Thursday, November 28, 2013

बाट में प्रियसी ...


वियोग में चकोर सी निग़ाहें
कर के बैठी मुंडेर पे
अपने आँखों को अपलक झपकाती
वो मेरी प्रियसी,

मन में भावनायों के असीमित सी
वेदना लिए
कभी अपने कमरे में दाखिल होती
कभी मुंडेरे में आ बैठती
कभी आईना निहारती
अभी रूत को कोसती
अभी ताखे पे
एक लाल लिफ़ाफ़े में
लपेटा हुआ
मेरे हिजर कि मुफ़लिसी से भरा
वो ख़त
जिसमें मैंने उकेर दिया था कभी
वियोग कि अपनी वो तमाम रातें
जो बगैर उनके मैंने काटे थे,
उसे उसके शब्दों के एहसासों संग पढ़ती
और मन मसोस कर
लहू का कतरा सा
वो एक बूँद आँसूं
प्यासी ज़मीं के सुपुर्द कर देती,

फिर तुरंत उसे
न जाने क्या हो जाता
चोके में जा
बुझी हुई राखों में
कुछ बीनने लगती
जैसे किसी ठंड पड़ी
किस्मत कि चिंगारी को वो
अपने इरादों से प्रज्वलित
करना चाहती हो
वही कोने में रखे
धान की बोरे को देखती हैरत से
जब पिछले कई महीने से
यूँ ही पड़े इस धान के बोरे से कोपलें से
निकल सकते है
तो फिर मेरे
एक दशक के सपनों के बंजर पड़े खेत में
प्रेम और खुशियों की  बियाड़ क्यों नहीं लग सकती,

इसी आस पे वो पगली
रोज दरवाज़े को सांकल को पोछती
की जब कभी वो मेरा प्रिय आएगा
तो देखे
मैंने भी उसके इंतज़ार में
हर चीज़ को कैसे नाजुकता से संभाल के रखा है
जिस जिस चीज़ को उसकी स्पर्श छुएगा
चाहे फिर
वो मेरा देह हो या पवित्र मन ...!!

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