Monday, December 30, 2013

तेरे प्रेम में कलम है मेरा ...


तुम मेरे प्रेम में देह मात्र नहीं हो,
तुम सलील स्वरुप की मधुशाला नहीं हो,
तुम तो कंपन हो मेरे हिर्दय की
जिसकी गति से धरा सी मेरी आत्मा
तेरी परिक्रमा करता है,

जहाँ उम्र की चक्षु पे
एहसासों का दिन रात होता है,
और मेरा पुलकित मन
उन एहसासों के आलम में
हर लम्हा तेरे आगोश में जवां होता है,

तुम भी चाहो तो
इन एहसासों को महसूस कर सकती हो,
ढ़ीला कर अपने बदन को
मेरे बांहपाश के फंदे में खो सकती हो,

सिर्फ उस आलम का चित्रण ऐसा होगा,
तू मेरी और मैं तेरा होऊँगा,
तेरी साँसें अधीर होके मेरे आंलिगन में टूटेगी,
और मेरे हसरतें सुर्ख तेरे लबों को चूमेगी,


तनिक कश्मकश का मोहोल होगा
बीच तेरे मेरे
जहाँ तेरे माथे पे मेरे चुम्बन की बिन्दया होगी,
और शरमाते तेरे नैनों में मेरी दुनिया होगी,
तू और बेहक जाने को मुझसे कहेगी,
और मैं पिघल जाने को तुझमें उतरूंगा,

ये दृश्य तेरे मेरे अकूत प्रेम कि निशानी होगी,
जहाँ फिर से एक राधा किश्न की दीवानी होगी,

शायद तू भी यही चाहती है
तभी तो रोज चाँद बन मुझसे मिलने आती है,
महज ये सिर्फ कल्पना नहीं है,
बस जान ले तू चाँद
तू मेरी है अब उस आसमा की नहीं है,

तुझे सिर्फ मेरे आँगन में निकलना होगा,
मेरे बेताब रूह को अपना बदन देना होगा। …  

Saturday, December 7, 2013

तेरा प्रेम और उस प्रेम का बिम्ब ...




तेरा प्रेम
और
उस प्रेम का बिम्ब,
अक्सर मेरे
यतार्थ के भावों से
ऊपर रहे है,
मैंने जब भी इन दोनों को
छूने कि कोशिश की,
मुझे कुछ और ही हाँथ लगे.
जैसे मैं किसी आईना में
खुद को देख रहा हूँ,
कभी सिंदूर बन तेरे टिके में
सज रहा हूँ,
तो कभी चुन्नी बन तेरी लाज
संभाल रहा हूँ,
ऐसे असंख्य भाव
जिसके छुअन ने मुझे
अलौकिक सा एहसास दिया है, अब तक
सोच रहा हूँ,
आज जिक्र कर डालू
उन सारे असंख्य भावों का
जिससे मेरा प्रेम सार्थक हुआ है,
और तू बिम्बों में परिभाषित हुई है,
पर आज ज़ेहन में याद मुझे
बस उस एक रात कि आ रही है,
जिस रात तूने
अपने अधीर साँसों की
मर्यादा तोड़ी थी
और मुझको
अपने बाँहपाश के फंदों में
जकड़ी थी,
उस वक़्त
व्याकुल तू थी या तेरे लब
जिसने मेरे माथे को चूमा था
तत्काल वो हरक़त
मैं समझ नहीं पाया था,
पर जब तेरे भाव विभोर चक्षु से
अश्रु के समान मोतियाँ गिड़ी
और लब खुल के
जो पुष्प से भाव उगले
जो मेरे भों और सीने को तनने का
और साथ ही मुझे आसमा कि ऊंचाई का
गर्व दिया
जिससे मुझे समझ आया
सच में
तेरा प्रेम और तू क्या है ?
हाँ मैं मूक हो गया था,
उस वक़्त
तेरा प्रेम का द्रवित लम्हा और स्वरूप देख कर
इसलिए आज इसे
परिभाषित कर रहा हूँ,
तेरा प्रेम
और
उस प्रेम के बिम्ब को
मेरा कद कभी माप नहीं सकता
बस ये कहूँगा,
तूने मुझे जो दिया है,
और जो दे रही हो,
उससे मैं अपना ह्रदय हाँथ में लेके
तेरे लिए
सदा यूँ ही खड़ा रहूँगा,
ताकि तू हर वक़्त मुझे यूँ ही छू सके
और मैं तुम्हें … 

Friday, December 6, 2013

प्रेम परिधि ...


मैं तुमको प्रेम का
एक गोल परिधि दूँगा,
जिसके हर एक कोण पे
सहर्ष सा
मैं तुमको धँसा हुआ मिलूँगा,
जहाँ मेरे पास तुझे देने को
अपने जज्बात, अपना उम्र,
अपना वजूद, अपना ह्रद्य,
अपना साँस, अपने सपनें होंगें,
और सुन तू पगली
मैं तुझे
उस गोल सी परिधि के अंदर ही रखूँगा,
ताकि तुझे मेरे आगोश की
महफूज़ बाहें मिल सके,
जहाँ कभी तुझे दुःखों के
बाहरी कठफोड़वे छू न सके,
जहाँ हम और तुम होंगे
और साथ होगी
अपलक झपकी हमारी ख़ुशियाँ,
जिसकी नग्नता में
तू चाँद बनके निकलना
और मैं चाँदनी बन
तेरे बदन से लिपटा करूँगा, 
कभी तू फूल बन जाना
कभी मैं उस फूल की मादक खुशबू बन
हवाओं में बिखर जाया करूँगा,
देखना
तेरे एहसासों को प्रेम की
वो परिभाषा दूँगा
जिसके काजल तेरे
भाव विभोर आँखों में लग कर
एक प्रेमिका होने का स्वेत सा पहचान देगा
फिर तेरा ह्रदय करे तो झूम लेना
मैं रोकूँगा नहीं
क्योंकि
मैं भी पहली बार ही किसी
ख़ुशी को नाचते देखूँगा,  
बस
तुम इस
परिधि को स्वीकार लेना,
मेरे महफूज़ बाँहों में समा के
अंगीभोर होने के लिए … !

दाह संस्कार ...

कहते है
मुख में अग्नि
मरणोपरांत दी जाती है
अब इसको क्या कहे
जो एक अरसे से
मैं खुद की मुख में अग्नि
का धधकता हुआ ताप रखता हूँ
शायद
साबित करने को
कि इस हाड़ मांस के जिस्म के अंदर की आत्मा
दम तोड़ चुकी है
बहुत पहले
अब तो रोज अपने अस्तिव का दाह संस्कार कर रहा हूँ
पर कोशिश हर रोज असफल रहती है
कुछ क्या बहुत कुछ जलता भी है
हासिल राख भी होता है
लेकिन खोखली जिद्द की हदें इतनी ऊँची है
उस राख को झटक
फिर से खड़ा हो उठता है मेरा कद
मेरा इंसानी कद सरीक बदन
पीड़ा के फोड़े से रिसते पानी को
आँसू का बूँद समझ कर पोछ तो लेता है
पर दर्द के टीस से
नमक पड़े होठों को न छुपा पाया है
न छुपा पाता है
यहीं से शुरू होता है
लोगों के उपहास का सिलसिला
जो किसी दर्जी के मशीन के सामान होता है
कुछ दर्द को सील तो देता है
पर गुदरी के लिहाफ के जैसे
जिसके आस्तीन में कई रंगों के कतरन
के जमावड़ा छोड़ जाता है
और
फिर दूसरा कोई
मेरा ये लिहाफ देख कर
मेरे निर्धनता पे पत्थर मरता है
उपहास उड़ाता है
मेरे आत्म सम्मान जैसे चीज को
पावं तले रौंदता है 
बिना मेरा मानसिक मनोदशा को जाने समझे 
क्या ऐसे में
मेरे हाँथों किया गया
वो दाह संस्कार किस मायने में गलत है
अगर में सालीनता से
तिल तिल करके रोज खुद को
अपने अस्तिव को मिटा रहा हूँ तो
मुझे लगता है कोई गलत काज नहीं है
क्योंकि
इस जीवन का अंत तो मौत है
फर्क सिर्फ इतना है
मैंने अपनी मौत कि पहचान पहले कर ली है
बस देख रहा हूँ
और
कितनी अधजली साँसें सीने में बाँकी है
और कितने
अपने आत्मसम्मान का दाह संस्कार करता हूँ !!