Monday, November 24, 2014

वो एक सवाल गर तेरे इश्क़ में !!

गेसुओं के पल्ले के नीछे से
तेरा मुझको तकना
फकीरन हवा को भी
साँसें रोकने पे मजबूर कर देती थी जब
फिर
मेरे हुज़ूर
मेरा मिशाद क्या था ?
मैं क्या था?
मैं क्या हूँ ?
वो एक सवाल गर तेरे इश्क़ में
जेहाद सा था
तो वो क्या था ?

मानता हूँ मैं
वो तेरी उम्र की /सरगोशी थी
इश्क़ को रख सिरहाने
सर
सोने की मदहोशी थी
धूप को आँचल में
समेट लेने की
हंसी कोशिश थी
भला ऐसे में
मैं घायल हुआ
तेरे नज़रों से
फिर
मेरे ज़ख्मों से
मुझे पीर क्या था
मैं क्या था?
मैं क्या हूँ ?
वो एक सवाल गर तेरे इश्क़ में
जेहाद सा था
तो वो क्या था ?

ये देख अब मैं
तेरे इश्क़ की ताबीज़
बांध बैठा हूँ बाजुओं पे
कलमें सारे पढ़वा लिया हूँ
साधुओं से
ये सोचकर की
तु मुझे चाहती हो
अपने सीने में
तभी तो बसाती हो
वरना
इस चेहरे पे इतनी बहार कहाँ
जो कोई सर्द हवा
इस चिनार को भाए
हैरत मैं हूँ
बस
हैरत मैं
कुछ यूँ
तेरा ख्याल आने लगा
रूह गुनगुनाने,
साँसें दिल बहलाने लगा
एक मजाल तेरी फ़िक्र बनके
मुझे भी सताने लगा
अब जो यही ख्याल
मेरा न रहा
तेरा हुआ
तो वो क्या था
मैं क्या था?
मैं क्या हूँ ?
वो एक सवाल गर तेरे इश्क़ में
जेहाद सा था
तो वो क्या था ?

एक दफा फिर !!

वो तेरे नज़रों से उतरता हुआ सुर्ख रंग 
मेरे इश्क़ का 
जैसे काले बादलों ने खुद को समेटना शुरू कर दिया हो 
ये सोचकर कि अब कोई बारिश नहीं होगी 
आस की वो कश्ती 
जो मैंने उतारा था कभी तेरे संग बारिश के पानी में 
किसी किनारे तक नहीं पहुँच पाएगी 

जो भी था सब सही था  
वही था 
पर
कोई रंग होले होले उतर रहा था 
ये क्या था ?
जो मुझे पता होके भी अनजान सा दिख रहा था  

पर जो भी था 
जो भी है 
मेरी तमनायें तेरे संग आज भी समुन्दर के 
गहराईयों में उतरना चाहता है
कुछ अनसुलझे सवालों का जवाब ढूँढ़ना चाहता हैं 
न जाने क्यूँ ?
शायद इस ख्याल में 
कि काश किसी सीप के अंदर 
वो सारा मंजर मिल जाये 
जो खुशनुमा था 

जब रात के काले अँधेरे में चाँद 
दूध सी झलकती थी 
मैं होले से बाहें थामे उसको ज़मीं पे उतारता था 
हवाएँ सर्द होके हमारा आलिंगन करती थी 
फलक से सितारें अपनी साँसें थामे 
हमारे इस मिलन को सुबह तलक तकता था 
और तुम मेरे पनाहों के गिरफ़त सिमटी थी 

वो क्या था 
वो मंजर क्या था 

आज इन बीते लम्हों का अवसाद भर है मेरे जेहन में 
पर ख्वाहिशें वही है, हसरतें भी वही है 
कि फिर वो काली रात हो 
इस बार तुम अपनी पूरी उर्जा और रंग समेट कर 
एक दफा फिर ज़मीं पर आओ 
ताकि मैं अपने जिस्म से रूह और साँसों को निकाल सकू 
और तेरे नाजुक हाँथों में रख सकू 
जो तेरे बिना जिन्दा होके भी आज मुर्दा है !!

Saturday, November 22, 2014

कुछ बाँकि होगा !!

मेरा मुझमें कुछ रह गया 
तेरा भी 
तुझमें कुछ बाँकि होगा 
दो किनारों के मिलने जैसा 
दो नज़रों का 
कुछ बाँकि होगा 

वादे वफ़ा खाव्बों के 
टूट के भी 
हिस्सों में कुछ बाँकि होगा 
हम साथ न रह सके 
बिछड़ के 
कुछ रिश्ते तो बाँकि होगा 

पूछेगा दिल 
अश्क बहा के बता दूंगा 
गुस्ताखी मेरी थी ये 
जो बनाया साहिल पे घर 
तो और लहरों का आना बाँकि होगा 

मेरे यादों का कुछ टुकड़ा 
उनके पांवों में भी चुभा ही होगा 
पतझड़ से चाहे लाख बहला ले दिल 
आँखों में सावन का आना बाँकि होगा 


Saturday, November 15, 2014

अधूरे परे सपने ..!!

उड़ता ही जा रहा है
वो सारा नमक
जो तेरे आँखों के समुन्दर में था
वो सफ़ेद पानी का रंग भी
सुर्ख नीला हो रहा है
जो तेरे वफ़ा के झील में था
बस कुछ ज्यों का त्यों बचा है
वो नन्हीं छोटी सी मछलियाँ
जो तेरे यादों के तरह मेरे जेहन के एक्वेरियम में है
जिसे में रोज तेरे नाम का सदका करके
थोड़ा थोड़ा कर
इश्क और मुश्क के दाने खिलाता हूँ
शायद
इसलिए कि
कहीं ये भी जल्दी बड़ी न हो जाए
वरना नाहक ही मुझे
इनको भी समुन्दर में छोड़ना पड़ेगा
जैसे मैंने तुमको छोड़ा है
इस दुनिया के विशाल समुन्दर में
क्योंकि
तुमको बंदिश और छोटे से जेहन में रहने की आदत नहीं थी
और ना ही है
तुमको तो खुला आसमान चाहिए था
परिकथा वो फरों वाला पंख चाहिए था
जिसको लगा के
तुमको चाँद तारों के बस्ती में जाना था
जहाँ दूध की नदी बहती है
जमी का रंग सफ़ेद
और
आसमान का रंग गुलाबी होता है
जहाँ चारों पहर में नया सूरज उगता है
पेड़ पौधे खुशियाँ उपजाते है
ऐसे अंसख्य मासूम चाहत
जो कल्पना करके ही रोमांच जगाता है
जिसे मैंने सिर्फ
किताबों के में पढ़ा था
तुझे तो बस उसकी चाहत थी
मैं तो किताबी था
फ़िल्मी था
बस वही रह गया जो था
जिसके पास टाइटैनिक के जैक और रोज की मोहब्बत
एडम और ईव की चाहत के सपने थे
एक रेत का छोटा सा घरोंदा और एक छोटी सी कस्ती थी
जिसके सहारे तेरे संग दूर निकलना था
जो आज तेरी चाहत और सपने को
पूरा करते करते
न जाने कितने दूर निकल गये हैं
जिसे वापस आने का रास्ता नहीं मिल रहा है
जो चीख रहा है
रो रहा है
बिलक रहा है कि
कभी तुम चाँद सितारों की बस्ती से वापस आओ
और फिर
तुम और मैं
इस जमी पे अपने अधूरे परे सपने का
पूरा सा घरोंदा बनाये
जिसमें हम साथ मिलके रहें
मैं तेरे चाहत और सपने के लिए जियूं
और तुम मेरी  ... !!




सब याद है कुछ भुला नहीं हूँ !!

साँझ सुबह
वो आवारा मस्ती
तेरे बातों में खो के
कभी चाँद के पार जाना
कभी हाँथ थामे
फिर वहीँ से वापस आना
सब याद है
कुछ भुला नहीं हूँ

मुझे याद है
तेरे गेसुओं का वो पल्ला
जहाँ से झाँक के
मैं तेरे दिल में उतरा करता था
होल से दबे पावँ
तेरे मुस्कान को वहां से चुरा के
तेरे लबों पे उतारा करता था
और फिर तू हँस के मुझको
बाँहों में भर लेती थी
सब याद है
कुछ भुला नहीं हूँ

मुझे याद है
तेरे आँखों की वो नमकीन शरारतें
जो किसी समुन्दर को खुद में
बसाये हुए थी
जिसके लहरों पे मैं अटखेलियाँ
खेला करता था
और तू मुझको खुद में उतार के
भिंगोया करती थी
सब याद है
कुछ भुला नहीं हूँ

मुझे याद है
तेरे वो भी मंजर
जिस वक़्त तू बहुत अकेली थी
तेरे हुज़ूर में बहने वाले हवाओं
में नमी थी
वक़्त बेवफ़ा और तकद्दीर तेरी
खफ़ा थी
ऐसे में मैं आया
तुझको संभाला गले से लगाया
और फिर तुमने यूँ ही संग रहने का
मुझसे वादा करवाया
सब याद है
कुछ भुला नहीं हूँ

मुझे याद है
कभी मेरे घर में
हम और तुम रहा करते थे
तेरे सपने मेरे ख़्वाब
हसींन पल बिताया करते थे
आज सब बिखर चूका है
तू दूर चली गई है
मुझसे परेशान हो गई है
न जाने तू किस सफर को निकली थी
किस सफर में खो गई है
खैर
तेरे संग होने पे भी
तेरी ही याद आती थी
तेरे संग न होने पे भी
तेरी ही याद आती है
तू भूल गई
मैं तेरी हूँ
तेरी ही रहूँगी
तेरा ये कहना पर मुझे
सब याद है
कुछ भुला नहीं हूँ ..!!

Tuesday, November 11, 2014

तू इश्क़ मेरे में नदी बन जा !!

तू इश्क़ मेरे में नदी बन जा बहने को समुन्दर तक
जो प्यास जगी है सीने में बुझ जाये फिर अंदर तक

न रह जाये पीर सीने में इश्क़ का तेरे मेरे अंदर तक
कुछ यूँ मिल के सुकून दे जाए तू दिल के अंदर तक

न कोई कस्ती ढूँढ़े हमदोनों फिर किसी मंजर तक
बाँहें थामे संग कुछ यूँ निकल जाये दूर अम्बर तक

तू इश्क़ मेरे में नदी बन जा बहने को समुन्दर तक
जो प्यास जगी है सीने में बुझ जाये फिर अंदर तक

Friday, November 7, 2014

ज़िंदगी, ज़िंदगी


मेरे नाम को
भूली मेरी ज़िंदगी
मेरे रात को
भूली मेरी ज़िंदगी
मेरी सुबह को
भूली मेरी ज़िंदगी
मेरे ख्यालों को
भूली मेरी ज़िंदगी
मेरे सपनों को
भूली मेरी ज़िंदगी
मेरे अपनों को
भूली मेरी ज़िंदगी
मेरे दर्द को
भूली मेरी ज़िंदगी
मेरे ख़ुशी को
भूली मेरी ज़िंदगी
मेरे ग़म को
भूली मेरी ज़िंदगी
मेरे अहम को
भूली मेरी ज़िंदगी
मेरे अमीरी को
भूली मेरी ज़िंदगी
मेरे गरीबी को
भूली मेरी ज़िंदगी
टुटा तारा आसमान से
दुआ को
भूली मेरी ज़िंदगी
थी किस गम में
किस रंजिश को
भूली मेरे ज़िंदगी
कटोरे में थी चाँद
आसमान को
भूली मेरी ज़िंदगी
ज़िंदगी, ज़िंदगी
जब सोचा नहीं अब क्यों सोचता हूँ
क्या पास रहा क्या नहीं रहा
यादों पे सर रख के
जब वक़्त और वक़्त गुजरता रहा
ये आवारा ख्याल आता रहा
जिस डोली को पहुँचाना था
उसको ही कहार क्यों लूटता रहा
क्यों इश्क़ रातों को घूमता रहा
क्यों भूख मज़ारों में सोता रहा
क्यों रोटियाँ बिकती रही
क्यों अन्दर का मेरे बच्चा बिलकता रहा
क्यों कुत्ता भोंकता रहा
क्यों परिंदा उड़ता रहा
क्यों समुंदर शोर करता रहा
क्यों नदी शांत बहती रही
ख़ैर छोड़ो ज़िंदगी तुमको इनसे क्या
जब से भूख चीख़ के सोता रहा
मजार पे इश्क़ के
उस दिन से क्यों डिबरी जली नहीं
डेहरी पे किसी गरीब के
क्यों लुटते रहे लोग अपने ही करीब के
क्यों कोई बसाते रहे घर रकीब के
क्यों मेरे नाम को भूली मेरी ज़िंदगी
क्यों मेरे दर्द को भूली मेरी ज़िंदगी ...