Friday, January 31, 2014

आखरी ख़त ...

ख़त लिखना तेरा और फिर उसी ख़त को माटी के नीचे गाड़ देना,मुझे आज तक तेरी ये बात समझ न आई,आखिर ऐसी क्या लिखती थी ? तुम उन खतों में
जो हर पूर्णिमा की रात उसे जिसके लिए लिखती थी,उसे न दे कर माटी में दफ़न कर देती थी।

सवालात बहुत थे पर मैं अक्सर सोचता था, ये पुछू कैसे ? मगर कभी हिम्मत जुटा न पाया। हालांकि हम दोनों एक दूसरे को जानते थे। चोरी से लोक समाज से नज़र चुरा के एक दूसरे को जब मौका मिलता देख भी लेते थे पर उस नज़रों की छुअन में एक प्यास होती थी, जिसे मैंने अक्सर महसूसा था
जिसे शायद तुमने भी महसूसा ही होगा कि हम दोनों की रूहें हम दोनों से कुछ और ही चाहती है,जो हम लोग कर नहीं पा रहे थे।

इसी उधेड़ बुन में वक़्त कटता रहा और कितनी पूर्णिमा कि रात बीती पता ही नहीं चला।

ऐसे ही एक सुबह जब मेरी आँख खुली तो तेरे घर से मुझे शहनाई की आवाज़ सुनाई दी, मेरा दिल बैठ गया इस बार मुझसे रहा ना गया, मैंने हिम्मत कर के आखिरकार  तेरे घरवालों से पूछ ही लिया यहाँ किसका ब्याह हो रहा है। उन्होंने फिर तेरा नाम लिया ये सुनते ही मेरा मन कटी पतंग की तरह जमीन पे धम से आ गिरा,जैसे तैसे खुद को  संभालता तेरी शहनाइयों की आवाज़ पे अरमानो को तार तार करता वहां से मैं चला आया।

संयोग तो देखो तेरी विदाई और पूर्णिमा की रात साथ साथ आई, मैं इंतजार मैं बैठ गया की क्या आज भी तुम ख़त लिखोगी ?  क्या उसे लिख के पहले की तरह दफ़न करोगी ? ऐसे कई सवालात लेके ..

तुम आई, हमेशा की तरह जो करती थी वही किया ख़त लिखा उसको चूमा और ज़मीन में गाड़ दिया साथ ही उसी जगह एक बीज रख डाला, और रोती बिलकती चली गई। इस बार मैंने भी ठान लिया था, आखिर जान के रहूँगा वो किसको ख़त लिखती है और ऐसा क्यों करती है ?
मैं उस जगह पहुँच गया और मिट्टी हटा के सारे ख़त निकाल के एक एक करके पढ़ने लगा, ज्यों ज्यों मैं ख़त पढ़ता जा रहा था मेरे आँखों में आँसूं बढ़ते जा रहे थे।  उन खतों में इतनी प्यार भरी हुई थी,  जिसे मैं पढ़ कर कल्पनाओं में उड़ान भरने लगा था पर वो वक़्त कल्पनाओं में खोने का नहीं था। मैं वापस फिर से कल्पनाओं से आया और उसी गहराई से खतों को पढ़ने लगा जिस गहराई से उसके एक एक अल्फाज़ लिखे हुए थे पढ़ते पढ़ते कई घंटे बीत गये,
इतने घंटों में मैंने कई ख़त पढ़ डाले पर मैं जो जानना चाहता था वो मुझे नहीं मिला था अब तक, हाँ मिला था तो उन खतों से असीम प्रेम जो वो अपने बिन नाम के प्रेमी से करती थी,क्योंकि उसे अब तक पता नहीं थी वो जिसे इतना प्यार करती है उसका नाम क्या है ?वो उसे भी प्रेम करता है की नहीं ?और ऐसे कई सवाल जो प्रेम के आगे हमेशा से बाधे बने है पढ़ते पढ़ते अब बारी आखरी ख़त की आई।

जो यूँ लिखा था …

प्रिय मोहन बाबू जी,


आज मैं पराई हो गई हूँ, ये ख़त मेरी आखरी ख़त है आपके प्रेम में, हाँ इससे पहले मैंने जितनी भी खते लिखी थी, वो सारे खते मैंने माटी को समर्पित कर दी हूँ पूर्णिमा कि रातों को साक्षी मानकर, जानते है क्यों ? क्योंकि मुझे अब तक पता नहीं आप मुझे जानते है कि भी नहीं और प्रेम तो बहुत दूर कि बात है, मुझे तो आप का नाम तक नहीं मालूम कुछ दिन पहले तक, संयोग देखिये मुझे आपका नाम मेरे ब्याह के कार्ड से पता चला जो आपको निमंत्रण  के लिए भेजा जा रहा था, हमारे घरवालों के ओर से एक अच्छे पड़ोसी के नाते, हाँ मुझे पता था तो बस आप किसी ऊँचे जात के है, और बहुत अमीर घराने के हैं !

ख़ैर प्रेम इन बातों को नहीं जानता। . इसलिए मैंने आपको इस उम्र की अपने अंधियारे जीवन कि एक प्रकाश पुंज समझ कर प्रेम कि हूँ क्योंकि मैं रजनी हूँ इस लोक समाज और सभ्यता की !

आप हैरान हो रहे होंगे जो लड़की आपको इतना प्रेम करती है वो आपको अपने प्रेम का एहसास जताया क्यूँ नहीं अब तक, ये सोचना आप का सत्य है और इस सत्य को जानने का आपको भी हक़ है, तो अब जान लीजिये आपको न जताने का कारण क्या थी मेरी, मैं एक बाल-विवाह बियाहता हूँ आज तो बस मेरी विदाई मात्र हो रही है, यूँ तो मैं बचपन से किसी और की हूँ इसके वावजूद मैंने जबसे आपको देखा है आपको ही प्रेम कि हूँ, हाँ हमारे सभ्यता के अनुसार यह एक अपराध है एक ब्याहता स्त्री को किसी दूसरे मर्द के बारे मैं नहीं सोचना चाहिए पर मैं इस बात से इत्तेफाक नहीं रखती हूँ।  प्रेम तो ईश्वर का वरदान है उसका स्वरुप है और मैंने तो उसी ईश्वर को साक्षी मानकर उसके वरदान को आपकी सकल मैं अपनाया है ! मुझे दुःख हो रही है आज मैं अपने उसी प्रेम को हमेशा के लिए दफ़न करके जा रही हूँ ! क्योंकि अब कुछ नहीं हो सकता है !

हाँ, मैं एक बात और कहना चाहूँगी, मेरी रूह सिर्फ और सिर्फ आपको ही चाहेगी देह भले ही कोई और ले ले,

अब आपके दिल में ख़त के साथ रखे बीज के बारे में सोच रहे होंगे। य़े बीज हमारे दफ़न किये हुए प्रेम को जिन्दा रखने के लिए है कल ये बीज जब एक पेड़ बन के फले फुलेगा और इनके टहनियों पे सावन में फूल खिलेंगे तो इसकी मादक खुशबू आपको मेरी याद दिलायेगी , जिससे मैं हमेशा आपके ह्रदय में मैं जीवित रहूँगी !

अब मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं है,   मैं जा रही हूँ इसी पूर्णिमा कि रात को साक्षी मान कर एक प्रेमिका कि रूह छोड़ कर पत्नी धर्म निभाने !

आपकी बोलू या नहीं पर
आपकी रजनी   …  

मैं ये आखरी ख़त पढ़ कर फुट फुट के रो पड़ा, क्योंकि वो मोहन बाबू मैं ही था।  जो आज तक उन ख़तो से निकल नहीं पाया हूँ  और उसकी याद मैं हर पूर्णिमा कि रात को उसके हाँथों रखे बीच के जो कि अब एक पेड़ बन गया है उसके सायों में बैठ कर अपने प्रेम का आवाहन करता हूँ !!

Sunday, January 26, 2014

क़त्ल हुई मैं फिर "वीरभूम" में ...

बिस्तर पे सुन्न लेटी
मैं पूछ रही थी
लहुलुहान हुई पड़ी इंसानियत से,
वो प्लास्टिक की गुड़िया सुनहरे बालों वाली
किसने दिया था बचपन में मुझको,
ये कह कर की यह तू है.
देख तेरे हाँथ खुले हुए है तू आज़ाद है
तुझपे कोई बंदिश नहीं है
तुझे छोटे कपड़े पहने की भी छूट है
तुझे प्रेम करने का भी हक़ है
इस गुड़िया के जैसे,
तू अपना घरोंदा का खेल खुद ही खेलना
जब तुम बड़ी हो जाना तब,
पर तुम कभी क्यों रो रही हो ?
थोड़े से चोट लगने पर
जबकि हमने मना किया था न
लड़कों वाले खेल मत खेलना
क्योंकि तुम एक लड़की हो,
देख गाँव के मुखिया चाचा भी आये है
तेरे रोने की आवाज़ सुन के
और ये पड़ोस के सभी चाचा भाई सब आये है
तुझको चुप कराने तुझको मनाने,
चलो अब चुप हो जाओ और
जाओ अपने सखियों संग खेलने लड़कियों वाली खेल,

आज मुझे याद आ रही है
वो बचपन की झूठी बातें
जो मुझे बहलाने के लिए कहे गए थे,
जो मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल थी,
क्योंकि वही मुखिया चाचा वही पड़ोस के चाचा भाई ने
मुझको कालिख बना
खुद का मुँह काला किया कल के ही दिन
जबकि न मैंने छोटे कपड़े पहनी थी
न कोई और मर्यादा ही तोड़ी थी
हाँ मैंने सिर्फ प्रेम की थी
खुद से की थी ..  और सब से की थी,
पर, क्या प्रेम करना सजा है ?
अगर सजा है तो
क्यों इन लोगों ने उनका सजा नहीं दिया जिसने ये प्रेम बनाया ?
छोड़ो ...
ये सोच कर क्यों खुद को और दुःख देना,
मैंने बचपन की उस गुड़िया को
पुरे कपड़े पहना दी हूँ
हाँथों और पावँ में बेड़ियाँ बांध दी हूँ
और माथे पे लिख दी हूँ
क़त्ल हुई मैं फिर "वीरभूम" में
इस खोखली दुनिया के हाँथो
जो इंसानियत को लात मार
झूठी पुरुषार्थ को ढ़ोती है,
भूल के यह की
इसके पुरुषार्थ का अस्तिव हम नारी से ही है !!

Wednesday, January 22, 2014

तेरे प्रेम में ...

तेरे प्रेम में
एक सलीक़ा है,
एक लहजा है,
एक धैर्य-एक क्षमता है,
और मेरे प्रेम में
बस पागलपंती
पर पागलपंती से
ये दुनिया नहीं चलती
और जीवन नहीं कटता।

काश की
तेरे प्रेम में,
मैं बस
इतना तुझसे सीख पाता,
तो मैं भी
एक सलीके का इंसान बन जाता,
लहज़े का पोशाक पहनता,
धैर्य का टाई लगता, और
अपने क्षमते से इतराता।

पर
ख़ैर छोड़ो,
अपने हिस्से की ये पागलपंती ,
एक सभ्य इंसान की
परिभाषा से तो अलग है,
ये मैं जान चुका हूँ,
इसलिए
तेरे लिए भी
यही अच्छा होगा,
तू भी मुझे जान ले,
मैं खुद को बदलू
इससे अच्छा तू खुद को बदल ले,

क्योंकि
सच्चा प्रेम पागल बना देता है,
और जो पागल होते है,
वो सिर्फ पागलपंती करते है,
जैसे मैं करता हूँ,
तेरे प्रेम में पागल होके,
वैसे तू भी कर
मेरे प्रेम में पागल होके, पागलपंती !!

Friday, January 17, 2014

कबूतर के बच्चे ...

कयास लगाते देखा था,
रातों को सपनों में
तेरे बेताबी को, … की,
मैं एक निरमोही हूँ,
निष्ठुर हूँ,
जो तेरे रूहों को
अपने साँसों से नहीं छूता,
तेरे प्यासे होठों को
अपने प्रेम के उचास की ताप नहीं देता,
जो तेरे समर्पण को
सिंदूर की स्वीकृर्ति नहीं देता,

अगर जो तू भी
यही सोचती है मेरी प्रेयसी
तो बता दू,
तू पूर्णतः गलत है,
सच तो ये है  … कि
मैं अपने मन मंदिर में
तुझे जीता हूँ,
तुझे पूजता हूँ,
तेरी देह की खुशबू को
अपने नथुनों में
तेरे संग न होने पे
महसूसता हूँ,
तेरी तरह विरह के
नाजुक पलों में
मैं भी द्रवित होता हूँ,

क्या तुम्हें ये सब नहीं दीखता ?

सुन जो तुमको
ये सब देखना है तो,
अपने कमरे के
जिस बिस्तर पे तू सोती है
उस के चारों ओर
एक सच की परिधि बना लेना,
और कमरे की
उस पुरानी लालटेन की रोशनी को
मेरे याद से शर्मिंदा कर देना,
फिर सच की
उस परिधि को बोलना
जो पल मैंने अपने यार के साथ बिताई है
उन लम्हों को
जुगुनों में तब्दील कर के खुद पे सज़ा ले,
जब जुगनुयें उन लम्हों में धँस कर
हमारे तुम्हारे प्रेम में टिमटिमा उठे,
तब तू अपनी आँखें मूंद कर
मेरी ख्यालों के कांधे पे सर रख कर
खुद से दूर चले जाना,

फिर तुझे मैं दिख जाऊँगा,
तेरी व्यस्ता की सलमा सितारे की
चुन्नी के उस पार,
झूठी और मतलबी
गैर इश्क महजबी जहाँ के उस पार,
तेरे प्रेम में,
अपने अकेलेपन के कबूतरों को
तेरे ही यादों का दाना डालते हुए,
और बतियाते हुए,
सुन वो आयेगी,
वो जरुर आयेगी,
क्यों की वो मुझसे
बे इम्तिहाँ प्रेम करती है,
जिसका साक्षी है तू
जो उनके यादों के दाने को
पागलों के तरह चुग रहा है,
और सुन
ये इल्जाम, तोहमत के दाग
जो उन्होंने मुझे दिए है, उनको
वो मेरे प्रेम की पागलपंती से आके धोएगी,
क्यों की जितना मैं पागल हूँ
उससे कहीं जादा वो मेरे प्रेम में पगली है,
कबूतर के बच्चे,
ये सुन ले कान खोल के और समझ ले तू,
चल जा अब
ये अकेलेपन की दुकान कहीं ओर लगा,
वो इस कविता को पढ़कर अब आने ही वाली होगी   !!

Monday, January 13, 2014

सुनहरी हंथेली ...

हो सके, तो
अपने सुनहरी हंथेलियों पे
एक हाशिया सा
लकीर खींच लेना तुम,
और
उस हासिये पे
मुझे व मेरे प्रेम को रख देना,
बाँकी बचे हिस्से पे
अपनी कानों की बाली के आकार के
दो चार गोल परिधि बना लेना,

मैं अपने हिस्से से
तुझे अपलक ताका करूँगा
और तुम,
परिधि बदल बदल के
उसके गोलाईयों से मुझे ताकना,

संवाद एक दूसरे तक पहुँचाने के लिए,
अपने गावं के पुराने खो से दो परवा ले आऊँगा,
जो एक तेरे पास और एक मेरे पास रहेगा,

जब कभी तेरे साँसें अधीर हो जाये
मुझसे बात करने को,मिलने को
तो तुम
उस गोल परिधि के दायरे से
उन्हें मेरा नाम कह कर उड़ा देना,

मैं जो हमेशा से
तेरे इंतज़ार में हूँ,
उस परवे को देख कर
तेरी दी गई सारी हदें तोड़ के आ जाया करूँगा,
फिर मिलकर तुझसे
तेरे अधीर साँसों को
तब तलक स्थिर करता रहूँगा,
जब तलक
तेरा मन और तेरे हंथेली का दायरा
पुर्णतः मेरे प्रेम में सिमट न जाये,

तेरे प्रेम में समर्पित
मेरे मन व  साँसों की ओर से
और मैं क्या कहूँ,
हाँ एक बात जरुर कहना चाहूँगा
मैं अपने हिस्से के परवे को कभी नहीं उड़ाऊँगा
चाहे भले मेरी साँसें कितनी ही अधीर क्यूँ न हो जाये,
क्योंकि मुझे पता है
तुम मेरे प्रेम मैं कुछ भी कर सकती हो,
सिर्फ और सिर्फ
अपने बनाये हदें को तोड़ नहीं सकती हो,

इसलिए आज तुझसे गुज़ारिश है
तुम अपने बनाये गोल परिधि मैं रहो,
मेरे प्रेम के साथ ,
और मैं,
तेरे दी गई इस हाशिये में
तेरे प्रेम के साथ रहता हूँ ... प्रेयसी !

Thursday, January 9, 2014

प्रेम संवाद ...

मेरे हथेलियों के लकीरों से उड़ते
प्रेम पुष्प के परागकण, अवश्य ही,
 तेरे नथूनों को तर कर रहे होंगे,
जिसकी मादकता में तेरी देह
निश्चित ही चंदन की भाँति महक रही होगी ,
तेरी रूह,
गाय के उस भूखे बछड़े की भाँति
बँधे खूँटे से खुलकर
मेरे अधरों को चूमना चाह रही होगी,
जैसे वो कई जन्मों से मेरे देह की भूखी है,

ये कोई काल्पनिक एहसास नहीं है,
मेरी प्रेयसी जिनको तू अपनी मौन हँसी देकर,
प्रेम की कविता की तरह पढ़कर बस छू ले,

मैं शरद की इस सुबह में,
अगर इन सुखद एहसासों को
कागज के सफ़ेद पन्नों पे उच्चारित कर रहा हूँ,तो
इसमें, मेरी एक अभिलाषा है, कि
तू इस कंपकपाती सी शरद की सुबह में
मुझको अपने देह की अलाव जैसी गर्माहट दे सके,
अपने हंथेलियों की घर्षण की ताप दे सके,
प्रेम की,
उन सूक्ष्म एहसासों का आगोश दे सके,

जिसमे मैं एक प्रेमी,
अपने कविमन की वो उकलाहट
इन सफेद पन्नों पे प्रस्तुत कर सकूँ,
जिससे संसार की समस्त प्रेमी और प्रेमिकाएँ
इस प्रेम की कविता को पढ़कर
इस सुबह अपने अन्तःमन में प्रेम की तपिश को
महसूस सके,

बोलो मेरी प्रेयसी,
तुम क्या कहती हो?
क्या हमदोनों को अवसरवादी बन जाना चाहिए?
कुछ लम्हों के लिए,
प्रेम की प्यासी भुजाओं में समाने के लिए,
प्रेम की नाजुक पुष्पों पे नंगें पावं रखने के लिए,
साथ ही संसार की उन समस्त
प्रेमी प्रेमिकाओं की सम्मान का संवाद बनने के लिए,

जिसके लिए
आज वो सारे कई जन्मों से
सिर्फ देह बदल रहे है, हमारे तुम्हारे जैसे।

Friday, January 3, 2014

आई प्रॉमिस ...

मेरे मेज पे
फ्रेम में पड़ी तेरी तस्वीर
और उस
तस्वीर से झाँकती तेरी आँखें
जो मुझे घूर रही थी
और मैं तुम्हें,

एक अजीब सी चुप्पी फैली हुई थी,
कमरे में
बिस्तर पे भी सिलवटें उकरी हुई थी,
मेरी डायरी के
कुछ पन्ने फटे हुए थे,
जिन पन्नों के टुकड़े
फर्श पे फैले हुए थे,
पास पे रखा गिटार के कवर खुले थे,
पर उसके सुर शांत थे,
टी वी ऑन था,
पर आवाज़ म्यूट की हुई थी,

लेम्प के दूधिया रोशनी थी,
पर सुर्ख अँधेरा मेरे अंदर था,

दूर लेम्प कि रोशनी में
दो मेरे चाहने वाले पतंगे
आपस में बाते कर रहे थे,
आज इतना सन्नाटा क्यूँ है भाई?
आज इस आशिक़ को हुआ क्या है?
लगता है फिर से
गर्ल फ्रेंड से लफड़ा हो गया है,
तभी पीछे से एक जीभ ने
दोनों को लपेट कर अपने मुँह में रख लिया
और डकार लगाते हुए बोला
ये अंदर कि बात है चूजे,

इत्ते में,
मेरे मोबाईल में रिंग हुआ
कॉल पिक किया था तो
मेरी प्रियसी
प्लीज सॉरी जानू
प्लीज सॉरी जानू प्लीज प्लीज
मुझे गलती हो गई मुझे माफ़ कर दो,
ये सुन
मेरे चेहरे पे मुस्कान उतर आई,
और सारा मंजर फिर से रंगीन हो गया,

ये तेरे लिए है,
तू सुन मेरी प्रियसी
तेरे बिना मैं और मेरे कमरे की
सारी चीजें उदास हो जाती है,
तो प्लीज प्लीज
तू कभी मुझे नाराज मत हुआ कर
आई लव यू जानू एंड सॉरी
कि मैंने भी
तुमको गुस्सा दिला दिया था तभी
तू नाराज हो गई थी,
अब ऐसा मैं भी कभी नहीं करूँगा,
आई प्रॉमिस
कान पकड़ता हूँ
मुझे भी माफ़ कर दे तू ....

Thursday, January 2, 2014

तू और मैं ...

तेरा ख्याल आते ही
न जाने
मेरे मन और हृदय को
क्या हो जाता है?
दोनों बचपन की गलियों में
नंगे पावँ जाके जैसे खो जाता है,

वही बचपन
जहाँ तू और मैं अक्सर
घरोंदा का खेल खेला करते थे,
तू अपनी
गुड़िया की दुल्हन को सजाती थी,
और मैं
अपने गुड्डे को सजाता था,
जैसे ब्याह वो दोनों का नहीं
हम दोनों कर रहे थे,
सारे रस्म रिवाजों का
पता तो नहीं था,
पर ये जानता था मगर
मेरे गुड्डे कि दुल्हन तेरी गुड़िया है जैसे,
वैसे ही तू मेरी दुल्हन है,

क्या हम आज फिर से
वही खेल नहीं खेल सकते,
मैं तो चाहूंगा,
आज फिर से तुम
मेरी दुल्हन बन जाओ,
हम फिर से वही बचपन की
कागज की कस्ती बनाये
और भावनाओं के धारा में दूर बह जाये,

इतनी दूर
जहाँ एहसासों का श्वेत सा आसमा हो,
उन आसमा के नीचे
तेरे मुस्कान का आलिंगन बिखरा हो,
और
तू मेरी बाँहों में
मैं तेरी आँखों की आगोश में रहू,

जहाँ दिन
रात भी हो तो तेरे अधरों पे हो,
तू सजे भी तो श्रृंगार मुझे बनाके
तू हँसे भी तो मुस्कान मुझे बनाके
तू द्रवित हो भी तो ताप मुझे बनाके
ऐसे पावन लम्हों का सिर्फ और दौर हो,
बस प्रेम और प्रेम हो,
और फिर
वो सारा का सारा प्रेम
तेरे मेरे नस नस में उतर जाए,
तू मेरी और मैं तेरा
युगों-युगों के लिए बन जाए,
और फिम हम
प्रेम की गलियों महसूर हो जाए,
जैसे आज भी वो महसूर है,
राधा-किशन
प्रेम के दीप का उचास लिए
क्या तुम होना चाहोगी , मेरे साथ खोना चाहोगी ?
मेरी प्रियसी बोलना तुम…