Friday, May 10, 2013

"काश मेरा ये प्रेम तुमसे होता"

ऐ दरख्त शायद
आज तुमने
कुछ कहा था मुझसे
अपनी वो बेचैनी
वो विडम्वना
जो सिर्फ और सिर्फ
मैं महसूस
कर सकता हूँ तेरा

कैसे चट्टानों का भी
दिल रोता है
कैसे
बूँदें अश्कों की 
चट्टानों की आँखों से
छलकता है
रंग लिप्त
उदाशीनता लिए
वो मैं अब समझ
सकता हूँ तेरा

क्यूँकी तूने आज
दर्द की हर ताबीर से
अपने रु-ब-रु
करवाया था मुझको
जिसको महसूस कर
मेरी काया भी
अश्क बहाई थी

"क्या दिल सिर्फ
इंसानों को ही होता है
क्या वजूद के लिए
सिर्फ इंसान ही लड़ते है
क्या प्रेम करने का हक़
सिर्फ इंसानों को ही होता है"

ऐसे तेरे कई अनगिनत
सवाल
जिसके जवाब की शक्ल में
मेरे पास
लज्जा के कुछ नहीं था 

मुझे मालूम है
तुझे भी प्रेम हो चला था
किसी इंसान से
जो तुझे
सिर्फ व सिर्फ
चट्टान समझता है
पर मैं कह दू
मेरे दोस्त
हम इंसान
तुझसे बनाई
मूरत को ही पूजते है
अधीर मत हो
अपने प्रेम को वो रूप दो
जो तुझे
सिर्फ पत्थर समझे
वो भी
तुझे कुछ यूँही पूजे

इतनी बात मेरे सुन
वो थोड़ी खिलखिलाई
और फिर बोली
तू इंसान होके भी
हम चट्टानों को
इतने अच्छे से समझा है
"काश मेरा ये प्रेम तुमसे होता"

मैं हँसा
और मन में बोला
काश मेरी प्रेमिका तुम जैसी होती
जो खुले मुँह ये कह देती
"काश मेरा ये प्रेम तुमसे होता"  ..