Monday, October 21, 2013

कौन किसको है समझा ...



शायद मैं जल रहा हूँ,
लोग हँसते है,
मुझे इश्क़ के सिवा कुछ न आया,

ऐ काश !
कहीं से आके
ऐसे में तू समझा जाती "इनको"
जितना भी सीखा तुमने
तुझे बहुत है आया,

की लोग हँसते है ...
मुझे इश्क़ के सिवा कुछ न आया,

कम कैसे हैं ये तासीर इश्क़ के
जब खूं के जैसे ताबीर अश्क के
खुद समझ कर
जब औरों को ये समझा न पाया,

फ़कत गुलिश्तां में तो गुल भी जीते है
क्यों काँटों को कोई देख न पाया,

की लोग हँसते है ...
मुझे इश्क़ के सिवा कुछ न आया,

झाँक अपने में तोहमत खेर जलील-ए-नज़र
तुझे क्या मिला मुझे क्या मिला नूर-ए-हसर
उड़ा के खिल्लियाँ
जब तू खुद मुख़्तसर खिल न पाया,

उम्र भर खंगालते रहे गैरों को
क्यों कभी अपने अस्क को तू छू न पाया,

की लोग हँसते है ...
मुझे इश्क़ के सिवा कुछ न आया !

Wednesday, October 16, 2013

"काश मेरा ये प्रेम तुमसे होता" ...



ऐ मूरत !
शायद आज तुमने
कुछ कहा था मुझसे
अपनी वो बेचैनी
वो विडम्वना ,
जो सिर्फ और सिर्फ
मैं महसूस
कर सकता हूँ ,

कैसे पथ्थरों का भी
दिल रोता है
कैसे बूँदें अश्कों की
पथ्थरों की आँखों से
छलकता है
रंग लिप्त
उदाशीनता लिए ,
वो मैं अब समझ
सकता हूँ ,

क्यूँकी तूने आज
अपने दर्द की
हर ताबीर से रु-ब-रु
करवाया था मुझको
जिसको महसूस कर
मेरी काया ने भी
अश्क बहाये थे,

"क्या दिल सिर्फ
इंसानों का ही होता है
क्या वजूद के लिए
सिर्फ इंसान ही लड़ते है
क्या प्रेम करने का हक़
सिर्फ इंसानों को ही होता है"

ऐसे तेरे कई अनगिनत
सवाल
जिसके जवाब की शक्ल में
मेरे पास
लज्जा के सिवाये
कुछ नहीं था ,

मुझे मालूम है
तुझे भी प्रेम हो चला है
किसी इंसान से
जो तुझे
सिर्फ व सिर्फ
चट्टान का महज
एक टुकड़ा समझता है
पर मैं कह दू
मेरे दोस्त
हम इंसान
उसी चट्टान की बनाई
मूरत को पूजते है,

अधीर मत हो
अपने प्रेम को वो रूप दो
जो तुझे
सिर्फ पत्थर समझे
वो भी
तुझे कुछ यूँ ही पूजे

इतनी बात मेरी सुन
वो थोड़ी खिलखिलाई
और फिर बोली
तूने इंसान होके भी
हम चट्टानों को
इतनी अच्छी तरह
से समझा है
"काश मेरा ये प्रेम तुमसे होता"

मैं हँसा
और मन में बोला
काश मेरी प्रेमिका तुम जैसी होती
जो खुले मुँह ये कह देती
"काश मेरा ये प्रेम तुमसे होता" ..

Tuesday, October 15, 2013

चंपा की पेड़ ...


वक़्त के
चम्पई लम्हों के दरारों से
झाँकती वो रात
आज बहुत अरसों बाद
ईख की चासनी सी
मेरे अरमानो संग अभिषेक किया

मुझे याद है,
जब में हर रात
ख्यालों में
एक कील तरह हर वक़्त
साथ उनके धंसा रहता था

बेचैनियाँ इतनी सर्पशील थी
की मैं माटी के बिछोने पे भी
तरस के सो नहीं पाता था

उम्र का ये नौसीखियाँ प्रेम
मुझे बिना प्रिय के रातों को
आँख तक मुंदने नहीं देती थी
और मैं फिर
उनके ख्यालों में डूबा
तेरे सायों में चला आता था

वो ठंडक
वो भींगी खुशबू तेरी
बिना निगले कलेजे तक
उतर जाती थी
जैसे मुझे उनके संग बैठने
की इजाज़त मिल गई हो
जिसके संग वक़्त बिताने को
हर लम्हा मेरा तरसता था.

तेरी छोटी सी काया
मुझे उस वक़्त
बहुत ही विशालकाय
लगता था
और
तेरे पहलुओं में गिरे हुए
तेरे चम्पई उपहार(फूल)
मुझे उनकी यादों की तरह
पास बिखरी नज़र आती थी.

जिन्हें मैं अक्सर चुनता
अपने आँसुओं से धोता
और गोधुली के वक़्त
वहीँ कान्हा की मंदिर में
चरणों में कान्हा के
समर्पित कर देता था
ये बोल के की
मेरे ये प्रेम तेरे प्रेम जैसा ही है,
इनको महसूस कर
इसे साकार कर
क्यूँ की मैं अपने राधा के बिना
नहीं रह सकता हूँ,

आज जब मेरे वो सपने साकार
हो रहे है तो
ऐ चंपा की पेड़
तेरा वो चम्पई लम्हों की देन है,
जिसे मैं कभी नहीं भूल सकता
एक रात आऊंगा
मैं और मेरी प्रिय तुमसे मिलने
बस तू वहीँ इंतजार करना ..

Friday, October 11, 2013

प्रेम में पगलपंती ...



मुझे कल न तेरी फिर से
सनक सवार हुई
वही पगलेट वाली
रातों को
खुले आसमानों के निचे घूमना
चाँद को देख
इशारा करके ज़मी पे बुलाना
हवाओं को छू के
पास बैठा के बातें करना
और बहुत कुछ ..

क्या तुम वो सब सुनना चाहोगी ?

बोलो न
क्या तुम वो सब सुनना चाहोगी ?
क्या ..
तूने हाँ बोला क्या ?
मुझे कुछ ऐसा ही सुनाई पड़ा
तो ठीक है सुनो
फिर मत कहना मुझे
सच में ये पागल हो गया है
मेरे प्रेम में

अगर तू ऐसा कहोगी
सच मैं और पागल हो जाऊँगा
इस बार रेत पे तेरी तस्वीर नहीं
तेरे घर के दीवारों पे बनाया करूँगा
उस आसमा को चाँद को छोड़
तुझको इशारा किया करूँगा
हवाओं को धत्ता कर
सिर्फ और सिर्फ
तुमसे बातें किया करूँगा
क्या तुम्हें ये सब मंजूर होगा
एक पागल आशिक़ का आशिक़ी बनना

सोच लो फिर मत कहना
एक पागल न डोरे डाल के
मुझको फांस डाला
क्योंकि
मेरा काम है तेरे प्रेम में
बस पगलपंती करना
तेरे लिए कविता लिखना
और वक़्त मिले तो
तेरे यादों का धुएं का छल्लें बनाना ...!!

Thursday, October 10, 2013

गृहस्थ खोते गृहस्थी ..



अजी सुनते हो ..
क्या है,
मैंने कहा आप न ऑफिस से लौटते वक़्त
कुछ हरी सब्जी
और
वही मेज पे पड़ी है कुछ
किचन के सामान की लिस्ट है
वो लेते आना,

अच्छा और भी कुछ है क्या ?

हाँ है न ,
आप का लंच बाक्स वही तैयार कर के रखी है
भूल मत जायेगा
शूज भी पोलिस कर दी हूँ
कपड़े भी प्रेस करके वही बिस्तर पे रखे है
सुनो मैं ना आज नीली वाली शर्ट निकली दी है
वही पहन के जाना
हाँ उस कमीज का एक बटन टुटा हुआ है
मैं अभी आ रही हूँ टांक दूंगी
बस ब्रेड टोस्ट कर लिया है
चाय उबलने वाली है
उबलते ही लेके के आ रही हूँ
तब तक आप तैयार हो लो

थोड़ी देर बात

गुस्से से आप न अभी तक तैयार नहीं हुए
हद कर दी
चलिए जल्दी से कमीज पहन लीजिये मुझे बटन टांकने है
बटन टांकते वक़्त ...
जानते हो आप न हमेशा बच्चे ही रहोगे
मुझे लगता है यूँ ही रोज तैयार करना पड़ेगा आपको

अब मैंने कहा ..
क्या करे बीबी आपकी आदत सी हो गई
रोज सुबह जो आपकी इतनी बातें सुनने को न मिले
तो जैसे लगता है कुछ गड़बड़ है
फिर मैं सारा दिन परेशान रहता हूँ
आपका इतना प्यार बीबी मुझे क्या बोलू

अरे जो बोलना है बोल दीजिये
वैसे मैं सब समझती हूँ
ये मस्का मत लगाइए
आपको जाते वक़्त जो चाहिए वो भी मिल जायेगा

मैं फिर बोला  .. अरे पगली
यही तो तेरा प्यार है
जो बिना बोले मेरे आप सब समझ जाती है

ऑफिस जाते वक़्त
फिर बीबी ने अपना प्यार दिया
और मैं हँसी ख़ुशी अपने ऑफिस को निकल गया ..

शाम में
उसके दिए लिस्ट के सामान
सब्जी और एक प्यारा गिफ्ट उनके लिए
मैं लेके आया
जिसे देख वो बहुत खुश हुई
आँखें उनकी भर आई
और आई लव यू करके गले लगा लिया ..

इतना प्यार बीबी का देख
जैसे मुझे यूँ लगा आज मुझे सब कुछ मिल गया ..

लेकिन ये कहानी मैंने यूँ नहीं सुनाई है  .. इसके पीछे एक बहुत ही प्यारा सा मकसद है .. दरसल आज मैंने ऐसे कई गृहस्थ जीवन को पास से देखा जहाँ पति-पत्नी के बीच से प्यार नदारत हो चुके है, मैं आज अपने शब्दों के सहारे उन्ही को ढूंढने को निकला हूँ ताकि हर कोई मेरे काल्पनिक सोच की तरह सुखमय जीवन जी सके .. और जब घर परिवार खुश तो आप सोच लो आगे क्या हो सकता है ..

वैसे कहने तो आज पति-पत्नी दोनों साथ तो रहते है पर एक दूसरों से काफी दूर .. जहाँ पत्नी घर और बाहर का हर छोटे से बड़े हर काम करते करते परेशान रहती है और पति सिर्फ पैसे कमा के देने पे रोब झाड़ने में लगा रहता है .. ऐसे मानसिकता से ग्रस्त हो चुके है पुरुष मैं मानता हूँ आपको पैसे कमाने के बहुत सारे तनाव रहते है जिसके कारण ऐसा करते है पर तनाव को दूर करने का सोचिये उसको दिल में जगह देना का नहीं ! आपकी पत्नी भी तो आपके गृहस्थ जीवन की हिस्सेदार है वो भी सुबह से शाम कर देती है आपकी छोटी छोटी हर ज़रूरत को पूरा करते करते उसका क्या ? वो तो कभी आप पे रोब नहीं दिखाती हाँ पर आपसे हमेशा थोड़ा सा प्यार मांगती है जिससे वो हर अगले सुबह उसी समर्पण के जज्बे से दैनिक कार्य को कर सके .. मैं तो कहूँगा आप अपने पुरुषार्थ के खोखली कमीज उतार कर अपने तनाव का चोला फेंक कर थोड़ा अपने पत्नी को समझे और खुद को भी समझने का उसे मौका दे .. फिर देखे जिंदगी जीने में क्या मज़ा आता है .. ये आजमाया हुआ नुस्खा है, कारगर होगा आप सब के लिए भी !!

बाबूजी ...



कुछ समेटना चाहता हूँ
आज आपकी खामोशी से
रिटायरर्मेंट पे मिली
तन्हाइयों के पेंशन से
आपके रेडियो के आल इंडिया
चैनेल से
सुबह के अख़बारों के पन्नों से
और न जाने क्या क्या
आपके ख्यालों से

पर मैं सोचता हूँ
क्या ये सब मैं समेट पाउँगा "बाबूजी"

शायद कभी नहीं
क्योंकि मुझे हमेशा याद आता है
आपका वो विशाल हिर्दय
जिसके नग्न उँगलियाँ पकड़ कर
मैंने जीवन पथ में चलना सीखा
आपके कंधों पे बैठ कर
जहाँ बोझा ढ़ोना सीखा
आप के तीखे तल्ख भरे
डांट के स्वर सुन
खुद को संभालना सीखा

न नहीं मैं कभी नहीं समेट पाउँगा
"बाबूजी"

सच तो ये है
आज मैं बिखरना चाहता हूँ
आप के
गंगा जैसे पावन चरणों में
खुले आकाश जैसे सीने में
उम्र की इस ढ़लती साँझों में
एक आस से मेरी और घूरती
आपकी इन शांत पड़ी आँखों में
क्योंकि
आज की आपकी ये दशा देख
मुझे
मेरे बचपन की याद आती है
कैसे आपने मेरे हर विवशता को
अपने वजूद से पुचकारा था

कर लेने दो
आज मुझे फिर अपने मन की
उन दिनों की तरह फिर मत रोकना
क्योंकि आप बूढ़े हो गये हो
पर मैं आज भी बच्चा हूँ
जिसको आपने एक उम्र से
अपने पसीने से है सींचा
जहाँ
कल आप मेरा खिलौना थे
आज मैं आपका खिलौना बनना चाहता हूँ
वही रेडिओ , वही अखबार
वही उम्र भर की कमाई का खुशियों का पेंशन ...!

Monday, October 7, 2013

तेरा-मेरा प्रेम ...



कई बार
किताबों की दुनिया में झाँका
पर
एक मेरे और एक तेरे जैसा
कोई किरदार वहाँ नहीं दिखा
क्या हम-तुम
हकीकत में एक ही बार बनाये गये है

जबकि
वो राम-सीता की जोड़ी
वो कृष्ण-राधा की जोड़ी 
मुझे हमारा ही रूप प्रतीत होता है
क्या तुमको
ऐसा नहीं लगता है

लगता होगा
क्योंकी
जब जब तूने मुझे अपने सीने से
लगाया था
मैं खो के तेरे आगोश में
उन्हीं युगों में पहुँच जाता था

वही कृष्ण की सारी
नादानियाँ मैं तेरे साथ दोहराता था
और
तुम राधा की तरह शर्मा के
मेरे भुजाओं में सिमट जाती थी
मैं प्रेम में तेरे बंशी बजाता
और
तू प्रेम गीत गा के उसे साभार करती थी

ये सब क्या था

ये सब
एक मात्र प्रेम का स्पर्श तो नहीं हो सकता
ये और भी कुछ था
और भी कुछ है 
जिसे तुझे तुझे महसूसना है
तब नहीं महसूसा
तो अब
हमारे वियोग की वेदना में

अपने रातों के करवटों में
स्याह रात के घुप अंधेरें  में
बिस्तरों पे सुबहों के उभरें सिलवटों में
पूस की रात के बिलकते सर्द में
जेठ के चीखती धुप में
सावन के टप-टप गिड़ते बूँदों में
आँगन में अकेले गड़े तुलसी में

इन सबों के छुपे दर्द में
मैं तेरे वियोग को भोगता दिखूँगा
जैसे
मुझे हमेशा तू इन दर्दों में दिखती है

एक बार
बस तू अपने दिल को शांत कर
बैठ जाना
खुले आसमान के निचे
वही यमुना नदी के
पास की बरगद के पेड़ के निचे
जहाँ हमारा तुम्हारा बचपन बिता था
देखना
तुझे फिर सब दिख जायेगा
और फिर से
तुझे वैसा ही प्रेम हो जायेगा

अगर जो ऐसा हो जाये
तो
नदी की धारा पे
मेरे नाम से
एक कस्ती कागज की खतनुमा
बहा देना
मैं अगले दिन ही आ जाउँगा
तुझसे अपना वही अकूट प्रेम माँगने

क्योंकि
बरसों से नदी के दुसरे किनारे पे अकेला बैठा
बहुत ही व्याकुल हो चूका हूँ
बस एक तेरे इंतजार में .. समझी पगली ..