हाथ पर अपना  हाथ रख कर जो कहा और हाथों पे जो उन्हें थपकी मिली थी उससे एक निर्णय तो उन्होंने  ले लिया था  कि मुझे दोस्ती कर लेनी चाहिए, वो अच्छी लड़की है। उसी वक़्त जाती हुई देवंती को आवाज़ लगा कर कहा “दोस्त, कल बहुत सारे नये रायटर्स की बुक आ रही है, पार्शल तुम्हारे सामने खोलना चाहता हूँ क्या कल तुम इस समय तक आ जाओगी?” देवंती मुस्कुरा कर हाँ में सिर को हिलाया और चली गई। 
आज सात साल बाद भी उस थपकी की मीठी छुअन  दयाल बाबू के दिल में बनी हुई है, वे न तो उस दिन को ही भूले है और न ही उन एहसासों को। करवटें लेना तो बंद हो गया  मगर बढ़ रहे धड़कन के साथ साँसों में तल्खी आ गई थी। वो बिस्तर पर लेटे-लेटे लड़ जो रहे थे देवंती की यादों से, उनके अंदर और कमरे के भीतर अब सिर्फ शोर-ही-शोर था । अगर दिन होता तो इस शोर को दबाने के लिए बाहर की आवाजें साथ दे देती लेकिन रात के  सन्नाटे में दिल के शोर को दबाने के लिए बाहर की आवाज़ भी तो नहीं होती। यादों से लड़ कर खफ़ा हो जाना यही एक मात्र रास्ता बचा था इस घड़ी दयाल बाबू के पास।
अगले दिन देवंती के आने पर ही दयाल बाबू ने पार्शल खोला था। देवंती रोज आती और दयाल बाबू के संग ढ़ेरो वक़्त बिताती, धीरे-धीरे उस जर्जर लाइब्रेरी की रौनक वापस आने लगी थी। छह महीनों में लाइब्रेरी से कितने सारे और नये रीडर्स जुड़ गये थे। दयाल बाबू के लिए देवंती की दोस्ती काफ़ी फायदेमंद साबित हो चुकी थी। दयाल बाबू अब चाहते थे कि वो देवंती से अपनी दिल की बात कह दे, कह दे कि वो उसकी दोस्ती में काफी आगे निकल आये है, वो अब उसमें अपनी पूरी दुनिया देखते है लेकिन न जाने क्यूँ वो आज भी हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। देवंती के आने से पहले हर ऱोज अकेले में रिहेर्सल करते और जब देवंती आती उसे देख कर सब कुछ भूल जाते। लेकिन आज तो उन्होंने कसम कहा रखी है, तैयारियाँ भी कर रखी है, उन्होंने किसी नोवेल में पढ़ा था कि लड़के ने अपने प्यार का इजहार लड़की को गुलाब देकर किया था। इसलिए जनाब लाल गुलाब भी ले आये है बस इंतज़ार है तो देवंती के आने का ।
और तभी फ़ोन की घंटी बजती है रिसीवर उठाते ही “दयाल, मुझे अचानक इलाहाबाद जाना पड़ रहा है इसलिए आज नहीं आ पाऊँगी, कल आप इंटरसिटी एक्सप्रेस की आने की टाइमिंग पर लखनऊ स्टेशन के बाहर मुझे रिसिव करने आ जाइएगा, मेरे पास आपके लिए कुछ सरप्राइज है जो मैं कल ही बताउंगी। तब तक अपना ख्याल रखियेगा, बाय”।
देवंती की आवाज़ आखरी बार पड़ी थी उस दिन दयाल बाबू की कानों में, उनकी सारी तैयारी उस दिन क्या उसके अगले दिन भी बेकार गई, जब वो नहीं आई इंटरसिटी एक्सप्रेस से। उस दिन के बाद उनके दिमाग ने उन्हें बाहर से भले ही मजबूत कर दिया ये कह कर कि “वो तुम्हारी सिर्फ दोस्त ही थी, प्यार तो वो तब होती जब तुमने उससे या उसने तुमसे अपनी मोहब्बत का इजहार किया होता , इसलिए भूल जाओ अब उसे वो नहीं आएगी” लेकिन दिल है जो उसे हर ऱोज इंटरसिटी एक्सप्रेस के आने की टाइमिंग पर स्टेशन के बाहर ला खड़ा कर देता है ये कह कर कि “दोस्ती में दोस्त से बिछड़ने के बाद फिर से मिलने की गुंजाईश बनी रहती है मगर प्यार में जब कोई बिछड़ जाए तो नहीं”।
कमरे में अब शोर दयाल बाबू की सुबकियाँ की थी, तकिये का एक हिस्सा आँसुओं से गीला हो गया था। जुबान पर सिर्फ एक ही सवाल थे “देवंती तुम क्यों नहीं आई, क्यों, क्यों?” याद रात पर भारी पड़ी थी, उजाला किसी नवजात शिशु सा खिड़की से झाँक रहा था। फजर के  अजान की ध्वनि दयाल बाबू को ईशा सी लग रही थी। जैसे वो अभी उठकर स्टेशन की ओर चल देंगे। कलाई पर बंधी घड़ी में टाइम देखते है और वाकई में वो उठकर चल देते है, “नहीं आज मैं पता लगा कर ही रहूँगा आखिर वो उस दिन क्यों नहीं आई, मैं इलाहाबाद जाऊँगा”।
स्टेशन पर इंटरसिटी एक्सप्रेस प्लेटफ़ॉर्म छोड़ने वाली थी, दयाल बाबू भाग कर सबसे आख़िरी बोगी में सवार हो गये, चानो ने ट्रेन में सवार होते दयाल बाबू को देख लिया था। उसके हाथ दुआ के लिए उपर उठे “या मेरे मालिक, दयाल बाबू को मुक्क्वल इश्क़ अदा कर दे”।
अगले स्टेशन पर उसी बोगी में एक फकीर सवार होता है, जिसे देखकर लगता था कि खुदा ने भी उसकी ओर से मुँह फेर लिया है, शरीर पर फटा पुराना एक काला लिबास, गले में मोती की  कई  मालायें , लंबे-लंबे बाल बिखरे हुए और हाथ में मोर पंखा लेकिन चेहरे पर एक ओज थी। दयाल बाबू की नज़र जब उसपे गई तो वो फ़कीर उसे ही देख रहा था। दयाल बाबू ने फ़ौरन अपनी नज़र फेर ली  और खिड़की से बाहर पीछे छूटते वक़्त और दुनिया को देखने लगे। दो तीन स्टेशन और पार हो जाने के बाद बोगी में जब भीड़ कम हुई तो फकीर ने दयाल बाबू को कहा “बच्चा, बेवजह दिन नहीं होता, रात नहीं होती। फिर तू जिस सवाल का जवाब ढूँढने जा रहा है गर मिल भी जाये तो क्या कर लेगा? जो कुछ परदे के उस पार है उसे उसी पार रहने दे, बस ये जान कि इश्क़ इबादत है और इबादत करता जा, जैसे मैं बिन कुछ माँगे  अपने मालिक का करता हूँ“।
फ़कीर की बातों ने उसे कई सवाल दे दिए थे, “कहीं देवंती, उससे प्यार नहीं करती हो तो?, कहीं इन सात सालों में उसकी शादी हो गई हो तो? कहीं वो आज़ाद चिडयाँ किसी रिश्तों की बंदिश में नहीं बंधना चाहती हो तो? ना, ना मैं तो उसे बेवफ़ा भी नहीं कह सकता, उसे तो अपने इस हाल का मुजरिम भी करार नही कर सकता, नहीं मैं उसको एक लफ्ज कुछ नहीं कह पाउँगा”।
इलाहबाद स्टेशन आ गया था पर दयाल बाबू ट्रेन से उतर नहीं पाए उन्होंने फ़कीर की उस बात को समझ लिया, जो कुछ परदे के उस पार है उसे उस पार ही रहने देना चाहिए। इंटरसिटी एक्सप्रेस वापस घूम कर रात में लखनऊ स्टेशन पर आ गई थी और चानो की आँखें दयाल बाबू को खोज रही थी। भीड़ के बीच उसे दयाल बाबू दिख गये, “दयाल बाबू आ जाइये, आज आप के लिए मैं शक्कर वाली चाय बना कर इंतज़ार कर रहा हूँ”।
दयाल बाबू के चेहरे पर आज भी वही भाव थे, वो चानो के पास आकर बोले “नहीं चानो मुझे वही चाय दो जो तुम रोज मुझे पिलाते हो”। चानो को जो बात जाननी थी उसका जवाब “वही चाय दो जो तुम रोज पिलाते हो” मैं ही छुपी थी कि दयाल बाबू के हिस्से आज भी देवंती का इंतज़ार ही है। चाय पी कर दयाल बाबू चले जाते है और चानो खुद से कहता है “कुछ बातें कही नहीं जाती, सिर्फ समझी जाती है दयाल बाबू...”।                                      

कहते है आज भी दयाल बाबू देवंती के इंतज़ार में इंटरसिटी एक्सप्रेस के  आने की टाइमिंग में लखनऊ स्टेशन के बाहर देखे जाते है।