Friday, September 27, 2013

कभी - कभी ...



मेरे वो प्रेम में दिए
तोहफे और ख़त जैसे सारे दस्तावेज
संभाल के रखना
जिसको तुम अक्सर रातों को
अपने तन्हाई में देखा करती थी
खुद को भूल फिर मेरे ख्यालों में
रातों को जगा करती थी

कभी कभी रह रह कर
उन विरहा की काली रातों में
मेरे में भी बदन में सिहरन हो उठता था
मैं तनिक हैरान नहीं होता था
तुरंत ही समझ जाता था
तूने ज़रूर आज फिर
मेरे दिए दस्तावेज का धुल झटका होगा
अपने सूक्ष्म भावनाओं
की नग्न वेदना की तपिश में
सोम्य हाँथों से स्पर्श किया होगा

पर
इस स्पर्श की अनुभूति
जितना मुझे तेरे यादों में धकेला था
इनसे कहीं जादा
तुमको इसके गहराई में उतारी होगी
ये तो तय है ..

क्योंकी
उन तमाम रातों को
चाँद आसमा से ओझल रही
मैं और मेरी आँखें टकटकी लगा के
सारी रातें उन्हें बादलों में खोजता रहा
पर वो नहीं मिली
आज एहसास हो रहा
उन्हीं बातों का
की वो आसमा का चाँद कोई और नहीं
तेरा ही एक स्वरूप था ..

जो हर रातों को
अपने प्रकाश के सहारे मुझसे
मिला करती थी
मेरे बदन से लिपट कर
तेरे साथ होने का एहसास दिया करती थी
भले ही कुछ नहीं बोला करती थी
पर उस समय वो एहसास मात्र ही काफी
होता था मेरे लिए
सारे दिन का थकान मिटाने के लिए
शायद
तू भी इतना ही चाहती थी
तभी तो उन दिनों मुझे भी
रातों को खुले आसमा के निचे
सोने की आदत सी हो गया था

लेकिन
आज फिर आसमा में
जब तुझको नहीं देख रहा हूँ तो
अच्छा सा लग रहा है
क्योंकी
रोज मिलते रहना ही प्रेम नहीं है
कभी कभी पुराने तोहफे और ख़त
जैसे दस्तावेज से धुल झटकना
भी प्रेम है ...

तेरे मुँह से ही सुना था
तेरा हर तोहफे ..
तेरे हर ख़त जैसे दस्तावेज को स्पर्श करना
मुझे तेरे बदन के स्पर्श की अनुभूति देती है,

सत्य था तेरा वो कहना ..
आज मैंने भी वही किया है ..

Thursday, September 26, 2013

सोच रहा हूँ इतना ...



सोच रहा हूँ इतना तेरे नाम के आगे क्या लिख डालू
हर्फ़ लिखू हलंत लिखू या कोमा रख यूँ ही छोड़ डालू

तुम पढ़ ले हर शब्द को मुझसे ऐसा कुछ कर जाऊँ
साँसें रख तेरे हाँथों में संग दूर तेरे कहीं निकल जाऊँ

तू देखे मुझको और मैं देखू तुझको इतना बदल जाऊँ
पा के प्यार सागर सा प्यार की परिभाषा बदल डालू

है मुझे थमना नहीं तेरे प्यार में कहीं ये भी कह डालू
कागज़ की कस्ती बना तेरे संग खुद को दूर बहा डालू

रख के ख्याल तेरा तुझमें मुक्म्वल इतना हो जाऊँ
खुद की सिसकियाँ को भूल तेरे हर गम निगल डालू

सोच रहा हूँ इतना तेरे नाम के आगे क्या लिख डालू
हर्फ़ लिखू हलंत लिखू या कोमा रख यूँ ही छोड़ डालू

Friday, September 20, 2013

अर्जिया भरे ख़त ...



यूँ ठंडे बस्ते में न डाला करो
तुम मेरी अर्जियों को
वक़्त बेवक्त निकाल के
पढ़ लिया करो कभी
हम प्रेम करते है तुमसे
तभी तो लिखते रहते है
ये अर्जिया भरे ख़त तुमको ..

जिसको कभी मैं
रातों को जग
जुगनुयें पकड़ के लिखता हूँ,
कभी अहीर भेरवी के सुबह में
पँछियों के शोर के संग लिखता हूँ,
कभी साँझ के सिंदुरी आलम में
सूरज के डुबकी के संग लिखता हूँ,

और
न जाने कैसे कई
नजारों के संग
जिसकी तुमने कभी ताबीर नहीं की होगी
ऐसे मंजरों के संग लिखता हूँ,
और तुमने
उन सारे खतों को
यूँ रख छोड़ा है ...

मेरी बात मानो
आज अपनी व्यस्त ज़िंदगी से
वक़्त निकाल के पढ़ो
मेरे उन खतों को ..

देखना तेरा रोम-रोम
न सिहर उठे तो कहना
अगर तेरे अंदर प्रेम की वही
लालसा न जगी तो कहना,
क्योंकी मैंने इनमे
रखे एक एक एहसास में
तुझको महसूसा है
फिर अर्जियां लिखा है,

बस
पढ़कर महसूस कर
स्वीकार लेना ...

मैं और मेरा प्रेम
यूँ ही निर्जीव से सजीव हो जायेंगे ...

Thursday, September 19, 2013

काश .... !



बहुत ही भोली हो तुम
जो आज भी
मेरे दिल को नहीं समझती हो
मैं वही मगरूर सा आशिक़ हूँ
मेरा पेशा भी वही है
एक चित्रकार का
जो दुनिया के लिए तस्वीरें तो बनाता है
पर खुद के लिए कभी कुछ नहीं करता
तुम खुद भी उसी तस्वीरों की एक उपज हो
जिसे मैंने खुद के दिल के
सूक्ष्म रंगों से सजाया था
ताकि दुनिया तेरे वजूद को
हर रंगों में ढाल के अपना सा महसूस कर सके

मुझे पता है
मैं एक हद तक
सफल हुआ हूँ
अपने इस चित्रकारी में
पर एक सत्य ये भी है की
मैंने जब तेरी तस्वीर बनाई
तब से तुझे प्यार कर बैठा हूँ
अपने मगरूरपन को ताक पे रख कर

मैंने फिर हर दिन घंटों बीता के
तुझसे न जाने क्या-क्या बातें की
और तुम चुपचाप उसे सुनती रही
मुझे लगता था
तुम मेरा इतना प्रेम देख
मेरी बातें सुन
खुद ही बोल पड़ोगी
पर कई अरसे बीत गये
तुम न बोली

और
मैं अपने मगरूरपन में
तेरी वही तस्वीर बेच डाली
अब खल रहा है मुझे
अपना यही मगरूरपन
जब तुम दूसरों का हो गई हो
कोई दूसरा तुमपे अपना अधिकार
जताता है

काश !
तुम मुझे समझ पाती
और उस वक़्त बोल लेती
फिर आज हम ऐसे नहीं होते
अपने ही रंगों से खुद को रंगा हुआ
महसूस करते  ..

खैर छोड़ो  .. तुम्हें क्या .. !!

Wednesday, September 18, 2013

तू चली आ ...



तुम क्यों नहीं
चली आती हो
इस कटीले बार के
इस पार
जहाँ मेरे निगाहों का
ठहराव बसता है
जहाँ एक लगन से
मेरा प्रीत
तेरा इंतजार करता है
साँझ के सिंदूरी आलमों से
करके लड़ाई
रातों को मेरा दिल जगता है

और क्या क्या
मैं बताऊँ तुमको ..

जो तुम ही तो कहती रहती हो
मैं तुमको खुद से जादा जानती हूँ

फिर क्यूँ ..
मेरे बिस्तरों पे
मेरे अकेलेपन की सिलवटें
रोज सुबह को मिला करती है
तकियों के रुइओ से
मेरे आँसुओं की बू आती है
क्या यहाँ भी तुमको
मेरे लेखन कला का नाटक दीखता है

अगर ऐसा है तो
मैं और खुद के बारे में लिख नहीं पाऊँगा
तुमको खुद आके
मेरे प्रेम को परिभाषित करना होगा
और साथ ही
मेरे दिल को दिखाना होगा
जैसे मैं बेचैन हूँ
जीवन के इस कटीले बार के
इस पार
तू भी इतना ही बेचैन है उस पार

अब देर न कर
तू चली आ ..

अधीर मेरे साँसें
मेरे सीने को कोसती है
तेरे विरहा की अग्नि में ...

Tuesday, September 17, 2013

तुम्हें क्या ...



मैं एक गंवार था
दुनिया के
तोर - तरीके का चलन
मुझे नहीं आता था
मुझे तो ये भी नहीं पता था
की मैं क्या हूँ ...?

फिर
एक दिन यूँ ही
मुझे तू मिल गई
तुमने मुझको देखा समझा
और अपना बहुत सारा स्नेह दिया
शायद तुमने मुझमें छुपे
सादगी को जो देख लिया था मुझसे मिलकर,
वक़्त और आगे बढ़ा
धीरे- धीरे हम रोज
मिलने लगे
फिर क्या था
तेरा साथ और स्नेह पा के
मैं बहुत जल्दी ही बदल गया
एक सभ्य और सुलझा हुआ इंसान
बन गया,

पर
यूँ रोज मिलते मिलते
मुझे तुझसे प्रेम हो चला था
और मेरे अंदर हुए बदलाव के लिए
मैं तुझे कुछ तोहफा देना चाहता था
जिसे तूने लेने से इनकार कर दिया था
ये कह कर दोस्ती में
ऐसा नहीं होता है
ये सुन मैं बेहद खुश हुआ

फिर क्या था
मैंने एक रोज हिम्मत करके
तुझे आखिर बोल ही डाला
की .. मैं तुम्हें प्रेम करने लगा हूँ
जिसे सुन तुम सबसे पहली हंसी
फिर बोली
तुम बहुत देर कर दिए हो
मैं किसी और की हो चूँकि हूँ
उस समय मैं शब्दवान होके
भी निःशब्द हो गया
तेर बात सुन
जैसे मानो आसमान की सारी बिजलियाँ
मुझपे गिड़ आई हो
लेकिन खुद को संभाल कर
अगले क्षण मैंने तुझसे
हँस के झूठ बोल डाला
अरे ये तो मैं मजाक कर रहा था तुमसे
शायद फिर तुम्हें मेरी ये बात सुन
राहत मिली ..

पर सत्य तो यही था
मैं तुझसे प्रेम करने लगा था
तेरा मेरे प्रेम को यूँ ठुकराना
मुझे फिर से
जैसे वहीँ लाके खड़ा कर दिया था
जहाँ से मैं चला था
एक गंवार बनके ..
और आज तुमको न पाके
दिल के हाँथों फिर से गंवार बन गया

खैर छोड़ो .. तुम्हें क्या .

Tuesday, September 10, 2013

मुबारक हिना ...



तेरे हाँथों में 
आज भी जिन्दा हूँ .. कैसे, 
मुबारक हिना के 
खुशबू से पूछ लेना 
जो यकीं न हो तो ..

तेरे हाँथों के सुर्ख रचे
गोटे से निकल के 
सरल वरन 
पर कथित मेरा ही संवाद देगा 
ये हिना ..
जिसके सुर्ख रंगों के देख 
तेरे आँखों में एक सवालिया 
बीज पनपता था हमेशा 

क्या .. सच में 
ये हिना के गोटे  की लाली 
तेरे अकूट प्रेम की निशानी है ...

जवाब होगा वही जो 
तेरा दिल चाहता है .. हाँ 

तनिक हैरान होगी 
पर सुर्ख पड़े रंगों की लाली 
देख .. अवश्य ही तुझे 
यकीं हो जायेगा 
तेरे हाँथों के हिना का भी 
नाता मुझसे ही है ...