Saturday, September 17, 2016

"दो रंग" (कहानी)



चिकनी सड़क पर सपाट दौड़ती बस में उसके पाँव इस कदर हिल रहे थे, जैसे बस के सीट पर नहीं वो किसी ड्रिलिंग मशीन पर बैठी हैसाँसें नासबूर, आँखें मदहोश बहक कर जैसे होश खो देना चाहती थी, सुर्ख से होंठ दांतों के गिरफ्त में कुछ लम्हों के लिए जाते और फिर एक सिसकी लिए वापस छुट भी जातेदर्द और बैचैनी की सीलन, बूँदों का रूप इख़्तियार कर उसके शीश से गिरने को बेताब थे
मैंने इधर-उधर देखा और फिर अपनी नज़रें उसपर गड़ा दी। अपने पैरों को हिला कर मन को शांत करने की नाकाम कोशिश करने बाद हिम्मत अब उसका साथ छोड़ चुकी थी। पाँव हिलने बंद हो चुके थे और नज़र जैसे बस से बाहर झाँक कर एक महफूज़ कदा(स्थान) ढूँढ़ रही थी। अचानक ज़ोरों से चिल्लाई “रोको, बस रोको”, और बस के रुकते ही पेट को दबाये हौले क़दमों से उतरती है और सामने झाड़ियों में अदृश्य हो जाती है।
बस के सारे मुसाफ़िर सवालिया नज़र से एक दुसरे को अभी देख ही रहे थे की वो लड़की झाड़ियों के बीच से वापस आते हुए दिखती है। लौटते वक़्त चाल और चेहरे के भाव बता रहे थे, उसका जी हल्का हो गया है, वो फ़ारिग हो गई है। इस वक़्त उसके चेहरे पर फैली बहजत(ख़ुशी) और मन की शांति की कोई सीमा नहीं थी। वापस बस में सवार होते ही कंडक्टर को उन्हीं ख़ुशी को अल्फाज़ों में पिरो कर उसने कहा “क्यूँ छोटू कब क्यों रुके हो, बस को तो आगे बढाओ यार”। और कंडक्टर लुटे-पिटे अंदाज़ में उसके चेहरे को देखते हुए, समझने की मशक्कत करता रहा कि आखिर वो झाड़ियों के पीछे करने क्या गई थी?
“क्यूँ माहवार चल रहा है क्या?” तज़हीक(हंसी उड़ाने) की लहजे में उसके बाजु की सीट पर बैठी औरत बोली, भरे-भरे हाथ-पैरोंवाली, चौड़े चकले कूल्हे, थुल-थुल करने वाले गोश्त से भरपूर, कुछ बहुत ही ज़्यादा ऊपर उठा हुआ सीना, तेज़ आंखें, बालाई(ऊपर का) होंठ पर बालों का सुरमई गुबार ठोड़ी की साख्त-साख्त(बनावट) से पता चलता था कि वो बड़े धड़ल्ले की औरत है
जुल ने सीट पर बैठते हुए जैसे बड़े ही भिन्ना कर जवाब दिया “हाँ इसलिए तो गई थी झाड़ियों में, दूसरी सब्जेक्ट की किताब चेंज करने”।
“ऐसा क्या? अगर पहले बता देती तो बस जब ढाबे पर रुकी थी, उस वक़्त ही मैं तुम्हें नींद से जगा देती”। 
“शुक्रिया आपका, मगर कुछ चीजें बता कर नहीं आते, वो तो बस आ जाते है”। 
इस तरह की जवाब का अंदाज़ा नहीं था उस औरत को, हाज़िरजवाबी के फुल मार्क मिल चुके थे जुल को। “हुंह” कहकर चेहरा दूसरी तरफ़ घुमा लिया था उस औरत ने। 
मैं उसके दाहिने हाथ की खिड़की के बाद वाली सीट पर बैठा इस अजीब सी लड़की पर अभी भी अपनी नज़रें जमाये हुए था। सच कहूँ तो मेरी हालत इस वक्त बस कंडक्टर से भी गई गुजरी थी। वो तो, बस में, जुल जैसी लड़कियों से कई मर्तवा मिला ही होगा मगर मैं तो अपने करियर में जुल जैसी बोल्ड लड़की तो क्या उसके बोल्डनेस को दूर से छू कर गुजरने वाली लकीर तक से नहीं मिला था। फ़िलहाल यह करेक्टर मेरे लिए बहुत दिलचस्प थी, इसलिए मैंने उसकी हर हरकत की रेकी करने की मन में ठान ली, सही ग़लत से परे होकर।
अमूमन गुमगश्ता(भटका हुआ) शख्स की फ़रियाद नहीं सुनी जाती, लेकिन आज मेरी हर फ़रियाद सुनी जा रही थी। सुबह की तफरी में बस छुट ही जाती अगर जो ऐन मौके पर बस की इंजन में प्रॉब्लम नहीं होता। और शुक्रगुजार हूँ बिस्मिल भाई का जिसके रिक्शे ने बरेली के कुचे-कुचे से आज भी अपना वास्ता रखा हुआ है। वरना तो मैं लखनऊ पहुँचने से रहा था। बिस्मिल भाई को हमलोग हँसी मजाक में आशिक़ भी कहते है, अल्लाह ने उन्हें उनके नाम की पूरी तौफ़ीक अदा की है। इज़तनगर का कौन ऐसा शख्स है जो इनकी इश्क़ की दास्तां नहीं जानता हो, कहा जाता है जवानी में अपने रिक्शे के ही एक मोहतर्मा सवारी से उन्हें मोहब्बत हो गई थी। जिनकी तलाश में वो अभी भी बरेली की गलियों के खाक छानते फिरते है।
काफ़ी देर हो गयी थी, मैंने जुल का जायजा नहीं लिया था। सर घुमा कर देखा तो वो पलकें मूंदे, नींद की गलबैयां किये, किसी नवजात शिशु सी सो रही थी और उसके बाजु की वो औरत मुझे धड़ल्ले से घूर रही थी। जी तो किया मेरा भी मैं भी उस औरत से नज़रें नहीं फेरूं, उसे मैं भी घूर -घूर कर जलील कर दूँ लेकिन हिम्मत जुटा नहीं पाया।
पूरे सफ़र में जुल को पलट-पलट कर मैं देखता रहा और जुल मेरी नज़रों से बेपरवाह खुद में खोई रही, आख़िरकार हमारा पड़ाव आ गया, बस लखनऊ के बस स्टैंड में दाख़िल हो चुकी थी, वक़्त यही कोई रात के नौ बजे का होगा। हम सब अभी अपना सामान बस से उतार ही रहे थे कि यकायक आये एक शोर ने सब को सुन्न कर दिया, “किसी मुसलमान को नहीं छोड़ना, चुन चुन कर काट दो सब को”। पलट कर उस ओर देखा तो करीबन तीस से पैतींस लोगों का एक हुजूम मतवाले हाथी की तरह बढ़ा आ रहा था। किसी के हाथ ख़ाली नहीं थे, सबने अपने-अपने मुताबिक़ हथियार थाम रखे थे। उन लम्हों में खौफ़ की तासीर जितनी मेरे चेहरे पर झलकी, उतनी किसी और बुशरे(चेहरे) पर देखने को नहीं मिली वजह शायद मेरा मुसलमान होना था। ज्यों-ज्यों दहशतगर्दों का हुजूम करीब आ रहा था, मेरा होंठ गला सब खुश्क हुआ जा रहा था ,कंपकपाहट पाँव से शुरू होकर पूरे बदन में फ़ैल चुकी थी। बिना सोचे-समझे मैं ज्यों ही भागने के लिए पलटा, उस भरे-भरे हाथ-पैरोंवाली वाली औरत ने मेरा हाथ थाम लिया, “तुम मुसलमान हो?”
“हाँ, नहीं” मैं घबराहट में।
हाँ, तुम मुसलमान हो, नहीं तो तुम भाग क्यूँ रहे हो?
मेरी इस हरकत ने मुझे मेरे कौम के होने की मुहर लगा दी थी, जो मेरी सबसे बड़ी गलती थी। उस औरत के इरादे मुझे कुछ ठीक नहीं लगे। उसने पहले तो मेरा हाथ छोड़ा फिर मुझसे कुछ क़दमों का फ़ासला बना उन दहशतगर्दों की ओर इशारा किया। अब बचना मेरा नामुमकिन था, मौत चंद क़दमो के फ़ासले से मेरी ओर बदहवास बढ़ी आ रही थी। साँसों को सीने में महफूज रखने का अब सिर्फ़ एक ही रास्ता था मेरे पास की मैं आदिल से अजय बन जाऊँ, अलबत्ता मौत की इस्तक़बाल करूँ।
पलक झपकते ही दस बारह लोगों ने मुझे घेर लिया, जिसे वो औरत कह रही थी “ये जरुर मुसलमान है तभी ये भाग रहा था, मैंने इसे भागने नहीं दिया”।
उस औरत की बात सुनते ही, दो तीन लोगों ने मुझे दबोच लिया। इससे पहले की वो मुझसे सवाल करते, उनके कुछ साथी उस औरत से ही सवाल कर बैठे, “तू कौन है? कहीं तू भी तो मुसलमान नहीं है”? धारदार कुल्हाड़ी उसके गर्दन पर टेकते हुए।
जवाब में बेसुध हो अपने पल्लू को छाती से हटाई और मंगलसूत्र दिखाते हुए बोली “ये देखो मैं हिन्दू हूँ” फिर माँग में हलके सिंदूर की लाली दिखाते हुए “ये भी देखो, मैं हिन्दू हूँ और तुमलोगों के साथ हूँ”। उनलोगों ने फिर उसे वहां से चले जाने को कहा। अब बहशी लोग मुझसे मुख़ातिब थे, इससे पहले की वो कुछ पूछते मैंने डर से पहले ही बोल दिया “मेरा नाम अजय है और मेरे पास मेरे नाम के सिवा कोई सबूत नहीं है”।
वे बोले “लेकिन मैं कैसे मान लूँ कि तू भी हिन्दू है, हो सकता है तू मुसलमान हो और हमारे डर से अपना नाम बदल लिया हो?”
“मेरा यकीं कीजिये, मैं सत्य कह रहा हूँ। मैं हिन्दू हूँ मैं भी आपलोगों के साथ हूँ”।
अब तक बस स्टैंड पर हर ओर दहशतगर्द फ़ैल गये थे। हर तरफ़ भगदड़ मची थी, मासूम लोगों के चीखने, चिल्लाने के शोर के साथ बस के शीशे टूटने की आवाज़ कानों को ज़ख्मी कर रहे थे। मेरे साथ के सारे सवारी भी जहाँ तहां हो लिए थे।
“पेंट उतार अपना, दिखा वो निशानी जैसे इस दुनिया में आया था, जो हिन्दू है तो”।
मैंने पेंट उतारने से मना किया तो मुझे लात और घुसे से पीटने लगे, अचानक मैं चीखा “रुको” और फिर पेंट उतराने लगा।
“ठहरो! ये क्या कर रहे है आप?” जुल ने आकर मेरा हाथ थामा और उनलोगों से कहा, “क्यूँ मेरे मंगेतर को परेशान कर रहे हो भैया?” हम हिन्दू है मेरा नाम जुल है और ये मेरे होने वाले पति अजय है। अगर यकीं न हो तो बोलिए मैं भी कुछ उतार कर दिखाऊँ क्या?”
उन बहसी जानवरों के सीने में शर्म जिंदा थी, उनकी नज़रें झुक गई और साथ ही मुझपर से उनकी गिरफ्त भी ढ़ीली हो गई। जुल की फेंके हुए पासे उनके जमीर पर सीधे जा लगे थे। बिना बात को आगे बढाये, वे आनन-फानन में ही शर्मिंदगी की अँधेरे में ग़ायब हो गये। खतरा अभी टला नहीं था लेकिन जुल के संग मैं महफूज़ था, इतनी बात तो साफ़ थी।
“ओ मिस्टर, कट लो यहाँ से, इससे पहले की कोई सरफिरा आ कर तुम्हें काट दे”।
उसकी झनकदार आवाज़ ने अगले ही पल मुझे फिर से खौफ़जदा कर दिया था, “पर मैं जाऊँ कहाँ? ऐसे हालात में शहर का कौन सा होटल मुझ मुसलमान को पनाह देगा? तुम ही कहो”।
“ये तुम्हारी समस्या है। वैसे भी तुम कोई नवाब नहीं हो, जिसके लिए मैं घड़ी-घड़ी अपनी जान जोख़िम में डालू, वो तो शुक्र करो मैं बस की ओट से ये सब देख रही थी और ऐन मौके पर तुमलोगों के बीच कूद गई। वरना तुम्हारा आज यही काम हो जाता ख़त्म।“
ख्वाहिश तो हुई कि बोल दूँ नवाब न सही लेकिन शोहर तो हूँ ही जिसे अभी-अभी आपने उन दहशतगर्दों के सामने कबूला था मगर कह इतना ही पाया “फिर अभी क्यूँ जान जोख़िम में डालकर मेरी जान बचाई, ये एहसान क्यों”?
जवाब नहीं था उसके पास, जुबान उसकी थोड़ी तंग ज़रूर थी लेकिन दिल नहीं “ठीक है आओ मेरे साथ, तुमको किसी महफूज़ जगह पहुँचा देती हूँ”।
जुल ने कह तो दिया था लेकिन वो महफूज़ जगह कौन सी है उसे खुद पता नहीं था। तक़रीबन हम आधे घंटे तक न जाने किन-किन से गलियों में खूँ की बू और जलते हुए घरों की शमशीरों पे आँख सेंकते रहे लेकिन वो महफूज़ जगह नहीं मिली। शहर जैसे ख़ाली हो गया था या यहाँ के बाशिंदे बहरे हो गये थे, हमदोनों ने कई दरवाजो पर दस्तक दिया लेकिन किसी ने हिम्मत करके दरवाज़ा खोला नहीं। शायद मेरे साथ मुसीबत में जुल भी फँस गई थी, आगे चलते हुए जुल से मैंने पूछा “आप तो यही की है, फिर आपको इतनी मशक्कत क्यूँ हो रही किसी पहचान वाले को ढूँढने में?”
“किसने कहा मैं लखनऊ की हूँ, तुम्हारे ही तरह मैं भी इस शहर के लिए अजनबी हूँ।“  
“आपके लहजे से हर कोई मात खा जाए, एहसास तक नहीं होने दिया की आप यहाँ के नहीं है। बेखौफ़ और बहुत ही ज़िगर वाली लड़की है आप”।
मैं कह रहा था और वो “हुँह हुँह” करके सर को हिलाए जा रही थी। हर पल तैयार थी वो अगली मुसीबतों के लिए, तभी सिर्फ़ उसकी गोशे मुझपर थी और नज़रें मरघट सी गलियों पर पेवस्त। हर क़दम वो मुझसे आगे और मैं हर लम्हा उसके साए में दुबका हुआ था। आज मैं औरत की एक ऐसी शख्सीयत से रु बरु था, जो मेरे ज़ेहन में कभी नहीं बनी थी।
अम्मी के इंतकाल के बाद, अब्बा ने जब रिसी खाला से निकाह किया, औरत के लिए मेरी नजरिया तब से ही बदल गया था। इनके हर क़िरदार के लिए मेरे पास नफ़रत के सिवा कुछ नहीं बचा था, सब के सब मतलबपरस्त और तंगदिल मिली। मेरी पूरी बचपन और मासूमियत इस कदर निगल ली थी रिसी खाला ने, वो तो ख़ुदा नेमत बक्शे रिजवान मामू को जिसने अपने ज़िम्मेदारी पर ऊँचे तालीम के बहाने बरेली में रहने को छत दिया और साथ ही मेरी परवरिश भी की। मगर आज तक कुछ समझ नहीं पाया की जिंदगी में क्या करना है फिर एक दिन लखनऊ के उर्दू अखबार को एडिटर की जरूरत है इश्तिहार देखा और ख़त लिख दिया. पिछले हप्ते उसी लखनऊ के उर्दू अखबार के दफ़्तर से नौकरी के लिए ख़त आया था सो आज लखनऊ उसी सिलसिले में जाना हो रहा था।
जुल ने मेरी हाथ  थाम लिया, “तैयार हो न जनाब मौत को मात देने के लिए”?
“समझा नहीं?”
मेरे होठों पर अपना हाथ रखकर, दीवाल की ओट में खींच फिर दबे जुबां से बोली “सीsss, कुछ लोग इधर ही आ रहे है, हम इस जगह और नहीं रुक सकते है। हमें कहीं ओर जाना होगा।“
बिना कोई पल गंवाएं, लुकते छिपते हम वहां से भागकर दूसरी गली में दाख़िल हो गये। अभी भी जुल आगे चल रही थी और मैं उसके पीछे, अचानक उसके बेखौफ़ कदम ठहर गये।
“हम ग़लत गली में आ गये, ये मुसलमानों की बस्ती है”।
मेरे ख्याल से जुल को किसी जासूसी कंपनी में होना चाहिये था। माशाल्लाह क्या ग़जब तेज़ निगाहें थी और दिमाग भी, मैं मुसलमान होकर भी जिन चीज़ों पर गौर नहीं कर पाया, उसे वो कितनी आसानी से शिनाख्त कर ली। रास्ते के दूसरी ओर लुढ़का हुआ बदना, दुकानों के नाम का उर्दू में लिखा होना, और सबसे बड़ी बात नगरपालिका का वो साइन बोर्ड जिसपर हज़रतगंज लिखा था। जुल ने उन तमाम चीज़ों पर इशारे से मेरा ध्यान डलवाया। उसे देखते ही पता नहीं कहाँ से मेरे पाँव में गज़ब की हिम्मत आया गयी, इतने देर में मैं पहली बार मैं जुल से आगे था और जुल मेरे पीछे “कहाँ जा रहे हो, क्या कर रहे हो”? दबे स्वर में कहती हुई। मैं बाबलों की तरह इधर उधर गली में भाग कर उम्मीद ढूँढ रहा था।
मैंने कहा था आज मेरी हर दुआ सुनी जा रही थी, उसने मेरी उम्मीद फिर टूटने नहीं दी। मुझे मस्जिद नज़र आ रही थी, वहाँ कोई न कोई तो ज़रूर होगा और फिर मदद मिल जाएगी। ख़ुशी में पागल हो गया था, पिछले घंटे के बाद ये वही एक लम्हा था जब खौफ़ ने पूरी तरह मुझे आज़ाद किया था। ख़ुशी के मारे मैं ये भी भूल गया जुल मेरे साथ है और वो हिन्दू है। जुल ने एक मर्तवा फिर मेरी हाथ थाम और अपनी ओर खींच कर कहा “कहाँ जा रहे हो, क्या कर रहे हो”?
“जुल वो देखो मस्जिद, वहां कोई न कोई ज़रूर होगा। हमें पनाह मिल ही जाएगी, चलो जुल अब मत रुको”।
“हमें नहीं तुम्हें, ये मत भूलो की मैं हिन्दू हूँ, फिर सच्चाई हम ज्यादा समय तक छुपा भी नहीं सकते। तुम जाओ वहां तुम्हारे अपने लोग है, मैं कहीं और चली जाऊँगी”।
“क्या भरोसेमंद सिर्फ़ हिन्दू ही होते है, हम मुसलमान नहीं? जहाँ मैंने इतना भरोसा तुम पर किया, क्या तुम मुझ पर एक जरा सा नहीं कर सकती?”
जुल के सर हाँ में हिले और फिर हमदोनों एक साथ मस्जिद की और दौड़ पड़े। दस पन्द्रह कदम अभी आगे बढ़े ही थे कि हमें दस से बारह लोगों ने घेर लिया। सबके माथे पर खून सवार था और आँखों में बदले की आग दहक रही थी।
“कौन हो तुमलोग और यहाँ क्या कर रहे हो?”
इस बार दहशतगर्दों को जवाब देने की बारी मेरी थी, “भाईजान, मैं आदिल हूँ और ये मेरी बीबी जीनत है हमलोग बरेली से आये है।“ मैंने जेब से ख़त निकाल कर दिखाया, “ये देखिये यहाँ के उर्दू के अखबार के दफ़्तर में मेरी नौकरी लगी है। इसी सिलसिले में लखनऊ आये थे मगर यहाँ के हालात इतने ख़राब है कैसे-कैसे यहाँ तक पहुँचे है, हम ही जानते है।“
सिर्फ़ ख़त देखकर भरोसा नहीं करने वाले थे, वक़्त ही इतना ख़राब था।
“ये काफ़ी नहीं है, गर जो हमारे कौम के हो तो कोई एक दुआ पढ़ो”
मैं फ़ौरन पढ़ने को हुआ तो मुझे रोकते हुए “नहीं तुम नहीं, अपनी बेग़म को कहो”।
मेरी साँसें अब उखड़ गई, हमारे झूठ से पर्दा उठने ही वाला था कि तभी जुल ने बहुत ही गंभीर अदाकारी दिखाई, पहले तो फूट-फूट कर रोने लगी फिर किसी गूंगे की मानिंद चिल्लाने लगी। मैंने जुल की इस हरकत को समझ लिया और कहा “भाईजान ये गूंगी है बोल नहीं सकती, आपकी इज़ाज़त हो तो इनके बदले मैं दुआ पढू”।
“नहीं उसकी कोई जरुरत नहीं है, अब आपदोनों महफूज़ है और मस्जिद में जाकर इत्मीनान से रात गुज़ार सकते है।“
“शुक्रिया भाई जान”, जुल ने भी गूंगेपन के अंदाज़ में “शुक्रिया” कहा। अब हम मस्जिद के अंदर थे जहाँ पहले से काफी लोग मौजूद है। जुल और मैंने अलग-थलग एक कोना पकड़ लिया। जुल ने फर्श पर बैठते ही एक गहरी साँस भरी, लेकिन वो अभी भी घबराई हुई नज़र आ रही थी शायद उसका घबराना लाजमी भी था। सो घबराहट की दीवार गिराने के लिए मैंने ही दूसरी बात छेड़ दी “आप इतनी खुबसूरत अदाकारी करती है, की किसी भी शख्स के लिए हक़ीकत और झूठ के बीच का फ़ासला तय करना आसन नहीं होता। जानते है एक पल के लिए मैं खुद समझ नहीं पाया था। सुभानल्लाह! अपनी पूरी जिंदगी में मैंने आप जैसी मुक्व्वल लड़की नहीं देखी वैसे मेरा नाम आदिल है और मैं बरेली से हूँ”।
“चलिए, इतने देर में आपने अपना नाम बताने का ज़हमत तो किया आदिल, वैसे ये अंदाज़े बयाँ खूब है आपका, इस पर कोई भी लड़की फ़िदा हो जायेगी”।
जुल के जवाब पर मुझे हंसी आ गई थी, मुझे हँसता हुआ देख जुल के लब भी फ़ैल गये थे। जुल से मिलकर आज भटका हुआ आदिल राह पर आ गया था। औरतों के लिए अब मेरे दिल में काफी इज्ज़त भर गई थी। ये करिश्मा ही था एक अरसे से मैंने मस्जिद में पाँव तक नहीं रखा था और आज उसी मस्जिद मैं जुल जैसी पाक़ दिल लड़की के साथ था। मुझे अचानक जुल अच्छी लगने लगी थी यूँ कहे की उसके बेबाक अंदाज़ और मददगार स्वभाव से मुझे मोहब्बत हो गई थी।
जुल से मिलकर दुनिया में हर चीज़ के वाकई में दो रंग है, ये साबित हो चूका था। बाहर कुछ ऐसे लोग थे, जो बेवजह मुझे मार देना चाहते थे। वही जुल जैसी लड़की भी थी जो बेवजह दूसरों को बचाने के लिए अपनी जान तक की परवाह नहीं करती है। काश ये पूरी कायनात जुल जैसों से भर जाय फिर हर तरफ इंसानियत और मोहब्बत ही होगी।
“कहाँ खो गये जनाब आदिल”?
जुल ने मुझे खुबसूरत ख्यालों से बाहर निकला, “कहीं नहीं बस ये सोच रहा था तुम जैसा हर कोई क्यों नहीं है”?
ये सुन जुल खिलखिला कर हँस दी, उसकी हँसी उन गोशों में चली गई जहाँ नहीं जाना चाहिए था। हमें खुदा के घर से बेरहमी से खींच कर निकाला गया और भद्दी-भद्दी गलियों से नवाजा जा रहा था। कसूर सिर्फ इतना था एक गूंगी हँस बोल कैसे सकती है? वापस उनके तेवर ख़ूनी हो चले थे और पहले से ज्यादा खूंखार भी, कुछ लोगों ने मुझे पकड़ रखा था और कुछ ने जुल को। तभी मेरे सर पर पीछे से एक तेज़ वार होता है और मेरी आँखें बंद होने लगती है। ये देख जुल रोने लगती है, ये आख़िरी वक़्त था, जब मैंने जुल को देखा था। मेरी बंद आँखों में जुल की वो रोती हुई तस्वीर आज तक कैद है।

साल भर बाद दफ्तर की हर नजर मुझे बधाई दे रही पर पर मेरा दिल तार तार हुआ जा रहा था। आज उर्दू के अखबार में मेरी कहानी “दो रंग” उस दंगे में मारे जाने वालों की याद में छपी थी। लेकिन मेरा दिल जुल के साथ जो भी हुआ होगा उसके लिए खुद को गुनाहगार समझता है, काश की उस रात वो मुझपर और मेरी बातों पर भरोसा नहीं करती, काश। इसलिए तो शायद हम मुसलमान भरोसा जीत कर भी आज भरोसे के काबिल नहीं है।

Thursday, September 15, 2016

“एक रुका हुआ फैसला” (कहानी).




बरसों बाद वो ख़ुश हुई है। अरसों से ठहरा हुआ, उसकी जिंदगी का कारवां आज से सफ़र पे जो रवाना होने वाला है। ख़ुशियों ने आख़िरकार उसके घर का पता ढूँढ़ ही लिया, राह भटक के भी। तभी तो हमेशा एक नये शुरुआत की बात करने वाली घर की वो तमाम जुबाँ आज शर्मशार होकर ख़ामोश थी, सिवाय उसकी अम्मी की। क्योंकि इन बीतों सालों में अम्मी ही उसका हौसला और हमनवां बनकर हर कदम साथ रही है। जैसे घुप अंधरे में कोई जुगनू उसे राह दिखा रहा हो। ये मुकद्दर की एक मुकद्दश आजमाइश ही कहिये जो उसे पाँच साल उस शख्स से दूर रहना पड़ा, जिसे दुनिया में वो सबसे ज्यादा मोहब्बत करती है।
“असीरा चल न और कितनी देर लगाएगी, जुम्मन भाई कब से टैक्सी लाकर इंतज़ार कर रहे है। फिर आजकल कानपूर का मुज़ाफ़ात(आस-पास का क्षेत्र) कितना मशरूफ हो गया है।“
“जी अम्मी, बस,बस आई”।
ये सिलसिला काफी देर से चल रहा था, अम्मी जान बुझकर बार-बार वक़्त की कमी की तगादें कर रही थी ताकि वो उसकी ख़ुशियों को दूर से महसूस सके वो जुबाँ जो हँसना भूल गई थी, वो चेहरा जो आईने से अन-बन कर ली थी। आज जिंदगी ने उसपर बहजत(ख़ुशी) का टीका लगा दिया था। घंटो लगे थे, असीरा को सिर्फ़ राहील की पसंद की ड्रेस चुनने में। वो भी जी भर के सजना सवंरना चाहती थी, ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी कभी झुमके पहनती तो कभी उतारती, कभी जुल्फों को जुड़ों में गुथ लेती तो कभी यूँ ही खुले बादल की तरह कंधे के हवाले कर देती। दरअसल वो हु-ब-हु वैसा ही दिखना चाहती है जैसा पहली दफ़ा राहील ने उसे देखा था। जब वो अपने वालदैन के संग उसके घर पर तशरीफ़ लाया था।
बड़ी अफरा-तफरी सी मची थी उस दिन पुरे घर में, जिसे देखो सजने-सवरने में मशगूल था। जैसे वे लोग असीरा को नहीं उनको पसंद करने के लिए आ रहे है। और ये मोहतर्मा अपनी अम्मीजान के साथ सुबह से गुसलखाने की कोने नाप रही थी। बिरयानी, मुर्ग शोरबा, मिर्च का सिलान, सवई और न जाने कितने तरह की लजीज ख़ुशबूओं से गुसलखान भर गया था लेकिन फिर भी उसकी अम्मी बार-बार कहती जैसे कुछ रह गया है।
कुछ घंटे भर बचे थे उनलोगों के आने में, उस वक़्त असीरा आईने से मुख़ातिब हुई और फिर जो सज कर राहील के सामने चाय लिए आई तो जनाब की आँखें फटी रह गई। खुदा की कारीगरी की बेहतरीन नमूना, जैसे किसी परीबानो की हुस्न उसके किस्मत को नज़र कर दी गई हो। हलके-फुल्के पलों से शुरू हुई बातें रिश्ते की क़रार पर आकर थमी थी। एक महीने के भीतर राहील ने दबाब बना कर निकाह की रस्म भी अदाई करवा ली।
नज़रों की मुलाकात से शुरू हुआ एक सफ़र मोहब्बत की दहलीज पर आ खड़ा हुआ था। राहील ने पहली रात को अपना दिल-ए-हाल बयाँ मोहब्बत की इजहार से किया। वो खुद भी एक बेहतरीन शख्सियत का मालिक है, कानपुर के सरकारी महकमों उसकी धाक है। लाखों का ठेका चुटकीयों में हासिल कर लेता है।
असीरा को राहील से मोहब्बत होने में थोड़े वक़्त लगे। तभी तो उस मोहब्बत की धागों की बंधन इतने मजबूत निकले की पाँच सालों की इंतज़ार और उस मोहब्बत पर तंज कसने वाली जुबान छोटी पड़ गई। अपनी पहली सालगिरह के दिन उम्र भर साथ-साथ चलने की वादे लिए हुए कदम जुदा हो गये थे। एक मोहब्बत फलने-फूलने से पहले विरानगी में धकेल दी गई थी, सिर्फ़ इसलिए कि असीरा ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी। नहीं, बात इतनी नहीं थी। ये तो राहील के घर वालों की तरफ से गढ़ा गया एक बहाना था दरअसल राहील की निकाह असीरा से पहले साजिया से हुई थी। साजिया और राहिल आपसी समझोते पर अलग हुए थे मगर फिर भी साजिया और उसके घरवालों ने राहील को तंग करने के लिए उसपर मुकदमा दर्ज़ कर दिया और इस बात की ख़बर असीरा को अपनी पहली सालगिरह के दिन हुई, जब कोतवाली से राहील के नाम से शमन और बुलावा आया।
वो राहील से खफ़ा होकर, उसी दिन अपने अम्मी के पास चली आई। उसे इस बात की तकलीफ़ नहीं थी वो उसकी दूसरी बीबी है, उसे ये खला की राहील ने सालभर उससे ये बात छुपाई रखी। और ये जायज भी था।
विश्वास और यकीं का नाम ही तो है मोहब्बत, और इस मोहब्बत के साथ वो राहील की जिंदगी का सबसे बड़ा हिस्सा भी तो थी। उसे अपने अतीत के बारे में असीरा को पहले ही बता देना चाहिए था। कोतवाली से वापस आने के बाद राहील असीरा को घर पर नहीं पाया तो सब समझ गया, किन्तु उसकी हिम्मत नहीं हो पाई कि जाकर उसका सामना करे।
राहील के घर वालों ने उल्टा असीरा पर ही तोहमत लगा डाली, जरुर इसी ने साजिया को चढ़ाया बढ़ाया होगा, अनपढ़ लोगों के पास दिमाग ही कितना होता है। लेकिन राहील अपने घरवालों की बातों से कभी इत्तेफ़ाक नहीं रखा। उसने हमेशा कोशिश की, असीरा से मिलकर उसे सारी बात बताये और उसे घर वापस ले आये मगर बात कचहरी तक पहुँच गई थी। साजिया से बिना कागज़ी तलाक़ लिए वो असीरा को अब घर नहीं ला सकता था। अलबत्ता कचहरी में कई बार पेशी हुई, लम्बे-लम्बे जिरह हुए परन्तु  नतीज़ा वही रहा। कानून के सामने उसकी एक न चली। पुरे पाँच सालों तक साजिया के घरवालों ने मुकदमों में उसे फँसाये रखा, अभी कल की बात है जब मुकदमे का वो रुका हुआ फ़ैसला आया और राहील को साजिया से तलाक़ मिली।
राहील ने बरसों से जमा कर रहे हिम्मत को इकठ्ठा करके आसीरा फ़ोन किया और माफ़ी माँगते हुए कहा “आ जाओ बेग़म बेमतलब की जुदाई बहुत हुई, हर रोज तुम्हारी मोहब्बत और यादों में मैं यहाँ मरता रहा हूँ।“ इस एक फ़ोन कॉल ने असीरा के इंतज़ार को मुकव्वल कर दिया था। 

अम्मी ने जब फिर आवाज़ लगाई तो वहीँ पाँच साल पहले की सी सजी असीरा उनके सामने आ खड़ी हुई। जुम्मन भाई की टैक्सी में अम्मी के साथ वो अपने घर वापस जाते हुए, आँखों में ख़ुशी की आँसू लिए बहे जा रही थी और अम्मी उसकी पीठ सहला कर माथे चूम रही है।