Sunday, August 30, 2015

“तारकोल का चोर” (कहानी).



कहीं धरती हमेशा उबलती है, कहीं आसमां हमेशा झुकता है। कहीं भूख हमेशा सोती है, कहीं रोटी हमेशा लड़ती है
यह सच है, भूख जब चरम पर पहुँच जाती है तो हर प्राणी अपनी भूख के लिए लड़ता है, अपनी  रोटी के लिए लड़ता है। कई बार ये लड़ाई मानवीय और अमानवीय दोनों तरह की हो जाती है।
मधेपुरा, बिहार का एक ऐसा जिला, जो जिला तो है मगर उसको पूरी तरह से जिला बनने में अभी बहुत वक़्त लगने वाला था। रेलवे स्टेशन से शुरू होता शहर कॉलेज चौक पर आकर ख़त्म, दो किलोमीटर में पूरा शहर। तमाम स्कूल कॉलेज, सरकारी दफ्तर, बाजार इन्हीं दो किलोमीटर के दायरे में थे। सन १९९० की बात है, मई दोपहर की उफनती गर्मी में शहर के बीचोबीच पीडब्लूडी ऑफिस के मेन गेट पर बड़ी तादाद में लोग इक्कठे हुए और जम कर नारेबाजी करने लगे। मौज्मा गाँव को शहर से जोड़ो, शहर से जोड़ो, शहर से जोड़ो पक्की सड़क बनवाओ, सड़क बनवाओ, सड़क बनवाओ। उस वक़्त पीडब्लूडी चीफ़ इंजिनियर ने उस भीड़ को यकीन दिलाते हुए कहा जल्द से जल्द सड़क बनवा दी जाएगी, हमे सरकार के भी आदेश मिल चुके है। देरी हो रही है तो सिर्फ तारकोल की वजह से, जैसे ही हमें तारकोल मिल जायेंगे, मौज्मा गाँव को मुख्यालय आने वाली पक्की सड़क से जोड़ दिया जाएगा
यह आश्वाशन नेताओं के तरह तो नहीं थे और न ही सड़क बनवाने की माँग, किसी पार्क या सौंदर्यी करण की थी। यह उस गाँव की मूलभूत जरुरत और वहाँ के जनता का वाजिब हक़ था। जिसे पीडब्लूडी चीफ़ इंजिनियर ने बड़े ही गंभीरता से लिया था।   
कुछ महीने दिन बाद सड़क बनाने का काम शुरू हो गया। मगर यह काम ज्यादा दिन नहीं चल पाया। रोज-दिन तारकोल की कमी के कारण काम रुक जाता। एक बार फिर जब ग्रामीणों ने बबाल काटा तो चीफ़ इंजिनियर ने कहा अब काम तब ही शुरू होगा, जब तक हमें पूरा तारकोल नहीं मिल जाता। तारकोल हमें जैसे-जैसे आगे से मिलेंगे, उसे आपके गाँव में भरोसे के तौर पर रखवाते जायेंगे। जिस दिन प्रयाप्त मात्रा में तारकोल इकठ्ठा हो जायेगा, काम पुनः शुरू कर दिया जायेगा
फिर क्या था, चीफ़ इंजिनियर के कथानुसार मौज्मा गाँव के बाहर चिकनी पोखर के पास तारकोल जमा होने लगा तारकोल जमा तो हो ही रहे थे मगर जमा किये गये तारकोल के ड्रमों में से कुछ ड्रम धीरे-धीरे गायब भी होने लगे। जब यह बात पीडब्लूडी के चीफ़ इंजिनियर को पता चली तो उन्होंने शत्रुघन और राम खिलावन नाम के दो चौकीदार रखवा दिए। उन्हें लगा शायद कोई छोटा मोटा चोर या गाँव के आवारे लड़के होंगे, जो अपने पॉकेट खर्च के लिए ऐसा करते हो। ऐसे में जब तारकोल की रखवाली शुरू होगी तो वे ऐसा नहीं कर पाएंगे। 
चौकीदार रखने के बाद अब तारकोल की चोरी होनी लगभग बंद हो गई थी। मगर फिर भी कभी-कभी कुछ न कुछ ड्रम गायब हो ही जाते। उस दिन शत्रुघन और रामखिलावन को बुला कर चीफ़ इंजिनियर ने खूब डांट-फटकार लगाईं तुमलोगों को तारकोल के ड्रमों की निगरानी करने के लिए रखा गया है, न की रात को सोने के लिए इस डांट के बाद भी उस रात वे दोनों बड़े गुस्साए मन से तारकोल की रखवाली कर रहे थे।    
ये  वक़्त भी बड़ी अजीब है। एक तो, है भी ढाई आख़र की और चाल भी टेढ़ा, बिलकुल उ शतरंज के घोड़ा के माफ़िक। देखो कहाँ लाके पटक दिया है हमको। कितना निमन से थे अपने गाँव में, सुबह, शाम, या रात, कोनो बेला अकेले नहीं रहते। कोई न कोई हमेशा संगे रहता, फिर उ चाहे माल-जाल ही काहे न हो और आज इहाँ, न आदमी, न आदमी का जात, बस लाठी थमा दिए है और भगाते रहो भूत को, जेकर कोनो अता पता नाही। इ भी साला कोनो नौकरी है छेssssssssssssss........
जरूरतें हम सब से वो करवा लेता है जो हम करना नही चाहते, पर हकीकत तो दिल ही जानता है उन जरूरतों को पूरा करने के लिए, हमें किन हालातों और दौर से गुजरना पड़ता है। कुछ तो चुप्पी साध के सह लेते है और कुछ अल्फाजो में अपना दर्द कह जाते है। कभी क्या ठाट थे शत्रुघन के भी, और आज सर्द की इस अकेली रात में अपने आज को डंडा मारता हुआ, अतीत की सुख अग्नि में मन को धधका रहा है। जिससे उसे कुछ तो अभी के अकेलेपन से मुक्ति मिल जाए। लगता है उसके अकेलेपन की पुकार उसके साथी ने सुन ली, जमीन से पूछ-पूछ कर डंडा पटकता हुआ राम खिलावन शत्रुघन के पास आकर अरे शत्रुघन अकेले में का बडबडा हो भाई?
अरे राम खिलावन भाई आवा, आवा। का बताये ससुरी ठंड को भी साय लग गया है। सारा जलावन धुक दिए मगर हाड़ से कंपकंपी जा ही नहीं रहा। बिहान तक बच गये, तो समझेंगे माई ने जितिया अच्छे से की थी। 
हाहाहा ... सही कह रहे हो शत्रुघन। आज तो वाकई में बड़ी ठंडी है। हमको लगा तुम आग जला रखे होगे, इसलिए आ गये थोड़ा गरमाने मगर तुम तो ...
चिंता नाही करो भाई, अभी आग धधका देते है
शत्रुघन ने बुझती हुई आग में प्राण फूंकने के लिए, थोड़े सूखे पत्ते और टहनियाँ पास पड़ी बोरी से निकाल कर रखा और फूंक मारते हुए बोला, इ बताओ भाई, इ चौकीदारी हमलोग कब तक करते रहेंगे ??
जब तक तारकोल का चोर पकड़ा नहीं जाता। 
चोर का नाम सुनते ही गुस्से से तमतमा गया शत्रुघन कसम से राम खिलावन भाई, इ चोर जोन दिन धड़ाया न नरेट्टी दबा देंगे हम
जब भी गाँव का कोई आदमी शत्रुघन के सामने तारकोल के चोरकी जिक्र करता, वो यूँ ही आग बबूला हो जाया करता। एक बार तो उसने माधो चमाड़ का गिरेहबान पकड़ लिया था, जब उसने सिर्फ ये कहा जाय दो शत्रुघन भाई, उ चोरो त एगो आदमी है न। वैसे भी उ सरकारे का धन चुराता है, हमरा और तुमरा नहींइहाँ बात सरकार की नाही है, हमरी इज्ज़त की है और उ चोर का पक्ष लेने का कोनो जरूरत नाही। शत्रुघन के लिए तारकोल की रखवाली एक इज्ज़त बन चुकी थी और वो अपने इज्ज़त के लिए कहीं समझौता नहीं कर सकता था।       
राम खिलावन नरेट्टी दबा देंगे वाली बात पर हँसते हुए कहा हाहाहा, शत्रुघन भाई तुम बड़े मजाकिया हो
का मजाकिया है, हम अपना क्रोध चोर के लिए दिखाए और आपको मसखरी लगा। अजीब तो नहीं पर अजीब के आस-पास का शख्स था शत्रुघन, पल में हँसता और पल में गंभीर हो जाता। आप का जाने हमरे दर्द को कार्तिक महीना में एक जोड़ी बैल ख़रीदे उहो मुखिया से कर्जा लेकर। सोचे हर बोह कर थोड़ा पैसा कमा लेंगे मगर हराशंका किस्मत देखिये। दुए महीना में दोनों बैल मर गया। सर पर कर्ज आ गया अलग मुखिया का भी तगादा रोजे आना लगा सो अलग, का करते शहर आ गये सोचे इहाँ कुच्छो काम करके पैसे कमा लेंगे और कमाए पैसे से मुखिया का कर्जा चूकाय देंगे पर इहाँ तो पैसा कमाना, इतना आसान नाही है। शेर के मुँह से खाना निकालने वाला कहावत सुने है ठीक वैसने मुश्किलों भरा है
बड़ा दुःख हुआ सुन कर शत्रुघन भाई, हमे लगता था आप यह नौकरी टाइम पास के लिए करते है। मगर आप तो बहुत परेशान है। ऐसा कीजिये आप जब तक अपने जीवन का लेखा-जोखा कीजिये, हम तब तक एक चक्कर मार के आते चिकनी पोखर का है, आज आपकी भौजी ज्यादा प्यार से खिला दी। राम खिलावन के जाते ही शत्रुघन ने भी सोचा एक बार तारकोल के डिब्बो की गिनती कर आये। 
डंडे को जमीन पर पटकता गुनगुनाते हुए आगे बढ़ा बीती न बितायी रैना, बिरहा की जाई रैना। तारकोल के ड्रमों के पास पहुँचकर अपने तीन सैलिया टौर्च की मरी हुई रौशनी में दुय-दुय चार, चार-चार आठ, आठ-आठ सोलह, सोलह छाके छियानवे और इ दुय,अट्ठानबे हो गये पुरे। वापस आते हुए, उसके जेहन में गिनती पूरी होने की ख़ुशी के साथ एक सवाल भी था चोरवा तारकोल का आखिर करता क्या होगा, जलावन तो है नहीं जो जलाय लेता होगा, और नाही कोनो बेचने वाला समान, फिर काहे ऐसा करता है समझ नहीं आता, जोन दिन धरायेगा तो जरुर पूछ लेंगे आखिर ससुरी करता क्या है
छह महीने से लगातार चल रही तारकोल की पहेदारी में शत्रुघन का गाँव वालों से इतना लगाव हो गया था कि उन लोगों ने उसके लिए बांस की बल्लियों का एक मचान बना दिया था। जिसमें पूस की रातों में खुद को महफूज़ रख सके और रात बिरात में कुछ देर सुस्ता सके। शत्रुघन आकर अभी उसी मचान पर बैठा ही था कि चिकनी पोखर वाले हनुमान मंदिर से घंटा बजने की आवाज़ आई इतने रतिया में इ गाँव में बजरंगबली का कौन भक्त जग गया भाई, कलाई पर बंधी एचएमटी की घड़ी पर टौर्च जला कर देखा तो साढ़े बारह का वक़्त हो रहा थाजो आग राम खिलावन के आने पर धधकाई, वो भी अब बुझ चुकी थी। जैसे-जैसे रात गहरा रही थी ठंड और बढ़ती जा रही थी। रही सही कसर बची हवा ने पूरी कर दी। दूर खेतों से गेहूँ के बालियों को छूकर आने वाली ठंडी हवा शत्रुघन को जब छूती तो उसे अपने अम्मा की यादों के आँचल में पहुँचा देता। कैसे अम्मा के साथ रातों को वो अपने गेहूँ से बालियों से लदे खेतों की रखवाली करने जाता था। जुगनू को पकड़ कर माँ के आँचल में रखता और कहता माई, टौर्च की कोनो जरुरत नाही पड़ेगा, हम अहि रौशनी में खेत ओगर लेंगे और माई हँसते हुए कहती बेटा, एक्कोगो जुगनू मर गया न तो पाप लिखेगा, इहो एगो जीव है छोड़ दे इसे और जब माँ के कहने पर शत्रुघन उसे छोड़ता तो वहीँ जुगनू पुरे खेत में मंडरा कर रौशनी फैला देते। पर आज यादों की वो गर्माहट भी बेअसर थी।
ठंड से बचने के लिए अम्मा की आखिरी निशानी वाली शौल से खुद को ढँकने की मशक्कत करता पर बार-बार नाकाम हो जाता। एक तो शौल छोटी उपर से वक़्त ने उसपर गरीबी की बड़ी-बड़ी सुराक बना रखे थे।
बुझाता है आज माई भी हमे नहीं बचा पायेगी, हे बजरंगबली तुम ही कछु करो
मचान पर करवटें लेते खुद को ढँकने की नाकाम कोशिश कर ही रहा था कि इस बार हनुमान मंदिर से उसे एक तेज़ रौशनी आती दिखाई दी, जैसे वो रौशनी उसे इशारा कर रही हो, उसे बुला रही हो? इ राम खिलावन भाई भी गजबे है। बोलकर तो गये कि चिकनी पोखर जाते है मगर इतनी रात को मंदिर में का कर रहे है और हमको इशारा काहे दे रहे है? कहीं उ कोनों मुसीबत में तो नाही है, हे बजरंगबली का हो रहा है इ, पहले घंटा बजने की आवाज अब इ रौशनी, कोनो बात तो है जरुर, लगता है देखे ले जाय पड़ेगा
एक शंका के साथ उसके जेहन में एक डर भी गहराने लगा था। कहीं सत्तो का उ गंधर्व वाली बात तो सच नाही है, की जब रतिया में चाँद मस्तक के उपर होता है तो इस चिकनी पोखर में गंधर्व आकर नहाते है और फिर वे बजरंगबली की पूजा करते है। बाप रे कही सत्तो का बात सच हुआ तो अरे नाही उ साला गंजेरी है, अल-बल ऐसे ही बकता रहता है। उ जरुर राम खिलावन भाई होंगे, जाकर देखते है और अभी पूछते है का बात है ???
सत्तो से दोस्ती रामखिलावन ने ही करवाई थी अभी कुछ हफ्ते दिन पहले। सत्तो मौज्मा गाँव में अपने छोटे परिवार के साथ रहता है, दिन में साईकिल पर बर्तन-हांडी बेचकर अपने परिवार का गुजारा चलाता और शाम में वक़्त गुजारने के लिए इसी मचान पर आ कर बैठ जाता। जहाँ राम खिलावन और सत्तो चिलम पर चिलम सुलगाते। धुएं के हर कश पर जब सत्तों की आँखें छोटी होकर लाल हो जाती तो ऐसी ही बातें करता।
शत्रुघन डंडा पिटता हुआ मंदिर के करीब पहुँच कर आवाज़ लगाई राम खिलावन भाई लेकिन उधर से कोई जवाब नहीं आया। जवाब नहीं आने पर शत्रुघन की हिम्मत लड़खड़ाने लगी। सत्तो की बातें याद आने से उसके मन में एक डर घर कर गया था। डरते-डरते मंदिर के अन्दर टौर्च की रौशनी डाली तो वहाँ कोई नहीं दिखा इहाँ जब कोई नाही है फिर उ रौशनी कौन दिखाया था, बाप रे कहीं सचमुच में गंधर्व तो नाही था। शत्रुघन को मिली नाकामी उसके चेहरे पर डर बनके झलकने लगी। वो दम साधे वापस मुड़ा और तेज़ डग भरते हुए मचान के तरह हो लिया। अभी कुछ कदम बढ़ा ही था कि मचान के पास बुझी आग से लपटे उठनी लगी। उन आग की लपटों को देखकर उसकी सारी हिम्मत हिल गई। हे बजरंगबली इ का हो रहा सब और फिर अरे नाही, सब ठीक है, उ राम खिलावन भाई होंगे उहाँ, उनको ठंड लगी होगी तो आग जला लिए होंगे, मगर उहाँ तो कोई बैठा नाही दिख रहा है।
शत्रुघन अजीब कशमकस में फँस गया था जो आँख से देख रहा था उसे अभी झुठलाता और कभी खुद पर हावी कर लेता डर की परिस्तिथि में हर इंसान की कमोबेश ऐसी ही हालत होती है जो अभी शत्रुघन की हो रही है उसे बचपन की अम्मा की कही बात याद आ गई जोन बखत तुमपर कोनो संकट आये या डर लागे और ऐसन बखत में तुमको कुछो समझ नाही आये तो बजरंगबली का पाठ करने लगो, देखना तुरंते तुमरा सारा संकट छू मंतर हो जायेगा अब उसके होंठ पर हनुमान चालीसा के श्लोक थे जय हनुमान ज्ञान गुण सागर, जय कपिश तिहूँ लोक उजागर
आज माँ उसके साथ पहले से नहीं थी, इसलिए उनकी शौल से लेकर कही बातें निरर्थक हो रही थी। हनुमान चालीसा के पाठ करने के बाद भी आग बना वो दानव धधक रहा था और हाँथ में थमा बड़ा डंडा बचपन के खेल वाली गिल्ली-डंडा से भी ज्यादा छोटा नजर आ रहा था। ऐसे में डर के शत्रुघन इस विशाल दानव को अपने छोटे से डंडे से कहाँ तक फेंक पाता।     
मचान के पास पहुँच कर चारो ओर देखा तो वहाँ कोई नहीं था सिवाय धधकते आग के। अब तो शत्रुघन के चेहरे पर इतने ठंड में पसीने भी उतर आये, कि तभी धड़ाम से तारकोल के ड्रमों की गिरने की आवाज़ आई, साथ ही किसी के कराहने की भी।
बुझाता है चोर आया है और बेसुध उस आवाज़ की ओर दौड़ लगा दी। हर दौड़ते क़दमों के साथ उसे अपनी आखिरी हिम्मत दिख रही थी। मन में खौफ़ और शंका की ऐसी धुंध जमने लगी थी जो तारकोल के ड्रमों के पास कुछ और उल्टा-पुल्टा होता तो ये धुंध सुबह के पहली रौशनी में ही हटती।  
तारकोल के ड्रमों के पास पहुँचकर जो उसने देखा, उससे हैरान और परेशान दोनों कर गया, सत्तो
एक तारकोल के ड्रम के नीचे दबा हुआ था सत्तो, उसे एक औरत और तीन छोटे-छोटे बच्चे तारकोल के ड्रम के नीचे से निकालने की कोशिश कर रहे थे।
अरे सत्तो, तू इहाँ, कर का रहा है??? और इ ड्रम के नीचे कैसे आ गया???
शत्रुघन ने सत्तो को देखते ही सवालों की लड़ी लगा दी थी। तारकोल से भरे ड्रम के वजन के कारण सत्तो की टांग टूट गई थी और जिसके कारण वो दर्द से बुरी तरह कराह रहा था। शत्रुघन ने उस औरत और बच्चों की मदद से सबसे पहले सत्तो को बाहर निकाला। शत्रुघन ने ड्रम से थोड़ी दूरी पर लाकर सत्तो को बैठाया ही था कि औरत छूटते बोली “हमको जाने दीजिये हम चोर नाही है”।
गजब आदमी है महराज आपलोग भी, हम इ कब बोले की आप चोर हैं
दर्द भरे आवाज़ में सत्तो बोला हमलोग ही तारकोल के चोर है शत्रुघन भाई
तारकोल के चोर ये वो शब्द थे, जो शत्रुघन को क्या-क्या नहीं करवा दिया था। कभी कुछ देर पहले इसी तारकोल की रखवाली के चक्कर में एक डर तो उसकी जान निगलने वाला था। बिना कुछ समझे बुझे उसने गुस्से से उसका गिरेहबान पकड़ कर कहा पूरा परिवार मिलकर चोरी करता है, आज धडाया है, दिन में बर्तन हांडी बेचता है, साँझ में गंधर्व का खिस्सा सुनाता है, और रतिया में चोरी-चकारी, उहो विथ फैम्लिज, काहे रे पाखंडी ऐसन काहे करता है???
इसी सवाल का जवाब तो शत्रुघन तब से जानना चाहता था, जब से उसने यहाँ चौकीदारी शुरू की थी। 
इस दफा जवाब सत्तो ने नहीं उसकी औरत ने रोते हुई दी साहिब, इ सब हमलोग पेट के खातिर करते है
त का तुमलोग तारकोल खाते हो??? शत्रुघन के सवाल हास्यापद तो जरुर थे मगर उस परिस्तिथि के लिए जायज थे।
नाही साहिब
फिरो तारकोल का, का करते हो तुमलोग??
साहिब तारकोल को खाते नाही है, हमनी लोग इ राक्षस को मिट्टी के निचे गाड़ देते है
पर ई से का फ़ायदा तुमको मिलता है, औरों इ राक्षस कबे से हो गया
साहिब फायदा अहि की सड़क नाही बनेगा और जब सड़क नाही बनेगा तो इ राक्षस हमरे छोटे से परिवार का मुँह का निवाला नाही छिनेगा
औरत की इस जवाब ने शत्रुघन को चौका दिया था, फिर भी खुद की तसल्ली के लिए उसने पूछा का मतलब”??
औरत फफक-फफक कर रोने लगी थी, सत्तो के दर्द और कराह ने उसे ओस की गीली घासों पर बैठा दिया था। और अर्धनग्न बच्चे इस दानवी ठंड में एक गर्म आस की राह तक रहे थे शत्रुघन की ओर देख कर। शत्रुघन अब तक सत्तों के गिरेहबान को उसी क्रूर अंदाज में पकड़े हुए था जैसे माँ के आँचल में जुगनुओं को पकड़ कर रखता था।
रोते हुए सत्तो की बीबी बोल पड़ी थी साहिब सड़क नाही रहने से सत्तो दिन में आस-पास के गाँव में बर्तन-हांड़ी सायकिल पर रख कर बेच लेता है। जेकरा से हमार दो बखत का चूल्हा चल जाता है, अगर अहि सड़क बन जायेगा तो सब शहर जाकर ही बर्तन-हांड़ी खरीद लेंगे फिर हमसे कौन खरीदेगा, कहाँ से हमारा चूल्हा जलेगा ??
सत्तो की बीबी के जवाब ने उसके पकड़ को ढीला कर दिया था। हाँ, वो सही कह रही थी आज सड़क नहीं होने के कारण या यातायात के सही साधन के अभाव में गाँव वाले अपनी छोटी-छोटी जरूरतों के लिए बाज़ार नहीं जा पाते है। जिससे उस छोटे से परिवार की जीविका चलती है। ऐसे में अगर सड़क बन जाएगी तो उसके परिवार का क्या होगा, कैसे वो बच्चों की भूख और अपने जरुरतों को पूरा करेंगे? शायद इस सवाल का जवाब शत्रुघन के पास नहीं था तभी तो उसने सत्तो के गिरेहबान को छोड़ते हुए कहा जाओ, आज हम फिरो से कोनो जीव का हत्या नहीं करेंगे। हम तोहनी लोगन को छोड़ते है पर तुम अपनी लड़ाई जारी रखो जब तक सबको इ एहसास न हो जाए कि प्रगति जरुरी है लेकिन इ प्रगति कोनो परिवार के पेट पर लात मार कर नाही। या तो सरकार या समाज तुम जैसे परिवार के बारे में पहले सोचे फिर प्रगति करे फिरो सही मायने में परिवर्तन का धुप सब के देहिया पर फबेगा। वरना इ परिवर्तन और प्रगति सब बेकार होगा।   
मेरी यह कहानी उतना ही बड़ा सच है, जिसे आप और हम कई दफे अपने स्वार्थ के बंद दरवाजे के अन्दर से नहीं देख पाते है। पर सच तो बंद दरवाजे के उस पार भी होता है। और उस बंद दरवाजे के अंदर और बाहर कई ग्रहों का फासला होता है। जेकरा जाने के जरुरत छेय, कोशिश त करा एक्को बार।  


Friday, August 28, 2015

“कभी-कभी ऐसा होता है”



तीन महीने बाद, आज नैना को वो लम्हा मिला था, जो एक जगह कहीं ठहर जाने जैसा था। कॉफ़ी शॉप में कप थामे, उसकी नज़र शीशे के बाहर भींगी शाम के अँधेरे में खुद को उतारना चाहती, तो आसमान में टंगे यादों के काले बादल, उसे रोक लेते। बाहर गिरती बारिश की बूंदों के शोर से नैना का एक ऐसा दर्द जुडा था, जो उसके दिल की सारी मस्तियाँ, सारी जिंदादिली छीन चुकी थी। बच गई थी, तो उसके अंदर सिर्फ एक चुभती हुई ख़ामोशी, एक दर्द। जिससे दूर जाने के लिए, उसने शहर बदला, नौकरी बदली। पर दूर तो दूसरों से जाया जाता है, अपने दिल से, खुद से, नहीं। अर्णव और उसकी यादें भी तो कोई दूसरी नहीं थी |
बारिश की इस शाम ने नैना के उन ज़ख्मों को कुरेद दिया। जिसको दिल्ली आने के बाद वो मसरूफ़ियत से भरने की कोशिश कर रही थी। फोन की घंटी बजी, उठाया तो 
कहाँ हो नैना? पार्टी शुरू होने वाली है
सॉरी अंजलि, मैं नहीं आ पाऊँगी, ऑफिस के बाद बारिश में फँस गई हूँ
पर इधर तो नहीं हो रही
बारिश तो हर वक़्त कहीं न कहीं होती ही है, पर भींगता कोई-कोई।
नैना ने अपने ज़ज्बात को उन लम्हों से जोड़ा तो अंजलि ने सवाल की,
मैं समझी नहीं, क्या बोल रही है तू
वेल लीव दिस, इधर तो बहुत हो रही है, तुम सब एन्जॉय करो, वन्स अगेन हैप्पी बर्थडे टू यू डिअर
सच कहा था नैना ने भींगता कोई-कोई ही है। यहाँ बैठे-बैठे, वो भी तो भींग ही रही थी अर्णव की यादों में, और बाहर बारिश रुक सी गई थी।
कानपूर में वो बरसात का ही तो दिन था। जब नैना कॉलेज से अपनी ऍमबीऐ की डिग्री लेकर, रोहन के बाइक पर सवार होकर भींगते हुए अर्णव के पास पहुँची थी। जिसे अर्णव ने न जाने किन बातों से जोड़ दिया। तुम, रोहन के साथ, वो भी इस हालत में आई हो, क्या है ये? कब से चल रहा है ये सब? अर्णव इतने पर कहाँ रुका था। उसने तो रोहन को भी क्या-क्या कह दिया, उनदोनो की दोस्ती के रिश्ते को गालियाँ तक दे दी तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई, मेरी गर्ल फ्रेंड को अपने बाइक पर बैठाने की। अर्णव  के इस तमाशे ने वहाँ कितने चेहरे को खड़े कर दिए थे, जैसे किसी फिल्म की शूटिंग चल रही हो। नैना को जब ये सब देख जब रहा नहीं गया तो बोली अर्णव क्या हो गया तुम्हें। जिस पर अर्णव चिल्लाते हुए कहा तुम चुप रहो, मैं तुमसे बाद में बात करता हूँ। फिर वो बाद कहाँ, नैना उसी वक़्त वहाँ से चली आई।
यह अच्छी बात है कि सामने वाला possessive हो पर इतना न हो कि possessiveness शक का रूप इख्तियार कर ले। रिश्तों को खाक कर देता  है ये शक। उस दिन के बाद, फिर न कभी नैना ने उससे संपर्क किया और न ही अर्णव ने।
आज तीन महीने के बाद दोपहर में ऑफिस के टेलीफ़ोन पर अर्णव का कॉल आया था, नैना, आई ऍम सो सॉरी, न जाने उस दिन मुझे क्या हो गया था। रोहन के साथ तुमको देखने के बाद। सो प्लीज फोर्गिव मी, मैं आज शाम के फ्लाइट से दिल्ली आ रहा हूँ। मुझे वहाँ जॉब मिल गई है। प्लीज एअरपोर्ट आ जाना नौ बजे। नैना ने बिना जवाब दिए रिसीवर रख दिया।
उसके लिए, जितना अर्णव का कॉल आना सवाल नहीं बना, उतना ये आखिर अर्णव  को, यहाँ का नंबर कहाँ से मिला। दिमाग पर जोर दिया तो याद आया, करीब सप्ताह भर पहले फेसबुक पर उसका रिक्वेस्ट आया था। जिसे उसने अब तक पेंडिंग छोड़ रखा है। शायद वहीँ से मिला होगा। 
घड़ी को देखा तो सात बज रहे थे। वक़्त तो दौड़ रहा था मगर बारिश ने दिल्ली को रोक दिया था। ठहर गई थी दिल्ली पर जो कुछ नहीं ठहर था, तो वो थी, हर बीतते लम्हों के साथ नैना के दिल की बैचैनी। फोन उठा कर एक नंबर मिलाया हेल्लो इजी कैब
यस, हाउ मे आई असिस्ट यू मेम
आई ऍम नैना अग्रवाल ...,
नैना ने पिक्कअप और ड्राप पॉइंट नोट करवाया तो अगले पन्द्रह मिनटों में कैब कॉफ़ी शॉप के बाहर आ कर खड़ी हो गई। नैना के बैठते ही कैब सड़क पर जमे पानी को तेज़ रफ़्तार के साथ हवा में उछालते दौड़ने लगी। वो अपने प्यार को एक ऐसा ही रफ़्तार देने को निकली है, जो तीन महीने से कहीं ठहर गया था। ठहरे पानी में तो काई भी लग जाती है, और वो अपने प्यार को शक की आग में खाक होते हुए भी तो नहीं देखना चाहती।
सीपी से एअरपोर्ट के इस सफ़र में वो बहुत खुश थी। तेज़ रफ़्तार से दौड़ती कैब के विंडो से हाँथ बाहर  निकालती और बारिश बुँदे हंथेलियों पर जमा कर अंदर कर लेती। ये बुँदे उसकी तीन महीने से जाया होने वाले वे आँसू थे। जिसे समेटने का उसे आज मौका मिल रहा था।
एअरपोर्ट पर कैब से उतर कर, वो एरावल के गेट नंबर तीन पर एक फूलों का गुलदस्ता ले कर और खड़ी हो गई, अर्णव के इंतजार में। गेट से एग्जिट करते हुए नैना ने अर्णव को देख लिया था, मगर लोगों की भीड़ में अर्णव नैना को नहीं देख पाया। नैना ने उसे आवाज़ लगाया अर्णव, दिस साइड
नैना को तलाशती अर्णव की नज़रें जब एक जगह ठहरी तो उसे मुस्कुराती हुई नैना दिखी, जिसका उसने कभी दिल दुखाया था। उसकी नज़रे शर्म से झुकी तो नहीं थी पर नैना की प्यार से भरे जरुर दिखे। नैना के सामने पहुँच कर जब उसने अपना सनग्लास उतारा तो लगा अब छलक जायेंगे।
अर्णव के पास आते ही नैना ने फूलों का गुलदस्ता देते हुए बोली वेलकम बेक अर्णव । अर्णव लोगों के भीड़ के सामने नैना से फिर से माफ़ी माँगने की कोशिश की तो नैना ने उसके होठों पर हाँथ रखते हुए आगे बोली मुझे यकीन था, तुम एक दिन आओगे, तुम आये यही काफी है मुस्कुराहटों की शक्ल में अर्णव के चेहरे पर नैना की आत्मविश्वास झलक रही थी। उसके मुस्कुराते हुए चेहरे को देखकर नैना अपना सारा गिला सिकवा भूल चुकी थी। हँसते हुए उसने अर्णव की कान पकड़ी और बोली यार, प्यार में कभी-कभी ऐसा होता है अर्णव भी कहाँ पीछे हटने वाला था उसने आगे बढ़कर नैना को बाँहों में भरा और माथे को चुमते हुए बोला हाँ, यार प्यार में “कभी-कभी ऐसा होता है। फिर तो बिजली की तेज़ करकराहट के साथ पूरी रात बारिश होती रही।     

Friday, June 26, 2015

वापसी .... !!


दिनभर कलरवें करके घर वापस लौटते पँछियों का झुण्ड, धीरे-धीरे गदराता हुआ साँझ, आसमान में पसरी हुई दूर-दूर तक लाली, इन्हें देख कर भले ही अनिमेष को अजीब न लग रहा हो किंतु खार गाँव की  कच्ची सड़क पर दौड़ती उसकी अम्बेसडर कार देखने वाले लोगों को बहुत अजीब लग रही थी अजीब लगे भी क्यों न यह वही सड़क है जहाँ पूरे दिन टैम्पू झटके खा–खा कर चलता है और इन्हीं झटकों के सहारे यहाँ के लोगों की जिंदगी धीरे-धीरे आगे खिसकती है।
गाँव को छोड़े हुए अनिमेष को बारह वर्ष हो चुके थे वह शहर जा कर सॉफ्टवेयर इंजीनयर बन गया थालेकिन इतने वर्षों में बदलाव के नाम पर उसे यहाँ जो देखने को मिल रहा है, वह है कार के पीछे दौड़ते बच्चों का झुण्ड, जिसमें अब उसका कोई जाना पहचाना चेहरा नहीं है, होता भी कैसे उसकी ही तरह उसके साथ दौड़ने वाले बच्चे भी तो बड़े हो गये है। अगर कुछ ज्यों का त्यों है तो वह है खेतों की मिट्टी की वही सौंधी सी खुशबू, देवी भगवती का मंदिर और कनाल में बहता थोड़ा बहुत पानी।
इसी कनाल में अपने बड़े भाई महेंद्र के साथ बचपन के दिनों में अनिमेष टेंगरा माछ मारता और घर लाकर अम्मा को बनाने देता। अम्मा भी उसे बड़े प्यार से बनाती और दोनों भाईयों को खिलाती थी। ऐसी ही ढ़ेरों यादें उसे उसके खुदगर्जी के मकान से बाहर निकाल लाई है। शहर के भाग दौड़ भरी जिंदगी में यही यादें कहीं गुम सी हो गई थी। अपने घर और घरवालों से दूर रह कर उसने जाना था कि रिश्तों की अहमियत हमारी अपनी महत्वाकांक्षा से कहीं ज्यादा है।
कांति के ब्याह में आना तो महज एक बहाना था। वह तो यहाँ आज अपने रिश्तों की दरकती दीवारो की मरम्मत करने आया है। अपने बड़े भाई महेंद्र और अम्मा को शहर ले जाने आया है। बँटवारे में मिले जमीन जायदाद को लौटाने आया है क्योंकि वक़्त ने उसे उसके बेशकीमती पूँजी परिवार का एहसास दिलवा दिया है। मगर उसे रह रह कर इस बात की भी चिंता हो रही है कि महेंद्र भैया जब उसके सामने होंगे तो कैसा रियेक्ट करेंगे, वह अपने गोरका की गलतियों को बचपन के दिनों के तरह आज भी माफ़ करेंगे की नहीं।     
अचानक एक दोराहे पर आकर उसकी कार रुक गई “सर किस तरफ जाना है?” ड्राईवर ने अनिमेष से कहा।
अनिमेष इधर-उधर देखते हुए “हमें अपने घर जाना है, मुनिया ताई के यहाँ नहीं”।
“जी समझा नहीं” ड्राईवर ने पीछे पलट कर अनिमेष की ओर देखते हुए अचरज से कहा।
अनिमेष तो पिछले सीट पर था ही नहीं, नंगे पाँव सड़कों पर दौड़ता हुआ वह यादों में मुनिया ताई के घर पहुँच गया है। जहाँ पर आँगन में जुमनी घरौंदा–घरौंदा खेल रही है और वह उसकी छोटी सी चुटिया खीँच कर भागता हुआ ताई के आँचल में छिप रहा है।
मुनिया ताई उसके पिता शिवपूजन की भाभी है। दादा के गुजर जाने के बाद कमलेश चाचा ने उसके पिता जी से लड़ झगड़ कर जमीन और जायदाद का बंटवारा करवा लिया था, जैसा कि इसने अपने पिता के मरने के उपरान्त किया। इस बँटवारे में उसके पिता के हिस्से पुश्तैनी हवेली और कुछ खेती की जमीन आई, वही उसके कमलेश चाचा के हिस्से में खलिहान के पास का मकान और थोड़ी-बहुत जमीन व आम का बगिया। एक वक़्त था अनिमेष महेंद्र भैया के साथ आम के बगिया में चोरी छुपे जाता और कच्ची अमिया तोड़ कर भाग जाया करता था। अकसर वे दोनों भागते हुए इसी दोराहे पर आकर रुक जाते, जहाँ महेंद्र अनिमेष से पूछा करता “गोरका किस तरफ जाना है, मुनिया ताई के यहाँ या घर?”    
सर .. ड्राईवर ने इस बार तीव्र स्वर में अनिमेष को आवाज़ लगाया।
अनिमेष बचपन के गलियों से वैसे ही वापस आ गया जैसे एक छण पहले चुपके से दाखिल हुआ था। अनिमेष ने हाँथ से ईशारा करके ड्राईवर को कहा “इस बरगद के पेड़ वाले रास्ते पर ले लो” ड्राईवर ने कार को उस ओर बढ़ा दिया |
कार सीधे हवेली के बाहर रुकी, अनिमेष कार से उतर कर हवेली को कुछ देर खड़ा निहारता रहा, पीले  रंग की वही चूने की मोटी-मोटी दीवारें, गोल-गोल खम्भों पर टिका छज्जा और छत वाले कमरे की मेहराबो वाली छोटी-छोटी खिड़कियाँ, जिनकी सलाखें कहीं-कहीं से जंग खाने लगी थी उसके और महेंद्र के रिश्ते की तरह।
हवेली के बाहर दालान पर मजदूरों और मेहमानों की भीड़ लगी हुई थी। सभी अपने-अपने काम में व्यस्त थे किसी को अनिमेष की ओर देखने तक की फुर्सत नहीं थी कि तभी एक रोबदार आवाज़ ने सबका ध्यान खिंचा “ऐ बिजली मास्टर सारा झालर अहिं लगा दोगे क्या? थोड़ा अँगना में भी लगा दो, उधर अँधेरा ज्यादा है।
“महेंद्र भैया” अनिमेष ने महेंद्र को देखते ही आवाज़ लगाया। आवाज़ इतनी पुरानी थी कि महेंद्र को पहचानने में दिक्कत हो रही थी, वैसे भी शादी के घर में रिश्तेदार भी तो बहुत आते है, इन रिश्तेदारों में कई तो ऐसे होते है जिनसे मिले और उनकी आवाज़ सुने कई साल हो जाते है।
महेंद्र धीरे-धीरे दालान पार कर अनिमेष के पास पहुँचा। बचपन का गोल मटोल महेंद्र अब लम्बा चौड़ा मरदाना बन गया है। उनका सुडोल और मांसल देह अनिमेष के सामने भीमकाय लग रहा था। बड़ी-बड़ी मूछें, हल्की बढ़ी हुई दाढ़ी उसके व्यक्तित्व को बयाँ कर रहे थे कि उसके बचपन के भोंदू महेंद्र भैया अब नामचीन ठेकेदार बन गये है, गाँव समाज में उनका एक रुतवा है। अनिमेष के करीब आकर महेंद्र ने उसे सर से लेकर पाँव तक देखा, अनिमेष ने जींस और टीशर्ट पहन रखी थी।
“अरे शहरी बाबू, आइये आइये अहो भाग हमारे की आप आये है, चलिए कम से कम आप को अपनी बहन तो याद रही, मुझे पता होता कि आप भी कांति के ब्याह में शरीक होने वाले है तो उसका ब्याह दो साल पहले ही कर देते। इससे पहले की अनिमेष कुछ कहता महेंद्र वहाँ काम कर रहे मजदूर की तरफ मुख़ातिब हो कर कहा “ऐ जुबैरवा तु क्या कर रहा है? इतना पानी जमीन पर छिड्केगा तो दालान से लेके ओसारे तक आने जाने वाले के जूते के निशान हो जायेंगे, छोड़ो उसे देख शहरी बाबू आये है, जाओ उनके सामान को उठा कर अंदर रखो, और सुनो आराम से रखना कहीं भूले से टूट गया तो खामखाह की मुसीबत हो जायेगी, सामान कीमती है।“ अब तो दोनों भाईयों के बीच अमीरी और गरीबी की दीवार भी साफ़ साफ़ दिखने लगा था।
अनिमेष का दिल अंदर से जार जार रो पड़ा। यकीन तो नहीं था पर लगता था उसे कि महेंद्र भैया अपने गोरका को देखते ही सीने से लगा लेंगे और प्यार से गाल पर थपकी मारते हुए कहेंगे “गोरका कहाँ चला गया था तू”? मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। महेंद्र मजदूर को निर्देश दे कर उसके सामने से चला गया था। अनिमेष बुझे बुझे क़दमों से आँगन की ओर बढ़ने लगा।
हवेली की साज-सज्जा के लिए लगाई हुई लाइटिंग और झालरें जगमगाने लगी थी। दालान के दायें ओर कोने में पड़ा जेनरेटर चीख-चीख कर कह रहा था, यह रोशनी मेरे दम पर है। जैसे इस हवेली का रुतवा और शान-शौकत महेंद्र भैया के दम पर है।
आँगन में संगीत का कार्यक्रम चल रहा है, सिर झुकाए हुए अनिमेष वहाँ प्रवेश किया। “गोरका” गीत गाते महिलायों के बीच से उसकी अम्मा खड़ी होकर बोली। अनिमेष कितने वर्षों के बाद यह नाम सुना था वह भी अपनी अम्मा के जुबान से, उसके बुझे हुए चेहरे पर मानो ब्याह के घर की सारी रौनक उतर आई थी अम्मा के एक शब्द से। उसने भाग कर अम्मा के पैर छुए और सीने से लग गया। गोरका भी अब काफी लम्बा तगड़ा गबरू जवान हो गया था। उसकी अम्मा तो उसके कंधे तक भी नहीं आ पाई थी।
बेटा है, शहर में रहता है, इंजीनयर बन गया है। अम्मा ने वहाँ पर बैठे औरतों को कहा। मुझे मालूम था की तू आएगा, महेंद्र से मिला, वह मिलेगा तो तुमसे बहुत खुश होगा?
अनिमेष ने मरा हुआ सा जवाब दिया, “हाँ मिला, बाहर ही थे अभी”। अम्मा समझ गई, वह कैसे कमलेश भैया और अनिमेष के बँटवारे के कारण चिढ़ा बैठा है। अम्मा ने महेद्र के तल्खी को छुपाते हुए कहा “बड़ा परेशान रहता है तेरा भाई, अकेले होने के कारण घर का और कांति के ब्याह का सारा बोझ उसी पर पर गया है न और ब्याह वाले घर में वैसे भी हजारों काम होते है।“        
अनिमेष ने अम्मा का हाँथ थामा और आँगन के एक किनारे में ले आया। वह अभी कुछ वक़्त अम्मा के साथ गुजारना चाहता है। “अम्मा, मुनिया ताई और जुमनी कहीं दिखाई नहीं दे रही है?” अनिमेष ने जब गोतनी और भतीजी के बारे में पूछा तो उनके आँखों में आँसू आई गई।
अपने आँचल से आँसू पौंछते हुए कहा “क्या बताये गोरका, एक अरसा हो गया है उनसे मिले हुए। तुम्हारे पिताजी के देहांत के बाद कमलेश भाईजी इस हवेली को हथियाना चाहते थे। जबकि सब जानते है कि बँटवारे के बाद यह हवेली तुम्हारे पिताजी के हिस्से आई थी। मगर शराब और बुरे संगती के कारण उन्हें कुछ होश कहाँ था। महेंद्र और मैंने तो वैसे भी मन बना लिया था की उनको इसमें भी हिस्सा दे दे किंतु उसी बीच तुमने शहर से ख़त भेजा की तुम्हें इंजिनीयरिंग कॉलेज में दाखिला लेना है। और उस दाखिले के लिए तुम्हें अपने पिताजी के जमीन जायदाद में से हिस्सा चाहिए। ताकि तू उसे बेचकर कॉलेज में दाखिला ले सके। फिर महेंद्र ने कमलेश भाईजी को मना कर दिया। जिसके कारण विवाद शुरू हो गया। बात बढ़कर थाना कचहरी तक पहुँच गया, महेंद्र को तो दो रात जेल में भी गुजारनी पड़ी थी तुम्हारे ताया जी के कारण। तभी से दोनों परिवार अलग हो गये और फिर हम कभी नहीं मिले, कमलेश भाईजी के गुजरने के बाद भी नहीं।“
यह सब सुनकर अनिमेष खुद को रोक नहीं पाया। वह अम्मा के गोद में सर रख कर रोने लगा, “अम्मा, मेरे कारण तुम सब को कैसे दिन देखने पड़े। मैं कितना स्वार्थी बन गया था।“
भैया, अनिमेष भैया पुकारते कांति आई। अनिमेष ने खुद को संभाला और खड़ा होकर कांति को निहारने लगा “गुड्डा गुड्डी के खेल खेलने के उम्र में छोड़ कर गया था जिसे आज वो इतनी बड़ी हो गई थी, उसे सीने से लगा भी नहीं सकता था। मुझे मालूम था भैया की आप मेरे शादी में जरुर आओगे, और मुझे इतने सारे रक्षा बंधन के इंतजार का फल एक साथ मिलेगा। यह कह कर कांति ने अनिमेष के पैर को छुए। अनिमेष ने स्नेह से उसके सिर पर हाँथ फेरते हुए कहा “हाँ बहन, मुझे तो आना ही था वरना मैं जीवन भर खुद को माफ़ नहीं कर पाता।“
अनिमेष भैया .. सच सच बताओ क्या आप को इतने वर्षों में हम सब की याद एक बार भी नहीं आई? अनिमेष ने कांति के सवाल का उत्तर देते हुए कहा “नहीं बहन, मैं अपने स्वार्थ में इतना अँधा हो गया था की मुझे किसी की याद नहीं आती थी, बस दिमाग में एक ही बात हमेशा चलती रहती  थी कैसे ज्यादा से ज्यादा दौलत और शोहरत कमाऊँ। यही मेरी जिंदगी कि सबसे बड़ी भूल थी।“
सुबह का भुला अगर साँझ को वापस घर आ जाये तो उसे भुला नहीं कहते गोरका, अम्मा ने अनिमेष के हाँथ सहलाते हुए कहा।
उधर महेंद्र अँधेरे में कनाल के किनारे बैठा, झींगुरों के शोर में बीते वक़्त की खामोशियाँ सुन रहा था। जब भी वह कनाल के बहते पानी में कंकड़ फेंकता तो उसे लगता अगला कंकड़ गोरका का बस आने वाला है। आज गोरका यहाँ तो था मगर यादों का फेंके जाने वाला वो कंकड़ कहीं ओर ही चला गया था। बचपन के दिनों में साँझ के वक़्त अकसर दोनों भाई यहीं कनाल के किनारे बैठते और अपने अपने भविष्य की कल्पना करते थे। अनिमेष हमेशा से इंजीनयर बनना चाहता था और महेंद्र फौज में शामिल होना चाहता था। पढ़ाकू होने के कारण पिताजी और स्कूल के टीचर हमेशा अनिमेष की  तारीफ किया करते थे। छोटी उम्र में ही अनिमेष ने न जाने कितने अवार्ड अपने आलमारियों में भर लिया थे। वही महेंद्र पढ़ाई में भोंदू था इसलिए पिताजी उसे ज्यादा पसंद नहीं करते थे। महेंद्र को यह बात हमेशा कचोटती थी।
गोरका का उपनाम उसके पिताजी ने ही अनिमेष को दिया था। वजह अनिमेष दिखने में गोरा चिठ्ठा था और महेंद्र दिखने में साँवला। फिर भी महेंद्र एक बड़े भाई के तरह इन बातों को नजरंदाज़ कर अनिमेष को जान से बढ़कर प्यार करता था। ज्यों ज्यों अनिमेष बड़ा होता गया महेंद्र से उसकी दुरी बढ़ने लगी। छोटी उम्र में ही उसके कई सारे दोस्त और गर्ल फ्रेंड बन गये थे। उसका ज्यादा वक़्त नये दोस्तों में बीतता था। वह तो महेंद्र को भैया तक कहना बंद कर दिया था।
बोर्ड के एग्जाम में जहाँ महेंद्र फ़ैल हो गया वही अनिमेष को अव्वल आने के लिए स्कालरशिप मिली  थी। वह आगे की पढाई शहर जाकर करना चाहता था। मगर पिताजी ने मना कर दिया, वे चाहते थे, दोनों भाई एक साथ उनके आँखों के सामने रहे और यहीं कोई बिजनेस करे। महेंद्र ने ही जाकर तब उस समय पिताजी को समझाया और गोरका को शहर पढ़ने के लिए भेजा। उसे क्या पता था गोरका शहर जाकर इतना बदल जायेगा। पिताजी के मरने पर भी वह घर नहीं आयेगा।
पिताजी के मरने के उपरांत अनिमेष के ही जिद्द के कारण बँटवारा हुआ था। कमलेश ताया जबरदस्ती जमीन जायदाद में हिस्सा चाहते थे। जिसके कारण ताया से उसकी लड़ाई हुई और उसे जेल में भी दो रात रहना पड़ा था। महेंद्र जब जेल में था उसने तब भी अनिमेष को खबर भिजवाया मगर वह उस वक़्त भी नहीं आया। अम्मा ने उस समय कांति के ब्याह के लिए रखे जेवर बेचकर उसको छुड्वाया था। महेंद्र कैसे भूल सकता है इतना कुछ। छोटी सी उम्र उसने कैसे कैसे घर को चलाया यह महेंद्र ही जानता था। फिर ठेकेदारी का काम भी कम टेंशन का थोड़े ही होता है, गुंडागर्दी, राजनीति और पुलिस का पंजर ने तो महेंद्र को बिलकुल बदल दिया था। यादों के भँवर से महेंद्र वापस आया, रात भी काफी हो चली थी। जेनरेटर के शोर तले झालरों के रोशनी से पुश्तैनी हवेली खूब चमक रही थी।
और कुछ बताइये न मुंबई के बारे में, हमारे लिए वहाँ कोई भाभी ढूंढी की नहीं। हाँथों में मेहँदी लगाये अनिमेष से पांच साल छोटी बहन कांति उससे बातें कर रही थी, जब महेंद्र ने आँगन में कदम रखा। अम्मा मेरे लिए चाय बना दो सर मैं बहुत दर्द हो रहा है। “खाना नहीं खायेगा देख अनिमेष कब से तेरा इंतजार कर रहा है” इंतजार तो हमने भी बहुत किया था। महेंद्र की नोकदार बात पर सब खामोश हो गये थे। मुझे भूख नहीं तुम बस चाय दे दो, कहकर महेंद्र अपने कमरे जाने को ही था की कांति महेंद्र के पास आकर कहा “महेंद्र भैया देखो ने अनिमेष भैया ने मेरे लिया क्या लाये है। गले में पहने नेकलेस महेंद्र को दिखाते हुये कांति ने कहा, “हीरे के है।“
वापस कर दो इसे, कल को यदि उसके घर में कोई काज होगा तो इतना महँगा व्यवहार मैं नहीं चूका सकता।
महेंद्र की बात सुनकर अनिमेष को रहा नहीं गया, यह कैसी बात कर रहे है महेंद्र भैया? कांति मेरी भी तो बहन है। आपका ऐसा सोचना बिलकुल गलत है।
हाँ, मैं ठहरा दशमी फेल , तू ठहरा पढ़ा लिखा शहरी बाबू। तू जो बोलेगा सब सही होगा, भैया तू यह सब रहन दे। 
महेंद्र क्या हो गया है तुझे, एक तो गोरका परदेश से कांति के ब्याह में शामिल होने आया है और तू इस तरह बातें करेगा है, बीच में आकर महेंद्र को डाँटते हुए अम्मा ने कहा।
महेंद्र बोल पड़ा “तुम चुप ही रहो अम्मा, आज घर में शादी है तो चले आये है रिश्तेदारी निभाने, इतने साल हम कैसे रहे क्या किये क्या किसी ने सुध तक लेना जरुरी समझा। मेहमान के तरह आये है मेहमान बन कर रहे उसी में अच्छा है। और तुम भी कहती थी जब से परदेश गया है गोरका एक बार बात तक नहीं किया है, हमारी सुध तक नहीं लिया है। महेंद्र के मुँह से खड़ी निकली तो एक बार फिर सभी खामोश हो गये।
शादी में आना तो एक बहाना है अम्मा, सच तो है की यह पिताजी का पुश्तैनी घर बेचकर मुंबई में बंगला खरीदना चाहता है। पैसा तो है नहीं, जमीन जो इसके हिस्से आया था उसे बेचकर पढ़ाई तो पूरा कर लिया। अब इसकी नजर इस हवेली पर गड़ी हुई है। मैंने बताया नहीं था तुमको अम्मा एक महीने पहले तुम्हरे गोरका का फ़ोन आया था। उस वक़्त उसने यह प्रस्ताव रखा था। उसकी बातों को सुनकर जब मैंने उससे पूछा “हम रहेंगे कहाँ” तो बोला हमारे साथ यहीं मुंबई में, अब तुम ही बताओ पिताजी की आखरी निशानी भी इसे दे दे और हम सड़क पर आ जाये। क्या तुम यही चाहती हो?  दबी हुई बात आखिर सामने आ गई, महेंद्र की बात सुनकर अम्मा सन्न रह गई।
गोरका क्या महेंद्र सही कह रहा है।
हाँ अम्मा, पर ऐसी बात नहीं है। सच तो यह है की मैं आपलोगों के साथ रहना चाहता हूँ, मुझे अब आपलोगों से और दूर रहा नहीं जाता। अगर आपको यकीं नहीं होता है तो मैं मुंबई छोड़ कर यही हमेशा के लिए आपलोगों के साथ रहने चला आता हूँ महेंद्र भैया। यह कहते हुए अनिमेष का गला रुंद आया। उसकी बातों में सच्चाई दिखी तो महेंद्र भी थोड़ा ढीला पर गया। कॉफ़ी तो नहीं है चाय पियेगा। महेंद्र ने पूछा तो अनिमेष ने हाँ कर दी।

घर के पीछे वाले खुले ओसारे में चारपाई पर बैठे दोनों भाई चाय पी रहे थे। खुले आसमान में टिमटिमाते तारों को निहारते हुए महेंद्र ने ही पूछा “और कैसी रही मैकेनिक की पढ़ाई?” मैकेनिक नहीं भैया सॉफ्टवेयर इंजिनीयरिंग की पढ़ाई। महेंद्र की बातों का अनिमेष ने जवाब दिया और आगे बोला  “क्या बताऊँ भैया देश का सबसे बड़ा सॉफ्टवेयर  इंजीनयर बनने के होड़ में मैं इतना आगे निकल गया की बाकी सारे रिश्ते पीछे रह गये। शुरू शुरू में इतना व्यस्त रहता की कई कई दिन हो जाते थे खुद को देखे हुए, यूँ लगता था की जैसे दुनिया फतेह करने का काम कर रहा हूँ। अनिमेष की आँखें किसी शून्य को ताक रही थी। पिछले सात सालों में न जाने कितनी किताबें खंगाल डाली और कितने सॉफ्टवेयर बना डाले मगर मुझे जो चाहिए था वह नहीं मिला। सबसे आगे निकलना इतना आसान काम नहीं था। फिर धीरे-धीरे मेरा मन उचटने लगा था, लगता था भाग जाऊँ जोर जोर से चीखूँ, तब मैंने तय किया की यह सब छोड़ मैं वापस आउँगा, लेकिन वापस आने के लिए मुझे बहुत देर हो गई। मेरे खुदगर्जी ने सारे रिश्ते खाक दिए थे। अनिमेष के आँखों में महेंद्र को पहली बार इतना खालीपन दिखाई दिया, ठंडी पड़ चुकी चाय की तरह अनिमेष का शरीर भी ठंडा हो गया था। महेंद्र ने जब उसके कंधे पर हाँथ रखा तो एक गर्म बूंद हथेली पर महसूस की, अनिमेष के आँखों में आँसू भर आये थे। महेंद्र भैया कांति का ब्याह तो एक बहाना भर है। मैं तो आके आपसे माफ़ी माँगना चाहता था। महेंद्र ने हिचकी भरते हुए “कैसी माफ़ी”। महेंद्र भैया जब मुझे आपका साथ देना चाहिए था तो अपने दोस्तों और पढ़ाकू होने के घमंड में आपसे दूरी बना लिया। जब पिताजी की तबियत ख़राब थी और वे नहीं चाहते थे की मैं उन्हें छोड़ कर जाऊँ, उस वक़्त भी मेरे जिद्द को पूरा करने के लिए आपने पिताजी को मनाया था। देखिये मैंने इतने प्यार के बदले आपको क्या दिया, जायदाद का बँटवारा करा कर आप सब को भूखों मरने छोड़ दिया। सच बोलू तो भैया मैं स्वार्थ में इतना अँधा हो गया था की मैं नहीं चाहता था की आप आगे बढ़े वरना मुझे तो स्कालरशिप मिल ही रही थी फिर मुझे भला जमीन जायदाद की क्या जरुरत थी। मुझे याद है जब आप जेल में थे और घर से फ़ोन आया था उस वक़्त मैंने आपलोगों को कितना इग्नोर किया था। मुझे माफ़ कर दो भैया, यह कह कर अनिमेष घुटने टेक कर जार जार रोने लगा था। उसका हाँथ थामे महेंद्र खामोश खड़ा रहा, छोटा सा था जब गोरका, किसी चीज़ के लिए ऐसे ही रोता था। उसे बचपन याद आ गया अनिमेष को माफ़ करते हुए कहा “चल मुनिया ताई के आम के बगिया से अमिया तोड़ कर आते है, और मुनिया ताई को भी वापस घर पर लाते है”।