Friday, June 26, 2015

वापसी .... !!


दिनभर कलरवें करके घर वापस लौटते पँछियों का झुण्ड, धीरे-धीरे गदराता हुआ साँझ, आसमान में पसरी हुई दूर-दूर तक लाली, इन्हें देख कर भले ही अनिमेष को अजीब न लग रहा हो किंतु खार गाँव की  कच्ची सड़क पर दौड़ती उसकी अम्बेसडर कार देखने वाले लोगों को बहुत अजीब लग रही थी अजीब लगे भी क्यों न यह वही सड़क है जहाँ पूरे दिन टैम्पू झटके खा–खा कर चलता है और इन्हीं झटकों के सहारे यहाँ के लोगों की जिंदगी धीरे-धीरे आगे खिसकती है।
गाँव को छोड़े हुए अनिमेष को बारह वर्ष हो चुके थे वह शहर जा कर सॉफ्टवेयर इंजीनयर बन गया थालेकिन इतने वर्षों में बदलाव के नाम पर उसे यहाँ जो देखने को मिल रहा है, वह है कार के पीछे दौड़ते बच्चों का झुण्ड, जिसमें अब उसका कोई जाना पहचाना चेहरा नहीं है, होता भी कैसे उसकी ही तरह उसके साथ दौड़ने वाले बच्चे भी तो बड़े हो गये है। अगर कुछ ज्यों का त्यों है तो वह है खेतों की मिट्टी की वही सौंधी सी खुशबू, देवी भगवती का मंदिर और कनाल में बहता थोड़ा बहुत पानी।
इसी कनाल में अपने बड़े भाई महेंद्र के साथ बचपन के दिनों में अनिमेष टेंगरा माछ मारता और घर लाकर अम्मा को बनाने देता। अम्मा भी उसे बड़े प्यार से बनाती और दोनों भाईयों को खिलाती थी। ऐसी ही ढ़ेरों यादें उसे उसके खुदगर्जी के मकान से बाहर निकाल लाई है। शहर के भाग दौड़ भरी जिंदगी में यही यादें कहीं गुम सी हो गई थी। अपने घर और घरवालों से दूर रह कर उसने जाना था कि रिश्तों की अहमियत हमारी अपनी महत्वाकांक्षा से कहीं ज्यादा है।
कांति के ब्याह में आना तो महज एक बहाना था। वह तो यहाँ आज अपने रिश्तों की दरकती दीवारो की मरम्मत करने आया है। अपने बड़े भाई महेंद्र और अम्मा को शहर ले जाने आया है। बँटवारे में मिले जमीन जायदाद को लौटाने आया है क्योंकि वक़्त ने उसे उसके बेशकीमती पूँजी परिवार का एहसास दिलवा दिया है। मगर उसे रह रह कर इस बात की भी चिंता हो रही है कि महेंद्र भैया जब उसके सामने होंगे तो कैसा रियेक्ट करेंगे, वह अपने गोरका की गलतियों को बचपन के दिनों के तरह आज भी माफ़ करेंगे की नहीं।     
अचानक एक दोराहे पर आकर उसकी कार रुक गई “सर किस तरफ जाना है?” ड्राईवर ने अनिमेष से कहा।
अनिमेष इधर-उधर देखते हुए “हमें अपने घर जाना है, मुनिया ताई के यहाँ नहीं”।
“जी समझा नहीं” ड्राईवर ने पीछे पलट कर अनिमेष की ओर देखते हुए अचरज से कहा।
अनिमेष तो पिछले सीट पर था ही नहीं, नंगे पाँव सड़कों पर दौड़ता हुआ वह यादों में मुनिया ताई के घर पहुँच गया है। जहाँ पर आँगन में जुमनी घरौंदा–घरौंदा खेल रही है और वह उसकी छोटी सी चुटिया खीँच कर भागता हुआ ताई के आँचल में छिप रहा है।
मुनिया ताई उसके पिता शिवपूजन की भाभी है। दादा के गुजर जाने के बाद कमलेश चाचा ने उसके पिता जी से लड़ झगड़ कर जमीन और जायदाद का बंटवारा करवा लिया था, जैसा कि इसने अपने पिता के मरने के उपरान्त किया। इस बँटवारे में उसके पिता के हिस्से पुश्तैनी हवेली और कुछ खेती की जमीन आई, वही उसके कमलेश चाचा के हिस्से में खलिहान के पास का मकान और थोड़ी-बहुत जमीन व आम का बगिया। एक वक़्त था अनिमेष महेंद्र भैया के साथ आम के बगिया में चोरी छुपे जाता और कच्ची अमिया तोड़ कर भाग जाया करता था। अकसर वे दोनों भागते हुए इसी दोराहे पर आकर रुक जाते, जहाँ महेंद्र अनिमेष से पूछा करता “गोरका किस तरफ जाना है, मुनिया ताई के यहाँ या घर?”    
सर .. ड्राईवर ने इस बार तीव्र स्वर में अनिमेष को आवाज़ लगाया।
अनिमेष बचपन के गलियों से वैसे ही वापस आ गया जैसे एक छण पहले चुपके से दाखिल हुआ था। अनिमेष ने हाँथ से ईशारा करके ड्राईवर को कहा “इस बरगद के पेड़ वाले रास्ते पर ले लो” ड्राईवर ने कार को उस ओर बढ़ा दिया |
कार सीधे हवेली के बाहर रुकी, अनिमेष कार से उतर कर हवेली को कुछ देर खड़ा निहारता रहा, पीले  रंग की वही चूने की मोटी-मोटी दीवारें, गोल-गोल खम्भों पर टिका छज्जा और छत वाले कमरे की मेहराबो वाली छोटी-छोटी खिड़कियाँ, जिनकी सलाखें कहीं-कहीं से जंग खाने लगी थी उसके और महेंद्र के रिश्ते की तरह।
हवेली के बाहर दालान पर मजदूरों और मेहमानों की भीड़ लगी हुई थी। सभी अपने-अपने काम में व्यस्त थे किसी को अनिमेष की ओर देखने तक की फुर्सत नहीं थी कि तभी एक रोबदार आवाज़ ने सबका ध्यान खिंचा “ऐ बिजली मास्टर सारा झालर अहिं लगा दोगे क्या? थोड़ा अँगना में भी लगा दो, उधर अँधेरा ज्यादा है।
“महेंद्र भैया” अनिमेष ने महेंद्र को देखते ही आवाज़ लगाया। आवाज़ इतनी पुरानी थी कि महेंद्र को पहचानने में दिक्कत हो रही थी, वैसे भी शादी के घर में रिश्तेदार भी तो बहुत आते है, इन रिश्तेदारों में कई तो ऐसे होते है जिनसे मिले और उनकी आवाज़ सुने कई साल हो जाते है।
महेंद्र धीरे-धीरे दालान पार कर अनिमेष के पास पहुँचा। बचपन का गोल मटोल महेंद्र अब लम्बा चौड़ा मरदाना बन गया है। उनका सुडोल और मांसल देह अनिमेष के सामने भीमकाय लग रहा था। बड़ी-बड़ी मूछें, हल्की बढ़ी हुई दाढ़ी उसके व्यक्तित्व को बयाँ कर रहे थे कि उसके बचपन के भोंदू महेंद्र भैया अब नामचीन ठेकेदार बन गये है, गाँव समाज में उनका एक रुतवा है। अनिमेष के करीब आकर महेंद्र ने उसे सर से लेकर पाँव तक देखा, अनिमेष ने जींस और टीशर्ट पहन रखी थी।
“अरे शहरी बाबू, आइये आइये अहो भाग हमारे की आप आये है, चलिए कम से कम आप को अपनी बहन तो याद रही, मुझे पता होता कि आप भी कांति के ब्याह में शरीक होने वाले है तो उसका ब्याह दो साल पहले ही कर देते। इससे पहले की अनिमेष कुछ कहता महेंद्र वहाँ काम कर रहे मजदूर की तरफ मुख़ातिब हो कर कहा “ऐ जुबैरवा तु क्या कर रहा है? इतना पानी जमीन पर छिड्केगा तो दालान से लेके ओसारे तक आने जाने वाले के जूते के निशान हो जायेंगे, छोड़ो उसे देख शहरी बाबू आये है, जाओ उनके सामान को उठा कर अंदर रखो, और सुनो आराम से रखना कहीं भूले से टूट गया तो खामखाह की मुसीबत हो जायेगी, सामान कीमती है।“ अब तो दोनों भाईयों के बीच अमीरी और गरीबी की दीवार भी साफ़ साफ़ दिखने लगा था।
अनिमेष का दिल अंदर से जार जार रो पड़ा। यकीन तो नहीं था पर लगता था उसे कि महेंद्र भैया अपने गोरका को देखते ही सीने से लगा लेंगे और प्यार से गाल पर थपकी मारते हुए कहेंगे “गोरका कहाँ चला गया था तू”? मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। महेंद्र मजदूर को निर्देश दे कर उसके सामने से चला गया था। अनिमेष बुझे बुझे क़दमों से आँगन की ओर बढ़ने लगा।
हवेली की साज-सज्जा के लिए लगाई हुई लाइटिंग और झालरें जगमगाने लगी थी। दालान के दायें ओर कोने में पड़ा जेनरेटर चीख-चीख कर कह रहा था, यह रोशनी मेरे दम पर है। जैसे इस हवेली का रुतवा और शान-शौकत महेंद्र भैया के दम पर है।
आँगन में संगीत का कार्यक्रम चल रहा है, सिर झुकाए हुए अनिमेष वहाँ प्रवेश किया। “गोरका” गीत गाते महिलायों के बीच से उसकी अम्मा खड़ी होकर बोली। अनिमेष कितने वर्षों के बाद यह नाम सुना था वह भी अपनी अम्मा के जुबान से, उसके बुझे हुए चेहरे पर मानो ब्याह के घर की सारी रौनक उतर आई थी अम्मा के एक शब्द से। उसने भाग कर अम्मा के पैर छुए और सीने से लग गया। गोरका भी अब काफी लम्बा तगड़ा गबरू जवान हो गया था। उसकी अम्मा तो उसके कंधे तक भी नहीं आ पाई थी।
बेटा है, शहर में रहता है, इंजीनयर बन गया है। अम्मा ने वहाँ पर बैठे औरतों को कहा। मुझे मालूम था की तू आएगा, महेंद्र से मिला, वह मिलेगा तो तुमसे बहुत खुश होगा?
अनिमेष ने मरा हुआ सा जवाब दिया, “हाँ मिला, बाहर ही थे अभी”। अम्मा समझ गई, वह कैसे कमलेश भैया और अनिमेष के बँटवारे के कारण चिढ़ा बैठा है। अम्मा ने महेद्र के तल्खी को छुपाते हुए कहा “बड़ा परेशान रहता है तेरा भाई, अकेले होने के कारण घर का और कांति के ब्याह का सारा बोझ उसी पर पर गया है न और ब्याह वाले घर में वैसे भी हजारों काम होते है।“        
अनिमेष ने अम्मा का हाँथ थामा और आँगन के एक किनारे में ले आया। वह अभी कुछ वक़्त अम्मा के साथ गुजारना चाहता है। “अम्मा, मुनिया ताई और जुमनी कहीं दिखाई नहीं दे रही है?” अनिमेष ने जब गोतनी और भतीजी के बारे में पूछा तो उनके आँखों में आँसू आई गई।
अपने आँचल से आँसू पौंछते हुए कहा “क्या बताये गोरका, एक अरसा हो गया है उनसे मिले हुए। तुम्हारे पिताजी के देहांत के बाद कमलेश भाईजी इस हवेली को हथियाना चाहते थे। जबकि सब जानते है कि बँटवारे के बाद यह हवेली तुम्हारे पिताजी के हिस्से आई थी। मगर शराब और बुरे संगती के कारण उन्हें कुछ होश कहाँ था। महेंद्र और मैंने तो वैसे भी मन बना लिया था की उनको इसमें भी हिस्सा दे दे किंतु उसी बीच तुमने शहर से ख़त भेजा की तुम्हें इंजिनीयरिंग कॉलेज में दाखिला लेना है। और उस दाखिले के लिए तुम्हें अपने पिताजी के जमीन जायदाद में से हिस्सा चाहिए। ताकि तू उसे बेचकर कॉलेज में दाखिला ले सके। फिर महेंद्र ने कमलेश भाईजी को मना कर दिया। जिसके कारण विवाद शुरू हो गया। बात बढ़कर थाना कचहरी तक पहुँच गया, महेंद्र को तो दो रात जेल में भी गुजारनी पड़ी थी तुम्हारे ताया जी के कारण। तभी से दोनों परिवार अलग हो गये और फिर हम कभी नहीं मिले, कमलेश भाईजी के गुजरने के बाद भी नहीं।“
यह सब सुनकर अनिमेष खुद को रोक नहीं पाया। वह अम्मा के गोद में सर रख कर रोने लगा, “अम्मा, मेरे कारण तुम सब को कैसे दिन देखने पड़े। मैं कितना स्वार्थी बन गया था।“
भैया, अनिमेष भैया पुकारते कांति आई। अनिमेष ने खुद को संभाला और खड़ा होकर कांति को निहारने लगा “गुड्डा गुड्डी के खेल खेलने के उम्र में छोड़ कर गया था जिसे आज वो इतनी बड़ी हो गई थी, उसे सीने से लगा भी नहीं सकता था। मुझे मालूम था भैया की आप मेरे शादी में जरुर आओगे, और मुझे इतने सारे रक्षा बंधन के इंतजार का फल एक साथ मिलेगा। यह कह कर कांति ने अनिमेष के पैर को छुए। अनिमेष ने स्नेह से उसके सिर पर हाँथ फेरते हुए कहा “हाँ बहन, मुझे तो आना ही था वरना मैं जीवन भर खुद को माफ़ नहीं कर पाता।“
अनिमेष भैया .. सच सच बताओ क्या आप को इतने वर्षों में हम सब की याद एक बार भी नहीं आई? अनिमेष ने कांति के सवाल का उत्तर देते हुए कहा “नहीं बहन, मैं अपने स्वार्थ में इतना अँधा हो गया था की मुझे किसी की याद नहीं आती थी, बस दिमाग में एक ही बात हमेशा चलती रहती  थी कैसे ज्यादा से ज्यादा दौलत और शोहरत कमाऊँ। यही मेरी जिंदगी कि सबसे बड़ी भूल थी।“
सुबह का भुला अगर साँझ को वापस घर आ जाये तो उसे भुला नहीं कहते गोरका, अम्मा ने अनिमेष के हाँथ सहलाते हुए कहा।
उधर महेंद्र अँधेरे में कनाल के किनारे बैठा, झींगुरों के शोर में बीते वक़्त की खामोशियाँ सुन रहा था। जब भी वह कनाल के बहते पानी में कंकड़ फेंकता तो उसे लगता अगला कंकड़ गोरका का बस आने वाला है। आज गोरका यहाँ तो था मगर यादों का फेंके जाने वाला वो कंकड़ कहीं ओर ही चला गया था। बचपन के दिनों में साँझ के वक़्त अकसर दोनों भाई यहीं कनाल के किनारे बैठते और अपने अपने भविष्य की कल्पना करते थे। अनिमेष हमेशा से इंजीनयर बनना चाहता था और महेंद्र फौज में शामिल होना चाहता था। पढ़ाकू होने के कारण पिताजी और स्कूल के टीचर हमेशा अनिमेष की  तारीफ किया करते थे। छोटी उम्र में ही अनिमेष ने न जाने कितने अवार्ड अपने आलमारियों में भर लिया थे। वही महेंद्र पढ़ाई में भोंदू था इसलिए पिताजी उसे ज्यादा पसंद नहीं करते थे। महेंद्र को यह बात हमेशा कचोटती थी।
गोरका का उपनाम उसके पिताजी ने ही अनिमेष को दिया था। वजह अनिमेष दिखने में गोरा चिठ्ठा था और महेंद्र दिखने में साँवला। फिर भी महेंद्र एक बड़े भाई के तरह इन बातों को नजरंदाज़ कर अनिमेष को जान से बढ़कर प्यार करता था। ज्यों ज्यों अनिमेष बड़ा होता गया महेंद्र से उसकी दुरी बढ़ने लगी। छोटी उम्र में ही उसके कई सारे दोस्त और गर्ल फ्रेंड बन गये थे। उसका ज्यादा वक़्त नये दोस्तों में बीतता था। वह तो महेंद्र को भैया तक कहना बंद कर दिया था।
बोर्ड के एग्जाम में जहाँ महेंद्र फ़ैल हो गया वही अनिमेष को अव्वल आने के लिए स्कालरशिप मिली  थी। वह आगे की पढाई शहर जाकर करना चाहता था। मगर पिताजी ने मना कर दिया, वे चाहते थे, दोनों भाई एक साथ उनके आँखों के सामने रहे और यहीं कोई बिजनेस करे। महेंद्र ने ही जाकर तब उस समय पिताजी को समझाया और गोरका को शहर पढ़ने के लिए भेजा। उसे क्या पता था गोरका शहर जाकर इतना बदल जायेगा। पिताजी के मरने पर भी वह घर नहीं आयेगा।
पिताजी के मरने के उपरांत अनिमेष के ही जिद्द के कारण बँटवारा हुआ था। कमलेश ताया जबरदस्ती जमीन जायदाद में हिस्सा चाहते थे। जिसके कारण ताया से उसकी लड़ाई हुई और उसे जेल में भी दो रात रहना पड़ा था। महेंद्र जब जेल में था उसने तब भी अनिमेष को खबर भिजवाया मगर वह उस वक़्त भी नहीं आया। अम्मा ने उस समय कांति के ब्याह के लिए रखे जेवर बेचकर उसको छुड्वाया था। महेंद्र कैसे भूल सकता है इतना कुछ। छोटी सी उम्र उसने कैसे कैसे घर को चलाया यह महेंद्र ही जानता था। फिर ठेकेदारी का काम भी कम टेंशन का थोड़े ही होता है, गुंडागर्दी, राजनीति और पुलिस का पंजर ने तो महेंद्र को बिलकुल बदल दिया था। यादों के भँवर से महेंद्र वापस आया, रात भी काफी हो चली थी। जेनरेटर के शोर तले झालरों के रोशनी से पुश्तैनी हवेली खूब चमक रही थी।
और कुछ बताइये न मुंबई के बारे में, हमारे लिए वहाँ कोई भाभी ढूंढी की नहीं। हाँथों में मेहँदी लगाये अनिमेष से पांच साल छोटी बहन कांति उससे बातें कर रही थी, जब महेंद्र ने आँगन में कदम रखा। अम्मा मेरे लिए चाय बना दो सर मैं बहुत दर्द हो रहा है। “खाना नहीं खायेगा देख अनिमेष कब से तेरा इंतजार कर रहा है” इंतजार तो हमने भी बहुत किया था। महेंद्र की नोकदार बात पर सब खामोश हो गये थे। मुझे भूख नहीं तुम बस चाय दे दो, कहकर महेंद्र अपने कमरे जाने को ही था की कांति महेंद्र के पास आकर कहा “महेंद्र भैया देखो ने अनिमेष भैया ने मेरे लिया क्या लाये है। गले में पहने नेकलेस महेंद्र को दिखाते हुये कांति ने कहा, “हीरे के है।“
वापस कर दो इसे, कल को यदि उसके घर में कोई काज होगा तो इतना महँगा व्यवहार मैं नहीं चूका सकता।
महेंद्र की बात सुनकर अनिमेष को रहा नहीं गया, यह कैसी बात कर रहे है महेंद्र भैया? कांति मेरी भी तो बहन है। आपका ऐसा सोचना बिलकुल गलत है।
हाँ, मैं ठहरा दशमी फेल , तू ठहरा पढ़ा लिखा शहरी बाबू। तू जो बोलेगा सब सही होगा, भैया तू यह सब रहन दे। 
महेंद्र क्या हो गया है तुझे, एक तो गोरका परदेश से कांति के ब्याह में शामिल होने आया है और तू इस तरह बातें करेगा है, बीच में आकर महेंद्र को डाँटते हुए अम्मा ने कहा।
महेंद्र बोल पड़ा “तुम चुप ही रहो अम्मा, आज घर में शादी है तो चले आये है रिश्तेदारी निभाने, इतने साल हम कैसे रहे क्या किये क्या किसी ने सुध तक लेना जरुरी समझा। मेहमान के तरह आये है मेहमान बन कर रहे उसी में अच्छा है। और तुम भी कहती थी जब से परदेश गया है गोरका एक बार बात तक नहीं किया है, हमारी सुध तक नहीं लिया है। महेंद्र के मुँह से खड़ी निकली तो एक बार फिर सभी खामोश हो गये।
शादी में आना तो एक बहाना है अम्मा, सच तो है की यह पिताजी का पुश्तैनी घर बेचकर मुंबई में बंगला खरीदना चाहता है। पैसा तो है नहीं, जमीन जो इसके हिस्से आया था उसे बेचकर पढ़ाई तो पूरा कर लिया। अब इसकी नजर इस हवेली पर गड़ी हुई है। मैंने बताया नहीं था तुमको अम्मा एक महीने पहले तुम्हरे गोरका का फ़ोन आया था। उस वक़्त उसने यह प्रस्ताव रखा था। उसकी बातों को सुनकर जब मैंने उससे पूछा “हम रहेंगे कहाँ” तो बोला हमारे साथ यहीं मुंबई में, अब तुम ही बताओ पिताजी की आखरी निशानी भी इसे दे दे और हम सड़क पर आ जाये। क्या तुम यही चाहती हो?  दबी हुई बात आखिर सामने आ गई, महेंद्र की बात सुनकर अम्मा सन्न रह गई।
गोरका क्या महेंद्र सही कह रहा है।
हाँ अम्मा, पर ऐसी बात नहीं है। सच तो यह है की मैं आपलोगों के साथ रहना चाहता हूँ, मुझे अब आपलोगों से और दूर रहा नहीं जाता। अगर आपको यकीं नहीं होता है तो मैं मुंबई छोड़ कर यही हमेशा के लिए आपलोगों के साथ रहने चला आता हूँ महेंद्र भैया। यह कहते हुए अनिमेष का गला रुंद आया। उसकी बातों में सच्चाई दिखी तो महेंद्र भी थोड़ा ढीला पर गया। कॉफ़ी तो नहीं है चाय पियेगा। महेंद्र ने पूछा तो अनिमेष ने हाँ कर दी।

घर के पीछे वाले खुले ओसारे में चारपाई पर बैठे दोनों भाई चाय पी रहे थे। खुले आसमान में टिमटिमाते तारों को निहारते हुए महेंद्र ने ही पूछा “और कैसी रही मैकेनिक की पढ़ाई?” मैकेनिक नहीं भैया सॉफ्टवेयर इंजिनीयरिंग की पढ़ाई। महेंद्र की बातों का अनिमेष ने जवाब दिया और आगे बोला  “क्या बताऊँ भैया देश का सबसे बड़ा सॉफ्टवेयर  इंजीनयर बनने के होड़ में मैं इतना आगे निकल गया की बाकी सारे रिश्ते पीछे रह गये। शुरू शुरू में इतना व्यस्त रहता की कई कई दिन हो जाते थे खुद को देखे हुए, यूँ लगता था की जैसे दुनिया फतेह करने का काम कर रहा हूँ। अनिमेष की आँखें किसी शून्य को ताक रही थी। पिछले सात सालों में न जाने कितनी किताबें खंगाल डाली और कितने सॉफ्टवेयर बना डाले मगर मुझे जो चाहिए था वह नहीं मिला। सबसे आगे निकलना इतना आसान काम नहीं था। फिर धीरे-धीरे मेरा मन उचटने लगा था, लगता था भाग जाऊँ जोर जोर से चीखूँ, तब मैंने तय किया की यह सब छोड़ मैं वापस आउँगा, लेकिन वापस आने के लिए मुझे बहुत देर हो गई। मेरे खुदगर्जी ने सारे रिश्ते खाक दिए थे। अनिमेष के आँखों में महेंद्र को पहली बार इतना खालीपन दिखाई दिया, ठंडी पड़ चुकी चाय की तरह अनिमेष का शरीर भी ठंडा हो गया था। महेंद्र ने जब उसके कंधे पर हाँथ रखा तो एक गर्म बूंद हथेली पर महसूस की, अनिमेष के आँखों में आँसू भर आये थे। महेंद्र भैया कांति का ब्याह तो एक बहाना भर है। मैं तो आके आपसे माफ़ी माँगना चाहता था। महेंद्र ने हिचकी भरते हुए “कैसी माफ़ी”। महेंद्र भैया जब मुझे आपका साथ देना चाहिए था तो अपने दोस्तों और पढ़ाकू होने के घमंड में आपसे दूरी बना लिया। जब पिताजी की तबियत ख़राब थी और वे नहीं चाहते थे की मैं उन्हें छोड़ कर जाऊँ, उस वक़्त भी मेरे जिद्द को पूरा करने के लिए आपने पिताजी को मनाया था। देखिये मैंने इतने प्यार के बदले आपको क्या दिया, जायदाद का बँटवारा करा कर आप सब को भूखों मरने छोड़ दिया। सच बोलू तो भैया मैं स्वार्थ में इतना अँधा हो गया था की मैं नहीं चाहता था की आप आगे बढ़े वरना मुझे तो स्कालरशिप मिल ही रही थी फिर मुझे भला जमीन जायदाद की क्या जरुरत थी। मुझे याद है जब आप जेल में थे और घर से फ़ोन आया था उस वक़्त मैंने आपलोगों को कितना इग्नोर किया था। मुझे माफ़ कर दो भैया, यह कह कर अनिमेष घुटने टेक कर जार जार रोने लगा था। उसका हाँथ थामे महेंद्र खामोश खड़ा रहा, छोटा सा था जब गोरका, किसी चीज़ के लिए ऐसे ही रोता था। उसे बचपन याद आ गया अनिमेष को माफ़ करते हुए कहा “चल मुनिया ताई के आम के बगिया से अमिया तोड़ कर आते है, और मुनिया ताई को भी वापस घर पर लाते है”।     

Wednesday, June 24, 2015

रघुआ पागल ...


एगो बात छय, दूगो बात छय और सब बात छय .... ठस, इनीम धिनीम, कहकर अखबार का टुकड़ा उठाया और पढ़ने लगा लालू है चालू, बिहार को बना भालू, खाए छय सफालू, चंडाल चौकरी आक थू” ...
दीपक के चाय दुकान पर मेरी नज़र जब रघुआ पर पड़ी तो मुझे हँसी आ गई, उसकी अजीब सी हरकतों ने वहाँ पर बैठे अन्य लोगों के साथ मेरा ध्यान भी अपनी ओर खींचा था। मेरे ही तरह और कई लोगो ने भी उसकी हरकतों पर एक फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट के जैसे फैसला सुनाते हुए कहा पागल है साला .... पागल

रघु ... हे रे रघु.. चाय लाय जोदीपक चा ने आवाज़ लगा कर रघुआ को चाय ले जाने को कहा।

रघु ने आवाज़ आने के दिशा की ओर मुड़ कर हँसते हुए देखा, फिर दोनों हाँथों को मोड़ कर धीरे-धीरे से उठा और कदम बढ़ाते हुए दीपक के करीब पहुँच कर कहा ई जहर के प्याला पी कर के ह्म्म्मे शिव बनबे, पर कौन सा शिव? उ भोला और सब चालू, चंडाल चौकरी आक थू”...  

चाय ले कर रघु वापस मेरे सामने वाले तख्ते वाले ब्रेंच पर बैठ गया, और प्यासे बछड़े के जैसे चाय घोंटने लगा। मैं भी एक और चाय मँगा उसको घूरते हुए सोचने लगा क्या यह सचमुच का पागल है, या पागलपन का नाटक कर रहा है? खैर, जो भी हो, उसने दो बार मुँह खोला और अपने व्यंग से नेता, प्रशासन, भगवान और समाज पर थूक कर, सब की ऐसी की तैसी कर दिया। यह साधारण बात नहीं थी।पागलपन में जो हरकतें करते हुए उसने व्यंग किया था, वह व्यंग मेरे मस्तिष्क में जड़े जमाने लगा था, उसके वजूद को लेकर। सहसा वह ब्रेंच से उठा और सुभाष चौक की ओर दौड़ लगा दिया, इससे पहले मैं कुछ समझ पाता, गाड़ियों की आवाजाही के भीड़ में वह मेरे आँखों से ओझल हो गया।

"दीपक चा, जरा इधर आइये" मैंने आवाज लगाया। वे मेरी आवाज़ सुनकर बोले कुछ और चाहिए?” "न न..आप बस यहाँ आइये, आपसे कुछ बात करनी है।" मैंने उत्तर दिया।

दीपक चा की चाय दुकान मधेपुरा के मेन मार्केट में नामी तो नहीं थीकिन्तु उनके दुकान पर हमेशा भीड़ लगी रहती थी। उन्होंने भीड़ लगाने के लिए कलर टीवी जो लगा रखा था। जिसपर हमेशा फिल्म चलती रहती और लोग फिल्म का मज़ा उठाते हुए, गिलास के गिलास चाय पीते रहते। मुझे याद है, जब कभी मेरे पास पैसे नहीं होते, तो वे मुफ्त में चाय पिला दिया करते थे। काफी बड़ा दिल है उनका, इसलिए तो उन्होंने रघु को भी चाय पिलाया था।

दीपक चा मेरे सामने खड़े होकर बोले, “हाँ, बोल ... की बात?”

पहले बैठ त जामैंने तख्ते को अपने करीब खींचते हुए कहा उ पागल्बा कैय रहे

"ओह .. उ रघुआ रहे, कि भैले जे, तू ओकरा बारे में पूछ रहल छि?

"भैले कुच्छो न .. यूँ ही .. बस जाने के इक्छा भैले। सच कहिये त उ बड़ा ही दिलचस्प और संवेदनशील इंसान लागले हमरा।"

"उ त छेबे कर ले .."

"कि मतलब ?"

"मतलब उतलब छोड़, अभी दुकान दारी के टाइम छे, दिमाग ख़राब मत कर। बाद में कभी फुर्सत से बतैबो।"

मैंने ज्यादा तंग करना उस वक़्त ठीक नहीं समझा, इसलिए रात को बतलाने का वादा ले कर चला आया। घड़ी का कांटा सुबह के नौ से घूमकर रात के नौ पर जब पहुँचा, मैं घर से निकल कर दीपक चा के दुकान की ओर चल दिया। दीपक चा दुकान बढ़ाने की तैयारी कर रहे थे, उन्होंने मुझे देखते हुए कहा तू आ गेली, चल बढ़िया कर ली। अब ऐली हँ त, तनी मदत कर दे।मदद की बात सुनकर, मैंने उनका साथ देते हुए दस मिनट में दुकान बढ़ा दिया। दुकान बढ़ने के बाद, हम दोनों बाहर खुले आसमान के नीचे कुर्सी डाल कर दूकान के सामने बैठ गये।

मार्च का महीना, हवाओं में फागुन की मादकता, सड़क के उस तरह बजरंगबली का मंदिर, आने जाने वाले इक्का-दुक्का आदमी वहाँ रुक कर, अपने आगे की जीवन यात्रा के कुशल मंगल की कामना सड़क के इस ठेकेदार से कर आगे बढ़ते रहे, और मैं उन सब को निहारते हुए सोच रहा था कि कल के आये भूकंप से मंदिर लगभग झुक ही गया है, कल तो जैसे लग रहा था मंदिर गिर ही जायेगा, शुक्र है गिरा नहीं।

दीपक चा भी मंदिर की ही ओर देख रहे थे। मैंने कहा दीपक चा बतबा .. रघु के बारे में अब।

क्या बताये
,"- उन्होंने मंदिर की ओर इशारा कर कहा इस उपर वाले ने भी उसके साथ इंसाफ नहीं किया”?

मैं समझा नहीं, इसका मतलब?

ठीक है, मैं संक्षेप में सुनाता हूँ, जिससे तुम समझ सकोक्योंकि तुम्हारी चाची घर पर मेरा इंतजार कर रही होगी।

ओ हो.. चाची, कोई बात नहीं आप संक्षेप में ही सुना दीजिये। 

मुझे याद है, चार साल पहले के सोमवार की वह सुबह, जब किसी ग्राहक ने दुकान पर कहा आज रघु के केस  की आखिरी सुनवाई है। आज उसे सज़ा मिल जायेगी।ग्राहक से यह सुनते ही, मैं दुकान तुरंत बढ़ा कर कोर्ट पहुँच गया। जून का महीना चल रहा था, इसलिए कोर्ट सुबह-सुबह ही खुल जाता था। सेशन कोर्ट के उस छोटे से रूम में मुझे बड़ी ही मुश्किल से जगह मिली थी। वह भी एक चपरासी को पैसे दे कर। मेरे साथ वकील और रघु के कुछ रिश्तेदारजज और रघु के आने का इंतजार कर रहे थे। करीब साढ़े सात बजे माथुर साहब(जज) अपने चश्मे को पोंछते  हुए कोर्ट रूम में  आये और ठीक उनके पीछे हथकड़ी से बंधा रघु हँसता हुआ दाखिल हुआ।

करवाई शुरू हुई, रघु को कटघरे में खड़ा किया गया। कटघरे में खड़े होते ही रघु ने कहा जज साहब एगो बात छय, दूगो बात छय और सब बात छय .... ठस ।

माथुर साहब अपना चश्मा थोड़ा नीचे सरका कर, रघु पर तिरछी नजर डाल कर हँस दिये। माथुर साहब की हँसी इस बात की सूचक थी कि वह भी समझ चुके है, रघु यादव पागल हो गया है।

आधे घंटे वकीलों के गहमा गहमी के बाद माथुर साहब ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा "रघु यादव वल्द सरयू यादव को बैकुंठ सिंह के हत्या का दोषी माना जाता है, जैसा कि उसने पहले ही इकबाले जुल्म कर लिया है और साक्ष्य भी यही दर्शाता है कि वह अपराधी है। इसलिए ये कोर्ट उसे चौदह साल सश्रम  कारावास की सज़ा सुनाती है। विपरीत इसके उसका कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है और उसके आज की मानसिक  हालत को मद्देनजर रखते हुए, कोर्ट उसे तात्कालिक जमानत देते हुए मानसिक चिकित्सा  कराने की पेशकश करता है, अगर भविष्य में रघु ठीक होता है, वह इस मानसिक बीमारी से निकल पाता है, तो सामान्य होते ही इसे अपने किये गये गुनाह के बदले सज़ा भोगनी पड़ेगी।"

मुझे तो पहले लगता था, वह पागल नहीं है। मौत के सजा से बचने के लिए, यह नाटक कर रहा है। मगर मेरा यह सोचना गलत था। मैं उससे मिलने एक बार जेल गया, अपने इन्हीं सवालों का जवाब पाने। उस वक़्त उसने मुझे पहचाना नहीं परन्तु जब मैंने यूँ ही एक सवाल सब्जेक्ट के किताब से किया, तो उसने कॉलेज के दिनों के तरह ही बड़े आराम से जवाब दे दिया। यह सुन कर मैं दंग हो गया। मेरे दिमाग में उसके पागलपन को लेकर असमंजस की भावनाएं और गहरी हो गई। इसलिए मैं वहाँ से आकर डॉक्टर मिथलेश के पास गया, और उन्हें जब यह सारी बात बतायी, तो उन्होंने कहा हाँ यह एक मानसिक बीमारी है। एक तरह का पागलपन ही कहा जा सकता है। जिसमें इंसान अपनी तात्कालिक जिंदगी भूल जाता है और इस बीमारी के शिकार होने से पहले उसने जो सीखा या पढ़ा होगा, या किताबी ज्ञान हासिल किया होगा वह उसे इस बीमारी के दौरान याद आता रहता है। इसलिए तुमने जब सवाल किया उसने एक झटके में जवाब दिया, इससे यह पता चलता है वह किसी भी चीज को अपने अंदर कितने अच्छे से रखता होगा। ऐसे केस में मरीज के ठीक होने की संभावनायें होती है मगर जिस वजह से याददास्त गई है वह वजह वापस मिल जाये तो ” 

रघु के परिवार वालों ने कोर्ट के आदेशनुसार उसे कांके के पागल खाने में भर्ती करवाया, लेकिन वह वहां से बार-बार भाग जाता था। रघु के इस रवैये से थक हार कर अस्पताल वालों ने उसे परिवार के हवाले कर दिया गया। ऐसी हालात में वह घर पर भी कहाँ टिकने वाला था। उसे तो पागल आशिक के जैसे सड़कों का ख़ाक छानना है।   

ओह ... पर दीपक चा हुआ क्या था रघु के साथ और वह इस हालत तक कैसे पहुँचा?

जिस बैकुंठ सिंह की हत्या का इल्जाम इस पर लगा था। एक समय रघु उसकी बहन रीना से प्यार करता था। रीना,रघु के साथ टी.पी. कॉलेज में पढ़ती थी। उन दोनों की मुलाकात ग्रेजुएशन के फर्स्ट इयर के हिंदी ओनर्स के प्रथम क्लास में हुई, जब मणिभूषण वर्मा जी हिंदी का क्लास ले रहे थे।

वर्मा जी की क्लास की प्रतीक्षा सबों को रहती है, धारा प्रवाह बोलना, छात्रों के प्रति आत्मीयता, विषय पर उनकी गहरी पकड़ ने उन्हें छात्रों का चहेता बना दिया है। गंभीर से गंभीर विषय की सहज अभिव्यक्ति उनकी खासियत है। छात्रों की नज़र मेरे साथ दरवाजे पर टिकी, उपस्थिति पंजी के साथ वर्मा जी के दाखिल होते ही सभी उठ खड़े हुए। वर्मा जी ने हँसते हुए बैठने को इशारा किया।  उपस्थिति लेने के उपरांत, उन्होंने विद्यापति का काव्य परिचय देने के पूर्व, उनकी प्रचलित इन पंक्तियों को रखा ...

असक लता लाओल सजनि

नैनक नीर पटाई,

से ही फल अब तरुनित भल सजनि

आँचर तर न समाई ।

इन पंक्तियों में एक ओर जहाँ नारी के पीड़ा को अभिव्यक्ति मिली है, वहीँ  बाल विवाह से उत्पन्न होने वाले दुष्परिणाम को भी कवि ने रेखांकित किया है। किन्तु यहाँ भी पीड़ा में कवि ने अपूर्व सौंदर्य का दर्शन कराया है। यहाँ कवि की विलक्षण कल्पना और उनकी पैनी दृष्टि और मांसलता के प्रति सामान्य जिज्ञासा सहज दिखाई पड़ती है। यह स्वाभाविक है षोडशी बाला के प्रति किस ह्रदय में काम नहीं जगता। फुलवारी का माली ही यदि अनुपस्थित हो तो फूलों को लुटने की प्रवृति तो लोगों में होगी। इतना सहज है कि सौंदर्य के प्रति आकर्षण स्वाभाविक है। 

लेक्चर देते हुए, वर्मा जी ने रघु को अचानक उठा कर एक सवाल पूछा, और उसका जवाब सुन कर प्रोफेसर साहब मंत्रमुग्ध हो गये, रघु ने इतने अच्छे  से जो जवाब दिया था। प्रोफेसर ने लड़कियों के कतार से रीना को उठाकर कर पूछा क्या तुम उस लड़के की उत्तर से सहमत हो?

रीना ने कहा मैं इतेफाक नहीं रखती किन्तु एक हद तक सहमत हूँ, उनके दिए जवाब से

"श्रीमान ... मणिभूषण जी, अगर आप का क्लास ख़त्म हो गया हो तो मुझे मौका दे, बच्चों को इतिहास मुझे पढ़ाना है। " 

प्रोफेसर के साथ हम सभी ने जब उस आवाज़ की ओर मुड़ कर देखा तो क्लास रूम के दरवाजे पर जनार्दन बाबू खड़े थे। अगली क्लास उनकी होनी थी। हाँ मैं भी इसी क्लास में बैठा था। उन दोनों के साथ मेरा भी ग्रेजुएशन चल रहा था।
    
मणिभूषण बाबू ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, महोदय आइये, आइये, मैं तो यूँ ही बच्चों से सवाल जवाब कर रहा था। फिर वह हम लोग से मुखातिब होते हुए बोले आगे कल करते हैऔर क्लास रूम से निकल गये । 

उस दिन पुरे क्लास में रघु रीना को कनखियों से देखता रहा, वह थी ही इतनी खुबसूरत कि रघु के साथ क्लास के और लड़के भी प्रोफेसर से नज़र बचा के उसकी ओर देख लेते। उस दिन रीना हरी कुर्ती और लाल चूड़ी दार पजामा पहनी थी। अठारह वर्ष की उमर में आकर और कालजे में होने के बाद भी उसे चेहरे पर लीपा पोती  करने का शौक नहीं था। वह बिना मेक-उप के ही अजंता की कोई जीवित मूरत लगती। उसकी देह-व्यास खजुराहो की कलाकिर्तियों की याद दिलाती थी। क्लास समाप्त होने के बाद रघु बड़ा हिम्मत कर के रीना के पास गया और कहा धन्यवाद रीना जी एक हद तक सहमत होने के लिए, मेरा नाम रघु यादव है, अगर आपको ऐतराज न हो तो क्या मैं पूछ सकता हूँ कि आप क्यों नहीं इत्तेफाक रखते मेरे दिए गये उस जवाब से?”

लड़कियों से बात करने का तरीका अच्छा है? मगर मैं तुम लड़कों के झांसे में फँसने वाली नहीं हूँ। रीना ने रघु से कहा, इससे पहले कि वह कुछ और बोलती उसके ही पीछे खड़ी उसकी सहेली ने कहा अरे बता दो रीना, वरना इन लड़कों को रातों को नींद नहीं आएगी 

रास्ते से भटक कर रघु के लिए ऐसी सोच रखना, रघु को नगंवार गुजरा। उसने माफ़ी मांगते हुए रीना से कहा माफ़ करना मुझे लगा कि आपके तर्क को जान कर कुछ सीखने को या मुझे मेरी कमियों का जानने का मौका मिलेगा, मगर तुम तो और लड़कियों की तरह खाली निकली

यह कह कर रघु उलटे पाँव वहाँ से चला गया। किन्तु रघु की बात ने रीना को उसके लिए सोचने पर मजबूर कर दिया। उसने ऐसा क्यों बोला? रीना किसी नतीजे पर पहुँचती उससे पहले उसकी दूसरी सहेली ने उसे हिलाते हुए कहा कहाँ खो गई रीना मैडम, कहीं कॉलेज के सबसे तेज़ लड़के रघु से मिलकर, तुमको भी उससे क्लास लेने की युक्ति तो नहीं सुझ रही है।

अरे नहीं ... मुझे भला किसी मदद की क्या जरुरत? वह होगा कॉलेज का तेज़-तड़ाक लड़का, मगर मैं किसी से कम हूँ क्या ? 

उस रात नींद रघु जैसे लड़कों की नहीं उड़ी बल्कि रीना की उड़ी थी। उसे पूरी रात अफ़सोस होता  रहा  की उसने रघु को क्या समझा और वह क्या निकला, उसे रघु के साथ ऐसे बात नहीं करनी चाहिए थी? रात किसी तरह बिता कर वह अगले दिन कॉलेज में रघु से मिलकर माफ़ी माँगी और दोस्ती कर ली। धीरे-धीरे यह दोस्ती प्यार के शक्ल में बदल गया।

एक दिन इन दोनों की प्यार की खबर रीना के भाई बैकुंठ सिंह को लगी। उसने पहले तो आग बबूला होकर रीना को डांटा फिर कालेज जाने से मना करते हुए कहा थोड़ा सा तो अपने बाप-दादा के इज्ज़त का ख्याल करती, तुमने तो वर्षों से बनाई मेरी भी इज्ज़त को ख़ाक कर दी। तुमने सोच कैसे लिया वो सरयू का बेटा इस घर का दामाद बनेगा। अरे जिसके पास एक साँझ खाने के लिए पैसे नहीं है। जो अपना व अपने परिवार का पेट बीड़ी बांध-बांध कर बड़े मुश्किल से चलाता है, वह कैसे तेरा ...। बेहतर होगा ये फितूर उतार दो

मगर भैया ...

अगर मगर मत करो, जितना बोल रहा हूँ उतना ही कान खोल कर सुन लो। वे लोग न ही हमारे बिरादरी के है और न ही हमारे बराबरी के, समझी की न । 
  
बैकुंठ सिंह ने उसी दिन रीना का बियाह सहरसा के भूषण सिंह के छोटे भाई राकेश से तय कर दिया। राकेश जो कि पूर्णिया के बैंक में असिस्टंट मनेजर था। रीना को इसकी जानकारी छेका के दिन हुई। जब लड़के वाले रीना को छेंकने आये। रीना तैयार नहीं थी, मगर रघु की जान के सलामती के लिए अपने भाई बैकुंठ सिंह के सामने वह झुक गयी। 

इस बात की ख़बर जब रघु को लगी तो गुस्से में तमतमाता हुआ वह रीना के घर पहुँच गया। जहाँ उसकी मुलाकात रीना से तो नहीं हो पाई मगर बैकुंठ सिंह से हो गई। दोनों में रीना को लेकर काफी तू तू मैं मैं हुई। आखिर में रघु को वहाँ से खाली हाँथ वापस आना पड़ा।

एक सप्ताह तक रघु रीना से मिलने के लिए पागलों के तरह तड़पता रहा परन्तु वह मिल नहीं पाया। रीना उसे मिलती कैसे रघु जिस दिन रीना के घर पर गया था उसके ही अगले दिन रीना की शादी सिहेश्वर मंदिर में राकेश के साथ जबरदस्ती करवा दी गई। रीना शादी के रात ही सहरसा आ गई थी। इसलिए रघु उसे ढूंढ नहीं पा रहा था। वह रीना के वियोग में पागल सा हो गया था, न कॉलेज ही जाता, न कुछ ओर ही करता पूरा दिन चुप-चाप खामोश पड़ा रहता।

रीना के शादी के एक सप्ताह के बाद मंगलवार का वह दिन था, जब ख़बर आई कि रीना ने पंखे से झुल कर अपनी जान दे दी। रीना के मौत के खबर से पूरा मुहल्ला समाज सदमें में पड़ गया। उसने तो अपने प्यार के खातिर अपनी जान दे दी मगर रघु के बारे में नहीं सोचा कि उसके चले जाने से उसका क्या होगा। मुझसे नहीं रहा गया मैंने यह खबर जा कर रघु को सुनायी। रघु जो कि रीना के वियोग में पहले से पागल था मेरी बात सुन और सदमे में चला गया। चिल्लाते चीखते हुए मेरे सामने ही उस वक़्त अजीब हरकतें करने लगा था, जिसे देख कर मैं डर से वहाँ से भाग आया। 

दुर्भाग्यवश अगले ही दिन रघु ने बैकुंठ सिंह की हत्या कर दी और थाने जा कर अपना जुर्म काबुल कर खुद को पुलिस के हवाले कर दिया। चार साल जेल में रीना के बिना, उसके ही यादों में खोया एक काबिल नौजवान, बिरादरी और स्टेटस के लिए बलि चढ़ कर पागल हो गया। क्या होता बैकुंठ सिंह अगर अपनी  बहन का ब्याह उससे कर देता तो? एक भाई को बहन की ख़ुशी के अलावा क्या चाहिए बेवकूफ पैसों के खातिर तीन जिंदगियाँ बर्बाद कर दिया।

अचानक एक तेज़ आवाज़ हुई, कुछ लोग आवाज़ की ओर भागे। लगभग समाप्त हुए कहानी को छोड़ कर, मैं और दीपक चा उस आवाज़ की ओर भागे। उस आवाज़ वाली जगह पर पहुँचने के बाद हमने देखा रघुआ जख्मी सड़क पर लेटा हुआ है। एक ट्रक ने उसे कुचल दिया था। लोगों की भीड़ उमड़ी हुई थी मगर किसी ने उसे अस्पताल तक पहुँचाना सही नहीं समझा। वहाँ मौजूद भीड़ उसे  देख कर मुँह फेर कर एक दुसरे से कहता रघुआ पगलवा .. मर गया। दीपक चा के साथ मैं भी रघु के पास बैठा, उसके आँखें खुली थी और साँसें सीने में दफ़न हुई पड़ी थी। वह वाकई में मर चूका था। परन्तु उसके खुली आँखों में कई सवाल थे। जो जवाब चाहते थे। क्या प्यार करना गुनाह है, या गरीब होना, क्या मैं पागल था या पूरी दुनिया पागल थी, या ... एगो बात छय, दूगो बात छय और सब बात छय .... ठस ।।                                 
    

  

Tuesday, June 23, 2015

दोहरी गलती ....



धत्त ... बीहने-बीहने किस अभागिन, कलंकनी को देख लिया! हुक्के को गुरगुराते, धुएँ के सफेद छल्लों से नीम के पेड़ के निचे के स्वच्छ माहोल को दुषित करते हुए बंग्ट्टू चौधरी ने कहा, “आज जरुर फिरो एक अन्न का दाना नसीब नहीं होगा” !    
“हाँ .. चौधरी जी, कलमुंही, कलंकनी को जो देख लिया है, और तो और, जब से अपने पति को खाई है, तब से गाँव के लोग इसको डायन कह कर पुकारते है! देखिये देखिये कैसे सफेद साड़ी में” ...
ओमल का बात पूरा होता की चौधरी ने उससे पहले हुक्के के आग को इकठ्ठा करते हुए बोला “सफ़ेद साड़ी में चुड़ेल लग रही है, यही न ओमल भाई, ऐसा जैसे कोई राक्षसनी भेष बदल कर हमरे गाँव में आ गई हो!”
इसमें कोनो दोराय नहीं है, आप सहिये कह रहे है, और एगो बात जानते है चौधरी जी, जिस दिन इ ब्याह कर के आई, कलमुंही, ससुरी उस दिन मेरा एक जोड़ी बैल खा गई! हमका तो लगा जीवछपुर वाली को जा कर कह दे कि, किसको ब्याह कर ले आई हो? देखिये एक सप्ताह नहीं गुजरा और बेचारा शिवहर ...
कमाल है महराज, आप लोगों का भी, आप लोग क्यों बोरा रहे है? ई सब भाग का लिखा होता है और इसमें उस बेचारी परवतिया का दोष है! ओमल भाई आपके बैल का तबियत तो पहले से खराब था, और शिवहर का मौत एक शहीद के जैसे हुआ, जंग में तो जान जाती ही है! राष्ट्र के लिए शहीद होना गौरव की बात है! हाँ दुर्भाग्यपूर्ण यह हुआ कि बेचारा अपनी पत्नी के साथ एक रात गुजार नहीं सका किन्तु मुझे इस बात का फक्र है! हमारे इस छोटे से चिकनी गाँव में इतने बड़े बलिदानी लोग भी है! इसलिए कहता हूँ, आपलोग पढ़े लिखे जिम्मेदार व्यक्ति है! जरा सोच कर बोला कीजिये, इस चौपाल से उठने वाली हर बात गाँव वाले सर माथे पर रखते है! देखिये, तो जरा परवतिया के ओर उस मासूम के बारे में सोचिये, इस वक़्त उसपे क्या गुजर रही होगी! अभी मेहँदी का रंग सुर्ख लाल भी नहीं हुआ था की विधाता ने उसको सफेद साड़ी में लपेट दिया! कम से कम उसकी दुःख को दूर नहीं कर सकते तो बढाइये भी तो नहीं!
ह्म्म्म ..  राजन भाई, आपको बड़ी चिंता हो रही है, वैसे लगती कौन है वह आपकी? राजन  अपने कुरते के आस्तीन को समटते हुए उत्तर दिया “चौधरी जी, लगेगी कौन, गाँव के जैसे और लोगों के साथ मेरा रिश्ता है! वैसा इसके साथ भी है, इंसानियत का!”
सिर्फ इंसानियत का ही कुछ और तो नहीं है न! आप भी जवान ठहरे और वह भी! उपहास करते हुए चौधरी ने कहा! ओमल के उपहास से राजन को गुस्सा आ गया, उसने तल्ख लहजे में चेताते हुए कहा, “ओमल भाई इतना बेहूदा मजाक मुझे बिलकुल पसंद नहीं है! आगे से इसका ख्याल रखियेगा तो सभ्यता होगी!”     
पार्वती जिसकी बातें चौपाल में बैठे बंग्ट्टू, ओमल, राजन और अन्य कर रहे है! वह इन सबों के बातों से कहीं दूर, कुए के गहराई से तांबें के मटकी में अपनी बिखरी हुई जिंदगी को छान कर निकालती हुई, सोच रही थी! “शिवहर रहता तो कितना अच्छा होता, आज मुझे गाँव समाज के साथ सास की भी दिल को भेदने वाली रोज की प्रताड़ना नहीं सुननी पड़ती! अब मैं किसको किसको समझाऊ कि मैं न ही अभागिन हूँ, न ही कलंकनी हूँ और न ही मैंने अपनी पति को खाई है! बुदबुदाती हुई ... मैं डायन भी नहीं हूँ...”!
मठके को पानी से भर पार्वती ने धीरे से कमर पर टिकाया और चौपाल की ओर कदम बढ़ाने लगी! तीखी नैन नक्स की भोली सी लड़की, सफेद साड़ी में भी उसकी खुबसूरती आँखों से समेटी नहीं जा रही थी! वह यूँ लग रही थी, जैसे पान के पत्ते पर पूजा का कोई पिठार लेप रखा हो! सुराही दार कमर पर पानी से भरा मटका उसके चालों को बलखाती नदी सी मादकता दे रही थी! कभी-कभार कमर के ज्यादा लचकने से मटका का पानी छिलक कर साड़ी को भिंगाता हुआ जमीन पर गिड़ता, तो मुझे उसके विशाल हिर्दय के होने का एहसास होता! कैसे वह लोगों के इतने सारे तंज सुनने के बाद भी तनिक भी विचलित नहीं होती, हाँ जब सर से उसके पानी उपर होने लगता है तो वह इस मटके की तरह उनके तंजों को अपने दिल से छलका कर बाहर कर देती! वाकई में विशाल हिर्दय रखती है वह भी सत्रह वर्ष की छोटी सी उमर में! उसकी सहनशीलता अवध की औरत की ऐसी चरित्र को दर्शाती है, जिसे देखकर मन प्रसन्न भी होता है और कुंठित भी! उसके जैसी औरत सिर्फ यहीं मिल सकती है और दुनिया में कहीं नहीं! बड़ा ही अदभुत और पावन सा एहसास हो रहा है पार्वती को देख कर, किन्तु आज उसके बढ़ते क़दमों में मुझे एक मौन बगावत भी दिख रहा है! “भगवान जाने यह क्या है? यह मेरा एक भ्रम भी हो सकता है! भ्रम ही हो तो अच्छा हो ... !!”    
पार्वती को चौपाल की ओर आते देख, ओमल ने ठंडी सांसें भरते हुए राजन को कहा, “देखिये राजन भाई .. देखिये, क्या नज़ारा है, ससुरी क्या कातिल लग रही है? और किसी का जान लेगी, अवश्य देख लीजिये!”
राजन ने ओमल को झरकाने वाला उत्तर दिया, भगवान करे जान जानी अहिं से शुरू होए, कब्र में पैर लटके हुए है और बातें तो दिखिए श्रीमान के ...         
पार्वती चौपाल के सामने पहुँच कर, मटके से पानी छलकाते हुए जमीन पर शून्य की आकिर्ति बना दी, फिर एक हेय भरी नजर से जमीन पर बने शून्य की आकिर्ती और हम सब की ओर देखकर अपने घर की ओर चली गई! वह भी बिना कुछ कहे! पार्वती के इस हरकत को देख हम सब की आँखें विस्मय से फटी रह गई! मेरे दिर्ष्टि में उसने तो हमारे रोज के तंजों का एक विदुषी महिला के तरह मूक होकर जो जवाब दिया था वह सोचनीय है! जिसे समझने के लिए पार्वती के अंदर उतरे बिना किसी के लिए संभव नहीं! लोग भले ही उसको जाहिल गंवार समझते हो किन्तु मैं तो अब ऐसा कदापि नहीं सोचता!
अरे राम ... देखिये ई बित्ते भर की औरत, क्या कर के चली गई! ऐ राजन भाई आप तो ज्यादा पढ़े लिखे है जरा बुझाइए तो सही उस कलमुंही के अनायास किये गये, इस हरकत का मतलब?
राजन एमऐ किया है! न्यायपालिका और न्याय व्यवस्था में दिलचस्पी बचपन से होने के कारण! गाँव वालों ने उसे चौपाल पर विराजमान किया है बूढ़े और संवेदनहीन लोगों के बीच! 
राजन ने चौधरी को कहा “चौधरी जी बोईयेगा बबूल तो आम कहाँ से मिलेगा, अब वक़्त वह नहीं है! जब औरत मर्दों की पाँव की जूती हुआ करती थी! अब तो औरतें अपने अपमान और तिरस्कार का खूब जवाब देना जानती है और उसने मूक होकर हम मर्दों को एक संवेदनशील जवाब दिया है!”
कैसा जवाब राजन भाई?  
यही कि वक़्त बदल रहा है, आप लोग भी खुद को बदल लीजिये! उसके इस हरकत का मतलब इतना है कि “इस विशाल धरती पर हमारी मानसिकता उसके नजरों में शून्य के बराबर है और कुछ नहीं!” खैर मैं अब चलता हूँ, मुझे एक रिश्तेदार के यहाँ मुंडन में जाना है, आप लोग हुक्के के बुझे राख से चिंगारी तलाशते रहिये! राम–राम !!
पार्वती आज चौपाल पर बैठे सम्मानित लोगों को जवाब दे कर हल्का महसूस रही है! चौपाल पर बैठे लोग हर रोज अपने मर्यादा से बाहर निकलकर उसे न जाने क्या क्या कहा करते थे! वह घर तो चली आई है किंतु उसके मन में एक अपराधी की भावना कचोट मार रही है! जैसे कि उसने चौपाल मैं बैठे लोगों को जवाब दे कर कोई अपराध किया हो!
अब क्या तोड़ दी तूने, कलमुंही? एक तो इस उमर में कमर तोड़ डाला और कुछ रह गया है क्या बांकी, करमजली, डायन?
माँ जी टूटा कुछ नहीं मटका गिरा .. हाँथ से न जाने कैसे फिसल गया!
तो तू क्यों नहीं गिर कर मर गई उस मटके के साथ, न जाने क्या पाप घेरा था! जो तुझे इस घर में ले आई! डायन भी एक घर बकस करके चलती है और तू तो अपने ही घर को ...
माँ जी .. भगवान के लिए, उनके मौत का जिम्मेदार मुझे नहीं समझिये! अगर आप ही ऐसा कहेंगी तो बाहर वाला मुझे तो तानों से नौच नौंच के खा जायेगा!
अच्छा ही होगा कम से कम पिंड तो छूटेगा, तूझ जैसे डायन से!
इस छोटी सी उमर में पार्वती का विधवा होना उसके लिए एक अभिशाप बन चूका है! उसे हर कदम पर ऐसे ही तीखे हिर्दय को भेदने वाले ताने सहनी और सुननी पड़ रही थी! जबकि सब जानते है, जीवन और मरण सिर्फ उपर वाले के हाँथों में है, फिर पार्वती के आस पास के लोग शिवहर की मौत का जिम्मेदार उसे क्यों समझते है?
एक सप्ताह के बाद चौपाल पर भीड़ लगी हुई है! बंग्ट्टू और ओमल के साथ सबकी नज़र जुम्मन दर्जी पर जमी हुई है!    
उहहू... उहहू... “जब तक जियेंगे तब तक सियेंगे”! अपना तकिया कलाम मारते हुए जुम्मन दर्जी, एक पतली सी छड़ी के सहारे अपने देह संग भू-कंपन की स्तिथि में खड़ा, बकरे जैसे दाढ़ी पर हाँथ फेरते हुए, बड़े ही आत्मविश्वास से कहा “चौधरी जी, अल्लाहं मियां जी की कसम, मैंने जीवछपुर वाली के बहु को राजन के साथ शिवमंदिर के पीछे वाले आम के बगिया में देर रात को जाते हुए देखा था”!
मियां जी आप इतनी रात को वहाँ क्या कर रहे थे ? चौपाल पर बैठे बंग्ट्टू चौधरी ने गाँव के दर्जी जुम्मन से पूछा!
उहहू, उहहू .. चौधरी जी उमर ही ऐसी हो गई है कि, कुछ याद ही नहीं रहता, दरअसल में, परसों यूनानी हकीम साहब से अपने पेट के हाजमा के लिए कुछ सफेद गोलियाँ लिया था! जिसे मैं उस रात को अपने दुकान में भूल आया था! रात को घर पर जैसे ही मुझे याद आया, मैं वापस दुकान गया! इसी क्रम में मैंने इन दोनों को देखा था!
ओ .... फिर आपने उसी वक़्त जीवछपुर वाली को क्यों नहीं बताया, यह बात जा कर!
ओमल भाई आप भी कमाल करते है, भला इतनी रात को शरीफों का किसी के घर जाने का वक़्त होता है क्या? मैं रात के बदले फजर के नवाज़ के समय गया था! उस वक़्त जीवछपुर वाली सो रही थी! आगे आप जीवछपुर वाली से खुद पूछ लीजिये!
जीवछपुर वाली क्या जुम्मन मियां सही कह रहा है?
हाँ .. चौधरी जी इ सही कह रहे है! मुझे तो इस निरलज्ज, मुझोंसी ने कहीं का नहीं छोड़ा, बाप रे ऐसी भी औरत होती है? जो थी, सो थी, अब तो यह बेहया भी हो गई है! आप सब पंच परमेश्वर से मेरी विनती इतनी ही है कि, मुझे इससे पीछा छुड़ा दीजिये! अब मैं और इसको अपने घर में और नहीं रख सकती!
जीवछपुर वाली आप इत्मीनान रहिये, यहाँ दूध का दूध और पानी का पानी होगा, केवल आप अभी इतना बताइए की जुम्मन जब पहुँचा आपके पास तो क्या हुआ?
उ दिन भिंसरा में जब चुम्मन पहुँचा तो मैं ओसरे पर सो रही थी! सहसा नींद में, जब मुझे पुकारे जाने की आवाज़ कानों में पड़ी तो घबरा के उठी और जुम्मन को देख कर चौंकते हुए कहा “क्या हुआ जुम्मन भाई इतना भिंसरा में “ फिर जुम्मन ने आँखों देखि रात की सारी बात मुझे बता दिया! उसके बातों पर विश्वास न करते हुए, मैंने जब इस कलमुंही के कमरे में गई तो वह वहाँ नहीं थी! मतलब फिर साफ़ था, वह रात को गायब थी अपने यार राजन के साथ!
वही चौपाल में आरोपी बनी पार्वती पाँव के अंगूठे से जमीन को कुरेदते मौन हो कर जैसे यह कह रही हो “हे धरती माँ फटो और मुझे खुद में समा लो, आज तेरी एक और बेटी के चरित्र पर झूठी उँगलियाँ उठाई जा रही है!” और दूसरा आरोपी बना राजन बस यह सब हँसते हुए देख रहा है! उसे कोई फर्क नहीं पड़ रहा है, क्योंकि वह जानता है यह सब एक साजिश है जिसकी आड़ में उसको सरपंच के पद से साथ-साथ गाँव छोड़ने का भी सज़ा मिलने वाली है! क्योंकि पंचायत के अन्य सदस्य बंग्ट्टू, ओमल, हरेराम और देवन को वह फूटी आँख नहीं सुहाता! सिर्फ थोड़ी बहुत जो चिंता की लकीरे उसके माथे पर उभरी हुई है वह परवतिया को लेकर है, न जाने ये मक्कार और मौकापरस्त पंचायत के लोग उसके साथ क्या सलूक करेगें!
जीवछपुर वाली की बात पूरी होते ही सब मौन हो गये! जुम्मन और जीवछपुर वाली के गवाही से आरोप जो साबित हो चूका था! चौपाल के उस सीमेंट के बने चबूतरे से रह रह कर हुक्के की गुरगुराहट की आवाज़ और दबे स्वर में पार्वती को सज़ा देने की बात उठ रही है!
ओमल ने चौधरी में कानों में फुसफुसाते हुए कहा “ऐ चौधरी जी, गाँव के लोग बहुत आहात है! वे लोग चाहते है विधवा पार्वती को उसके कुकर्म की कड़ी से कड़ी सज़ा मिले! ताकि गाँव के अन्य बहु बेटी ऐसा करने से पहले इस घटना तो याद रखे”!
हाँ ...ओमल भाई! यह हमरा चिकनी गाँव भले ही छोटा है किन्तु इसकी इज्ज़त बहुत बड़ी है! इसलिए गाँव के हित में और गाँववालों को ध्यान में रखकर कुछ सटीक सज़ा देना होगा ताकि आगे कोई इस तरह की हरकत को दुहरा न सके! किन्तु ओमल भाई यहाँ सवाल सिर्फ पार्वती का नहीं है न, यहाँ तो रक्षक बने भक्षक राजन का भी है! वैसे तो यह बहुत गंभीर मसला है परन्तु हल निकल ही जायेगा कुछ न कुछ!
राजन ने चुप्पी के शीशे से पहाड़ को अपने स्वर की कंकड़ी से तोड़ते हुए कहा “अरे महराज आपलोग फैसला सुनाने में इतनी देरी काहे कर रहे है, जब आरोप साबित हो चूका है! वैसे तो बिना सबूत का बेगुनाह भी गुनाहगार हो जाता है, और हमलोगों के पास तो अपनी बेगुनाही का कोई सबूत भी नहीं है! अब यह बेचारी बेबा अपना सबूत कहाँ से लाये, सुना दीजिये बेचारी को फैसला इस बेचारी के आँख की भी पट्टी खुल जाए!”   
पार्वती अब भी मौन थी, उसके पास अपने बेगुनाही का कोई सबूत नहीं था! उस रात को वह घर पर ही थी, न तो कोई जुम्मन आया था, न ही उसकी सास! वह समझ रही है यह सब किया धरा उसकी सास जीवछपुर वाली और चौपाल के चौधरी व ओमल का है! भले ही निशाना बेचारा राजन है पर कंधा तो मेरा ही इस्तमाल हो रहा है! एक औरत के मौन होने की इतनी बड़ी सज़ा वाह रे न्याय ... वाह रे समाज !
आखिर में पार्वती को गाँव से धक्के मार कर बाहर करने और राजन को पंचायत के पद छोड़ने व उसे भी गाँव छोड़ने की सज़ा दी गई! परवतिया मौन है क्योंकि वह ऐसा ही चरित्र की है! वह जुल्म सह लेगी पर उफ्फ्फ नहीं बोलेगी! मगर राजन तो पढ़ा लिखा नौजवान है कम से कम उसे तो इस वक़्त परवतिया का बचाव करना चाहिए था! उसके चलते उसे बदचलन करार दे कर गाँव से निकाला जा रहा है! वह चाहे तो परवतिया को बचा सकता है! किन्तु हुआ वही जैसा पंचायत चाह रहा था!  
वक़्त अपनी नंगी टांगों के सहारे बेधड़क दौड़ता रहा! छह वर्ष के पश्चात् आज फिर परवतिया इन्साफ के लिए खड़ी है!              
आर्डर... आर्डर...
हाँ बोलिए ... परवतिया .. आप क्या कह रही थी? जज ने कोर्ट रूम में लकड़ी के मरियल से हथोड़े को मेज पर पटक कर, वहाँ पर बैठे लोग और वकीलों को शांत करते हुए कहा “किर्पया आप सब परवतिया को कहने दे, वह जो कहना चाहती है ... हाँ बोलो परवतिया ”!
साहिब ... ई छप्पन ने मेरा इज्ज़त लुटा है! परवतिया ने सामने के कटघरे में खड़ा छप्पन की ओर ऊँगली दिखाते हुए कहा!
परवतिया के लगाये गये इस आरोप पर मुज्जफ्फर पुर के छोटे से इस सेशन कोर्ट में फिर से हँगामा हो गया! छप्पन लड़कियों और औरतों का दलाल है, वह शहर के अय्यास और पैसे वाले लोगों के लिए लडकियाँ सप्लाई करता है! दो दिन पहले ही उसकी नजर परवतिया पर पड़ी थी, उसने उसी रात परवतिया को बुला कर धोखे से इज्ज़त लुट लिया! लोग समाज में अपनी छवि साफ़ सुथरा बनाये रखने के लिए वह कोयले का धंधा करता है! परवतिया चौपाल के उस दिन के हादसे के बाद मुजफ्फरपुर चली आई एक नामी वेश्या बन गई, परन्तु वह वेश्या हुई तो क्या हुआ उसके मर्जी के खिलाफ शारीरिक संबंध बनाना भी बलात्कार के श्रेणी में आता है!
बचाव पक्ष के वकील ने हँस कर खिल्ली उड़ाते हुए कहा “हाहा ..जनाब, एक वेश्या अपने इज्ज़त के लुट जाने की आरोप लगा रही है! क्या दिन आ गया है, वह भी मेरे मुवक्किल पर जबकि सब जानते है! छप्पन का छवि समाज के बीच काफी साफ सुथरा और नारिहितेशी है!”
साहिब ... कौन से किताब और कौन से कानून में लिखा हुआ है की एक वेश्या की इज्ज़त नहीं होती, और इज्ज्ज़त महिला की ही लुटी जाती पुरुष की नहीं! साहिब मोटे मोटे किताब पढ़ कर भी आपके ये वकील काफी अनपढ़ जैसे बाते करते है! किस जंगल में आपने भेड़िया को बकरी के हितेषी के रूप में देखा है! जरा वकील साहब से पूछिये और लीजिये जवाब ?
परवतिया के सवाल और दलील ने न सिर्फ जज के होठों पर बल्कि वहाँ बैठे सभी तमाम लोगों पर ताला लगा दिया था! किन्तु मुकदमा दलीलों के आधार पर नहीं जीता जाता है, अंधी कानून व्यवस्था को तो सिर्फ और सिर्फ सबूत चाहिए! जो इस समय शहीद के बेबा से वेश्या बनी परवतिया के पास नहीं है! घंटों के बहस के बाद आखिर जज ने फैसला सुनाया!
परवतिया को समाज की गंदगी का संज्ञान देते हुए, जज ने कहा ”परवतिया जैसे औरतें, वैसे तो समाज की गंदगी होती है! किन्तु इन बातों को भी नजरंदाज़ नहीं किया जा सकता कि कोई औरत अपनी मर्जी से वेश्या नहीं बनती! जहाँ तक मैं समझता हूँ परवतिया भी कुछ ऐसी ही हालातों का शिकार हुई है! आज भले ही परवतिया के पास सबूत नहीं है परन्तु मुझे मालूम है परवतिया जो इल्जाम लगा रही है! वह बिलकुल सत्य है! हम यहाँ गुनहगार को सज़ा देने के लिए बैठ हैं, बेगुनाहों को गुनहगार बनाने के लिए नहीं, और वही सबूत परवतिया के पास नहीं है! इसलिए छप्पन जैसे इज्जतदार आदमी के उपर इल्जाम लगाने के लिए उसे छह महीने की कारावास की सज़ा सुनाई जाती है! यदि परवतिया चाहे तो तीस हज़ार के निजी मुचलके पर कारावास से बच सकती है! वहीँ छप्पन को बाय इज्जत बरी करने का हुक्म दिया जाता है! आपलोगों के सामने मैं अपना इस्तीफा भी रख रहा हूँ, यह मेरे जिंदगी का पहला केश है और आखरी भी है! क्योंकि मैं एक बार फिर इंसाफ नहीं कर सका!
परवतिया के आँखों से आँसू ढब ढब कर गिरने लगा और जज बना राजन उसे देखते हुए कोर्ट रूम से बाहर निकल गया!
राजन इन छह साल में जज बन गया था और किस्मत की मार तो देखिये उसे पहला मुकदमा मिला भी तो परवतिया की! राजन कोर्ट से बाहर आकर तीस हज़ार रूपये जमा कर के परवतिया को छुड़ाया और माफ़ी मांगते हुए कहा “तुम्हारी इस हालात का गुनाहगार मैं हूँ काश कि मैं उस दिन चौपाल में बोल पाता, आज भी मुझे पता था कि तुम सही हो फिर भी मैं कुछ नहीं कर पाया! मैं ज्यादा तो कुछ नहीं कहूँगा पर अपनी दोहरी गलती सुधारने के लिए तुमसे शादी करना चाहता हूँ ताकि तुम समाज में सम्मान के साथ जी सको, जो मेरे कारण तुमसे छिना गया है!”
हाहाहा .. राजन जी, आप परुषों ने हम नारियों के लिए कोई रिश्ता और जगह सम्मान से जीने के लायक छोड़ा ही कहाँ है! आपको याद हो तो एक दिन के सुहागिन के बाद आपलोगों ने ही मुझे अभागिन कहा फिर बेहया बचलन और अब रंडी बना दिया, आज जब वही रंडी इंसाफ माँगने गई तो कानून ने समाज की गंदगी कहा गया! जाइये जाइये पहले अपने रगों में से औरत के लिए बह रहे गंदगी को निकलाये, हमें सम्मान खुद-व-खुद मिल जायेगा!