Saturday, September 17, 2016

"दो रंग" (कहानी)



चिकनी सड़क पर सपाट दौड़ती बस में उसके पाँव इस कदर हिल रहे थे, जैसे बस के सीट पर नहीं वो किसी ड्रिलिंग मशीन पर बैठी हैसाँसें नासबूर, आँखें मदहोश बहक कर जैसे होश खो देना चाहती थी, सुर्ख से होंठ दांतों के गिरफ्त में कुछ लम्हों के लिए जाते और फिर एक सिसकी लिए वापस छुट भी जातेदर्द और बैचैनी की सीलन, बूँदों का रूप इख़्तियार कर उसके शीश से गिरने को बेताब थे
मैंने इधर-उधर देखा और फिर अपनी नज़रें उसपर गड़ा दी। अपने पैरों को हिला कर मन को शांत करने की नाकाम कोशिश करने बाद हिम्मत अब उसका साथ छोड़ चुकी थी। पाँव हिलने बंद हो चुके थे और नज़र जैसे बस से बाहर झाँक कर एक महफूज़ कदा(स्थान) ढूँढ़ रही थी। अचानक ज़ोरों से चिल्लाई “रोको, बस रोको”, और बस के रुकते ही पेट को दबाये हौले क़दमों से उतरती है और सामने झाड़ियों में अदृश्य हो जाती है।
बस के सारे मुसाफ़िर सवालिया नज़र से एक दुसरे को अभी देख ही रहे थे की वो लड़की झाड़ियों के बीच से वापस आते हुए दिखती है। लौटते वक़्त चाल और चेहरे के भाव बता रहे थे, उसका जी हल्का हो गया है, वो फ़ारिग हो गई है। इस वक़्त उसके चेहरे पर फैली बहजत(ख़ुशी) और मन की शांति की कोई सीमा नहीं थी। वापस बस में सवार होते ही कंडक्टर को उन्हीं ख़ुशी को अल्फाज़ों में पिरो कर उसने कहा “क्यूँ छोटू कब क्यों रुके हो, बस को तो आगे बढाओ यार”। और कंडक्टर लुटे-पिटे अंदाज़ में उसके चेहरे को देखते हुए, समझने की मशक्कत करता रहा कि आखिर वो झाड़ियों के पीछे करने क्या गई थी?
“क्यूँ माहवार चल रहा है क्या?” तज़हीक(हंसी उड़ाने) की लहजे में उसके बाजु की सीट पर बैठी औरत बोली, भरे-भरे हाथ-पैरोंवाली, चौड़े चकले कूल्हे, थुल-थुल करने वाले गोश्त से भरपूर, कुछ बहुत ही ज़्यादा ऊपर उठा हुआ सीना, तेज़ आंखें, बालाई(ऊपर का) होंठ पर बालों का सुरमई गुबार ठोड़ी की साख्त-साख्त(बनावट) से पता चलता था कि वो बड़े धड़ल्ले की औरत है
जुल ने सीट पर बैठते हुए जैसे बड़े ही भिन्ना कर जवाब दिया “हाँ इसलिए तो गई थी झाड़ियों में, दूसरी सब्जेक्ट की किताब चेंज करने”।
“ऐसा क्या? अगर पहले बता देती तो बस जब ढाबे पर रुकी थी, उस वक़्त ही मैं तुम्हें नींद से जगा देती”। 
“शुक्रिया आपका, मगर कुछ चीजें बता कर नहीं आते, वो तो बस आ जाते है”। 
इस तरह की जवाब का अंदाज़ा नहीं था उस औरत को, हाज़िरजवाबी के फुल मार्क मिल चुके थे जुल को। “हुंह” कहकर चेहरा दूसरी तरफ़ घुमा लिया था उस औरत ने। 
मैं उसके दाहिने हाथ की खिड़की के बाद वाली सीट पर बैठा इस अजीब सी लड़की पर अभी भी अपनी नज़रें जमाये हुए था। सच कहूँ तो मेरी हालत इस वक्त बस कंडक्टर से भी गई गुजरी थी। वो तो, बस में, जुल जैसी लड़कियों से कई मर्तवा मिला ही होगा मगर मैं तो अपने करियर में जुल जैसी बोल्ड लड़की तो क्या उसके बोल्डनेस को दूर से छू कर गुजरने वाली लकीर तक से नहीं मिला था। फ़िलहाल यह करेक्टर मेरे लिए बहुत दिलचस्प थी, इसलिए मैंने उसकी हर हरकत की रेकी करने की मन में ठान ली, सही ग़लत से परे होकर।
अमूमन गुमगश्ता(भटका हुआ) शख्स की फ़रियाद नहीं सुनी जाती, लेकिन आज मेरी हर फ़रियाद सुनी जा रही थी। सुबह की तफरी में बस छुट ही जाती अगर जो ऐन मौके पर बस की इंजन में प्रॉब्लम नहीं होता। और शुक्रगुजार हूँ बिस्मिल भाई का जिसके रिक्शे ने बरेली के कुचे-कुचे से आज भी अपना वास्ता रखा हुआ है। वरना तो मैं लखनऊ पहुँचने से रहा था। बिस्मिल भाई को हमलोग हँसी मजाक में आशिक़ भी कहते है, अल्लाह ने उन्हें उनके नाम की पूरी तौफ़ीक अदा की है। इज़तनगर का कौन ऐसा शख्स है जो इनकी इश्क़ की दास्तां नहीं जानता हो, कहा जाता है जवानी में अपने रिक्शे के ही एक मोहतर्मा सवारी से उन्हें मोहब्बत हो गई थी। जिनकी तलाश में वो अभी भी बरेली की गलियों के खाक छानते फिरते है।
काफ़ी देर हो गयी थी, मैंने जुल का जायजा नहीं लिया था। सर घुमा कर देखा तो वो पलकें मूंदे, नींद की गलबैयां किये, किसी नवजात शिशु सी सो रही थी और उसके बाजु की वो औरत मुझे धड़ल्ले से घूर रही थी। जी तो किया मेरा भी मैं भी उस औरत से नज़रें नहीं फेरूं, उसे मैं भी घूर -घूर कर जलील कर दूँ लेकिन हिम्मत जुटा नहीं पाया।
पूरे सफ़र में जुल को पलट-पलट कर मैं देखता रहा और जुल मेरी नज़रों से बेपरवाह खुद में खोई रही, आख़िरकार हमारा पड़ाव आ गया, बस लखनऊ के बस स्टैंड में दाख़िल हो चुकी थी, वक़्त यही कोई रात के नौ बजे का होगा। हम सब अभी अपना सामान बस से उतार ही रहे थे कि यकायक आये एक शोर ने सब को सुन्न कर दिया, “किसी मुसलमान को नहीं छोड़ना, चुन चुन कर काट दो सब को”। पलट कर उस ओर देखा तो करीबन तीस से पैतींस लोगों का एक हुजूम मतवाले हाथी की तरह बढ़ा आ रहा था। किसी के हाथ ख़ाली नहीं थे, सबने अपने-अपने मुताबिक़ हथियार थाम रखे थे। उन लम्हों में खौफ़ की तासीर जितनी मेरे चेहरे पर झलकी, उतनी किसी और बुशरे(चेहरे) पर देखने को नहीं मिली वजह शायद मेरा मुसलमान होना था। ज्यों-ज्यों दहशतगर्दों का हुजूम करीब आ रहा था, मेरा होंठ गला सब खुश्क हुआ जा रहा था ,कंपकपाहट पाँव से शुरू होकर पूरे बदन में फ़ैल चुकी थी। बिना सोचे-समझे मैं ज्यों ही भागने के लिए पलटा, उस भरे-भरे हाथ-पैरोंवाली वाली औरत ने मेरा हाथ थाम लिया, “तुम मुसलमान हो?”
“हाँ, नहीं” मैं घबराहट में।
हाँ, तुम मुसलमान हो, नहीं तो तुम भाग क्यूँ रहे हो?
मेरी इस हरकत ने मुझे मेरे कौम के होने की मुहर लगा दी थी, जो मेरी सबसे बड़ी गलती थी। उस औरत के इरादे मुझे कुछ ठीक नहीं लगे। उसने पहले तो मेरा हाथ छोड़ा फिर मुझसे कुछ क़दमों का फ़ासला बना उन दहशतगर्दों की ओर इशारा किया। अब बचना मेरा नामुमकिन था, मौत चंद क़दमो के फ़ासले से मेरी ओर बदहवास बढ़ी आ रही थी। साँसों को सीने में महफूज रखने का अब सिर्फ़ एक ही रास्ता था मेरे पास की मैं आदिल से अजय बन जाऊँ, अलबत्ता मौत की इस्तक़बाल करूँ।
पलक झपकते ही दस बारह लोगों ने मुझे घेर लिया, जिसे वो औरत कह रही थी “ये जरुर मुसलमान है तभी ये भाग रहा था, मैंने इसे भागने नहीं दिया”।
उस औरत की बात सुनते ही, दो तीन लोगों ने मुझे दबोच लिया। इससे पहले की वो मुझसे सवाल करते, उनके कुछ साथी उस औरत से ही सवाल कर बैठे, “तू कौन है? कहीं तू भी तो मुसलमान नहीं है”? धारदार कुल्हाड़ी उसके गर्दन पर टेकते हुए।
जवाब में बेसुध हो अपने पल्लू को छाती से हटाई और मंगलसूत्र दिखाते हुए बोली “ये देखो मैं हिन्दू हूँ” फिर माँग में हलके सिंदूर की लाली दिखाते हुए “ये भी देखो, मैं हिन्दू हूँ और तुमलोगों के साथ हूँ”। उनलोगों ने फिर उसे वहां से चले जाने को कहा। अब बहशी लोग मुझसे मुख़ातिब थे, इससे पहले की वो कुछ पूछते मैंने डर से पहले ही बोल दिया “मेरा नाम अजय है और मेरे पास मेरे नाम के सिवा कोई सबूत नहीं है”।
वे बोले “लेकिन मैं कैसे मान लूँ कि तू भी हिन्दू है, हो सकता है तू मुसलमान हो और हमारे डर से अपना नाम बदल लिया हो?”
“मेरा यकीं कीजिये, मैं सत्य कह रहा हूँ। मैं हिन्दू हूँ मैं भी आपलोगों के साथ हूँ”।
अब तक बस स्टैंड पर हर ओर दहशतगर्द फ़ैल गये थे। हर तरफ़ भगदड़ मची थी, मासूम लोगों के चीखने, चिल्लाने के शोर के साथ बस के शीशे टूटने की आवाज़ कानों को ज़ख्मी कर रहे थे। मेरे साथ के सारे सवारी भी जहाँ तहां हो लिए थे।
“पेंट उतार अपना, दिखा वो निशानी जैसे इस दुनिया में आया था, जो हिन्दू है तो”।
मैंने पेंट उतारने से मना किया तो मुझे लात और घुसे से पीटने लगे, अचानक मैं चीखा “रुको” और फिर पेंट उतराने लगा।
“ठहरो! ये क्या कर रहे है आप?” जुल ने आकर मेरा हाथ थामा और उनलोगों से कहा, “क्यूँ मेरे मंगेतर को परेशान कर रहे हो भैया?” हम हिन्दू है मेरा नाम जुल है और ये मेरे होने वाले पति अजय है। अगर यकीं न हो तो बोलिए मैं भी कुछ उतार कर दिखाऊँ क्या?”
उन बहसी जानवरों के सीने में शर्म जिंदा थी, उनकी नज़रें झुक गई और साथ ही मुझपर से उनकी गिरफ्त भी ढ़ीली हो गई। जुल की फेंके हुए पासे उनके जमीर पर सीधे जा लगे थे। बिना बात को आगे बढाये, वे आनन-फानन में ही शर्मिंदगी की अँधेरे में ग़ायब हो गये। खतरा अभी टला नहीं था लेकिन जुल के संग मैं महफूज़ था, इतनी बात तो साफ़ थी।
“ओ मिस्टर, कट लो यहाँ से, इससे पहले की कोई सरफिरा आ कर तुम्हें काट दे”।
उसकी झनकदार आवाज़ ने अगले ही पल मुझे फिर से खौफ़जदा कर दिया था, “पर मैं जाऊँ कहाँ? ऐसे हालात में शहर का कौन सा होटल मुझ मुसलमान को पनाह देगा? तुम ही कहो”।
“ये तुम्हारी समस्या है। वैसे भी तुम कोई नवाब नहीं हो, जिसके लिए मैं घड़ी-घड़ी अपनी जान जोख़िम में डालू, वो तो शुक्र करो मैं बस की ओट से ये सब देख रही थी और ऐन मौके पर तुमलोगों के बीच कूद गई। वरना तुम्हारा आज यही काम हो जाता ख़त्म।“
ख्वाहिश तो हुई कि बोल दूँ नवाब न सही लेकिन शोहर तो हूँ ही जिसे अभी-अभी आपने उन दहशतगर्दों के सामने कबूला था मगर कह इतना ही पाया “फिर अभी क्यूँ जान जोख़िम में डालकर मेरी जान बचाई, ये एहसान क्यों”?
जवाब नहीं था उसके पास, जुबान उसकी थोड़ी तंग ज़रूर थी लेकिन दिल नहीं “ठीक है आओ मेरे साथ, तुमको किसी महफूज़ जगह पहुँचा देती हूँ”।
जुल ने कह तो दिया था लेकिन वो महफूज़ जगह कौन सी है उसे खुद पता नहीं था। तक़रीबन हम आधे घंटे तक न जाने किन-किन से गलियों में खूँ की बू और जलते हुए घरों की शमशीरों पे आँख सेंकते रहे लेकिन वो महफूज़ जगह नहीं मिली। शहर जैसे ख़ाली हो गया था या यहाँ के बाशिंदे बहरे हो गये थे, हमदोनों ने कई दरवाजो पर दस्तक दिया लेकिन किसी ने हिम्मत करके दरवाज़ा खोला नहीं। शायद मेरे साथ मुसीबत में जुल भी फँस गई थी, आगे चलते हुए जुल से मैंने पूछा “आप तो यही की है, फिर आपको इतनी मशक्कत क्यूँ हो रही किसी पहचान वाले को ढूँढने में?”
“किसने कहा मैं लखनऊ की हूँ, तुम्हारे ही तरह मैं भी इस शहर के लिए अजनबी हूँ।“  
“आपके लहजे से हर कोई मात खा जाए, एहसास तक नहीं होने दिया की आप यहाँ के नहीं है। बेखौफ़ और बहुत ही ज़िगर वाली लड़की है आप”।
मैं कह रहा था और वो “हुँह हुँह” करके सर को हिलाए जा रही थी। हर पल तैयार थी वो अगली मुसीबतों के लिए, तभी सिर्फ़ उसकी गोशे मुझपर थी और नज़रें मरघट सी गलियों पर पेवस्त। हर क़दम वो मुझसे आगे और मैं हर लम्हा उसके साए में दुबका हुआ था। आज मैं औरत की एक ऐसी शख्सीयत से रु बरु था, जो मेरे ज़ेहन में कभी नहीं बनी थी।
अम्मी के इंतकाल के बाद, अब्बा ने जब रिसी खाला से निकाह किया, औरत के लिए मेरी नजरिया तब से ही बदल गया था। इनके हर क़िरदार के लिए मेरे पास नफ़रत के सिवा कुछ नहीं बचा था, सब के सब मतलबपरस्त और तंगदिल मिली। मेरी पूरी बचपन और मासूमियत इस कदर निगल ली थी रिसी खाला ने, वो तो ख़ुदा नेमत बक्शे रिजवान मामू को जिसने अपने ज़िम्मेदारी पर ऊँचे तालीम के बहाने बरेली में रहने को छत दिया और साथ ही मेरी परवरिश भी की। मगर आज तक कुछ समझ नहीं पाया की जिंदगी में क्या करना है फिर एक दिन लखनऊ के उर्दू अखबार को एडिटर की जरूरत है इश्तिहार देखा और ख़त लिख दिया. पिछले हप्ते उसी लखनऊ के उर्दू अखबार के दफ़्तर से नौकरी के लिए ख़त आया था सो आज लखनऊ उसी सिलसिले में जाना हो रहा था।
जुल ने मेरी हाथ  थाम लिया, “तैयार हो न जनाब मौत को मात देने के लिए”?
“समझा नहीं?”
मेरे होठों पर अपना हाथ रखकर, दीवाल की ओट में खींच फिर दबे जुबां से बोली “सीsss, कुछ लोग इधर ही आ रहे है, हम इस जगह और नहीं रुक सकते है। हमें कहीं ओर जाना होगा।“
बिना कोई पल गंवाएं, लुकते छिपते हम वहां से भागकर दूसरी गली में दाख़िल हो गये। अभी भी जुल आगे चल रही थी और मैं उसके पीछे, अचानक उसके बेखौफ़ कदम ठहर गये।
“हम ग़लत गली में आ गये, ये मुसलमानों की बस्ती है”।
मेरे ख्याल से जुल को किसी जासूसी कंपनी में होना चाहिये था। माशाल्लाह क्या ग़जब तेज़ निगाहें थी और दिमाग भी, मैं मुसलमान होकर भी जिन चीज़ों पर गौर नहीं कर पाया, उसे वो कितनी आसानी से शिनाख्त कर ली। रास्ते के दूसरी ओर लुढ़का हुआ बदना, दुकानों के नाम का उर्दू में लिखा होना, और सबसे बड़ी बात नगरपालिका का वो साइन बोर्ड जिसपर हज़रतगंज लिखा था। जुल ने उन तमाम चीज़ों पर इशारे से मेरा ध्यान डलवाया। उसे देखते ही पता नहीं कहाँ से मेरे पाँव में गज़ब की हिम्मत आया गयी, इतने देर में मैं पहली बार मैं जुल से आगे था और जुल मेरे पीछे “कहाँ जा रहे हो, क्या कर रहे हो”? दबे स्वर में कहती हुई। मैं बाबलों की तरह इधर उधर गली में भाग कर उम्मीद ढूँढ रहा था।
मैंने कहा था आज मेरी हर दुआ सुनी जा रही थी, उसने मेरी उम्मीद फिर टूटने नहीं दी। मुझे मस्जिद नज़र आ रही थी, वहाँ कोई न कोई तो ज़रूर होगा और फिर मदद मिल जाएगी। ख़ुशी में पागल हो गया था, पिछले घंटे के बाद ये वही एक लम्हा था जब खौफ़ ने पूरी तरह मुझे आज़ाद किया था। ख़ुशी के मारे मैं ये भी भूल गया जुल मेरे साथ है और वो हिन्दू है। जुल ने एक मर्तवा फिर मेरी हाथ थाम और अपनी ओर खींच कर कहा “कहाँ जा रहे हो, क्या कर रहे हो”?
“जुल वो देखो मस्जिद, वहां कोई न कोई ज़रूर होगा। हमें पनाह मिल ही जाएगी, चलो जुल अब मत रुको”।
“हमें नहीं तुम्हें, ये मत भूलो की मैं हिन्दू हूँ, फिर सच्चाई हम ज्यादा समय तक छुपा भी नहीं सकते। तुम जाओ वहां तुम्हारे अपने लोग है, मैं कहीं और चली जाऊँगी”।
“क्या भरोसेमंद सिर्फ़ हिन्दू ही होते है, हम मुसलमान नहीं? जहाँ मैंने इतना भरोसा तुम पर किया, क्या तुम मुझ पर एक जरा सा नहीं कर सकती?”
जुल के सर हाँ में हिले और फिर हमदोनों एक साथ मस्जिद की और दौड़ पड़े। दस पन्द्रह कदम अभी आगे बढ़े ही थे कि हमें दस से बारह लोगों ने घेर लिया। सबके माथे पर खून सवार था और आँखों में बदले की आग दहक रही थी।
“कौन हो तुमलोग और यहाँ क्या कर रहे हो?”
इस बार दहशतगर्दों को जवाब देने की बारी मेरी थी, “भाईजान, मैं आदिल हूँ और ये मेरी बीबी जीनत है हमलोग बरेली से आये है।“ मैंने जेब से ख़त निकाल कर दिखाया, “ये देखिये यहाँ के उर्दू के अखबार के दफ़्तर में मेरी नौकरी लगी है। इसी सिलसिले में लखनऊ आये थे मगर यहाँ के हालात इतने ख़राब है कैसे-कैसे यहाँ तक पहुँचे है, हम ही जानते है।“
सिर्फ़ ख़त देखकर भरोसा नहीं करने वाले थे, वक़्त ही इतना ख़राब था।
“ये काफ़ी नहीं है, गर जो हमारे कौम के हो तो कोई एक दुआ पढ़ो”
मैं फ़ौरन पढ़ने को हुआ तो मुझे रोकते हुए “नहीं तुम नहीं, अपनी बेग़म को कहो”।
मेरी साँसें अब उखड़ गई, हमारे झूठ से पर्दा उठने ही वाला था कि तभी जुल ने बहुत ही गंभीर अदाकारी दिखाई, पहले तो फूट-फूट कर रोने लगी फिर किसी गूंगे की मानिंद चिल्लाने लगी। मैंने जुल की इस हरकत को समझ लिया और कहा “भाईजान ये गूंगी है बोल नहीं सकती, आपकी इज़ाज़त हो तो इनके बदले मैं दुआ पढू”।
“नहीं उसकी कोई जरुरत नहीं है, अब आपदोनों महफूज़ है और मस्जिद में जाकर इत्मीनान से रात गुज़ार सकते है।“
“शुक्रिया भाई जान”, जुल ने भी गूंगेपन के अंदाज़ में “शुक्रिया” कहा। अब हम मस्जिद के अंदर थे जहाँ पहले से काफी लोग मौजूद है। जुल और मैंने अलग-थलग एक कोना पकड़ लिया। जुल ने फर्श पर बैठते ही एक गहरी साँस भरी, लेकिन वो अभी भी घबराई हुई नज़र आ रही थी शायद उसका घबराना लाजमी भी था। सो घबराहट की दीवार गिराने के लिए मैंने ही दूसरी बात छेड़ दी “आप इतनी खुबसूरत अदाकारी करती है, की किसी भी शख्स के लिए हक़ीकत और झूठ के बीच का फ़ासला तय करना आसन नहीं होता। जानते है एक पल के लिए मैं खुद समझ नहीं पाया था। सुभानल्लाह! अपनी पूरी जिंदगी में मैंने आप जैसी मुक्व्वल लड़की नहीं देखी वैसे मेरा नाम आदिल है और मैं बरेली से हूँ”।
“चलिए, इतने देर में आपने अपना नाम बताने का ज़हमत तो किया आदिल, वैसे ये अंदाज़े बयाँ खूब है आपका, इस पर कोई भी लड़की फ़िदा हो जायेगी”।
जुल के जवाब पर मुझे हंसी आ गई थी, मुझे हँसता हुआ देख जुल के लब भी फ़ैल गये थे। जुल से मिलकर आज भटका हुआ आदिल राह पर आ गया था। औरतों के लिए अब मेरे दिल में काफी इज्ज़त भर गई थी। ये करिश्मा ही था एक अरसे से मैंने मस्जिद में पाँव तक नहीं रखा था और आज उसी मस्जिद मैं जुल जैसी पाक़ दिल लड़की के साथ था। मुझे अचानक जुल अच्छी लगने लगी थी यूँ कहे की उसके बेबाक अंदाज़ और मददगार स्वभाव से मुझे मोहब्बत हो गई थी।
जुल से मिलकर दुनिया में हर चीज़ के वाकई में दो रंग है, ये साबित हो चूका था। बाहर कुछ ऐसे लोग थे, जो बेवजह मुझे मार देना चाहते थे। वही जुल जैसी लड़की भी थी जो बेवजह दूसरों को बचाने के लिए अपनी जान तक की परवाह नहीं करती है। काश ये पूरी कायनात जुल जैसों से भर जाय फिर हर तरफ इंसानियत और मोहब्बत ही होगी।
“कहाँ खो गये जनाब आदिल”?
जुल ने मुझे खुबसूरत ख्यालों से बाहर निकला, “कहीं नहीं बस ये सोच रहा था तुम जैसा हर कोई क्यों नहीं है”?
ये सुन जुल खिलखिला कर हँस दी, उसकी हँसी उन गोशों में चली गई जहाँ नहीं जाना चाहिए था। हमें खुदा के घर से बेरहमी से खींच कर निकाला गया और भद्दी-भद्दी गलियों से नवाजा जा रहा था। कसूर सिर्फ इतना था एक गूंगी हँस बोल कैसे सकती है? वापस उनके तेवर ख़ूनी हो चले थे और पहले से ज्यादा खूंखार भी, कुछ लोगों ने मुझे पकड़ रखा था और कुछ ने जुल को। तभी मेरे सर पर पीछे से एक तेज़ वार होता है और मेरी आँखें बंद होने लगती है। ये देख जुल रोने लगती है, ये आख़िरी वक़्त था, जब मैंने जुल को देखा था। मेरी बंद आँखों में जुल की वो रोती हुई तस्वीर आज तक कैद है।

साल भर बाद दफ्तर की हर नजर मुझे बधाई दे रही पर पर मेरा दिल तार तार हुआ जा रहा था। आज उर्दू के अखबार में मेरी कहानी “दो रंग” उस दंगे में मारे जाने वालों की याद में छपी थी। लेकिन मेरा दिल जुल के साथ जो भी हुआ होगा उसके लिए खुद को गुनाहगार समझता है, काश की उस रात वो मुझपर और मेरी बातों पर भरोसा नहीं करती, काश। इसलिए तो शायद हम मुसलमान भरोसा जीत कर भी आज भरोसे के काबिल नहीं है।

Thursday, September 15, 2016

“एक रुका हुआ फैसला” (कहानी).




बरसों बाद वो ख़ुश हुई है। अरसों से ठहरा हुआ, उसकी जिंदगी का कारवां आज से सफ़र पे जो रवाना होने वाला है। ख़ुशियों ने आख़िरकार उसके घर का पता ढूँढ़ ही लिया, राह भटक के भी। तभी तो हमेशा एक नये शुरुआत की बात करने वाली घर की वो तमाम जुबाँ आज शर्मशार होकर ख़ामोश थी, सिवाय उसकी अम्मी की। क्योंकि इन बीतों सालों में अम्मी ही उसका हौसला और हमनवां बनकर हर कदम साथ रही है। जैसे घुप अंधरे में कोई जुगनू उसे राह दिखा रहा हो। ये मुकद्दर की एक मुकद्दश आजमाइश ही कहिये जो उसे पाँच साल उस शख्स से दूर रहना पड़ा, जिसे दुनिया में वो सबसे ज्यादा मोहब्बत करती है।
“असीरा चल न और कितनी देर लगाएगी, जुम्मन भाई कब से टैक्सी लाकर इंतज़ार कर रहे है। फिर आजकल कानपूर का मुज़ाफ़ात(आस-पास का क्षेत्र) कितना मशरूफ हो गया है।“
“जी अम्मी, बस,बस आई”।
ये सिलसिला काफी देर से चल रहा था, अम्मी जान बुझकर बार-बार वक़्त की कमी की तगादें कर रही थी ताकि वो उसकी ख़ुशियों को दूर से महसूस सके वो जुबाँ जो हँसना भूल गई थी, वो चेहरा जो आईने से अन-बन कर ली थी। आज जिंदगी ने उसपर बहजत(ख़ुशी) का टीका लगा दिया था। घंटो लगे थे, असीरा को सिर्फ़ राहील की पसंद की ड्रेस चुनने में। वो भी जी भर के सजना सवंरना चाहती थी, ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी कभी झुमके पहनती तो कभी उतारती, कभी जुल्फों को जुड़ों में गुथ लेती तो कभी यूँ ही खुले बादल की तरह कंधे के हवाले कर देती। दरअसल वो हु-ब-हु वैसा ही दिखना चाहती है जैसा पहली दफ़ा राहील ने उसे देखा था। जब वो अपने वालदैन के संग उसके घर पर तशरीफ़ लाया था।
बड़ी अफरा-तफरी सी मची थी उस दिन पुरे घर में, जिसे देखो सजने-सवरने में मशगूल था। जैसे वे लोग असीरा को नहीं उनको पसंद करने के लिए आ रहे है। और ये मोहतर्मा अपनी अम्मीजान के साथ सुबह से गुसलखाने की कोने नाप रही थी। बिरयानी, मुर्ग शोरबा, मिर्च का सिलान, सवई और न जाने कितने तरह की लजीज ख़ुशबूओं से गुसलखान भर गया था लेकिन फिर भी उसकी अम्मी बार-बार कहती जैसे कुछ रह गया है।
कुछ घंटे भर बचे थे उनलोगों के आने में, उस वक़्त असीरा आईने से मुख़ातिब हुई और फिर जो सज कर राहील के सामने चाय लिए आई तो जनाब की आँखें फटी रह गई। खुदा की कारीगरी की बेहतरीन नमूना, जैसे किसी परीबानो की हुस्न उसके किस्मत को नज़र कर दी गई हो। हलके-फुल्के पलों से शुरू हुई बातें रिश्ते की क़रार पर आकर थमी थी। एक महीने के भीतर राहील ने दबाब बना कर निकाह की रस्म भी अदाई करवा ली।
नज़रों की मुलाकात से शुरू हुआ एक सफ़र मोहब्बत की दहलीज पर आ खड़ा हुआ था। राहील ने पहली रात को अपना दिल-ए-हाल बयाँ मोहब्बत की इजहार से किया। वो खुद भी एक बेहतरीन शख्सियत का मालिक है, कानपुर के सरकारी महकमों उसकी धाक है। लाखों का ठेका चुटकीयों में हासिल कर लेता है।
असीरा को राहील से मोहब्बत होने में थोड़े वक़्त लगे। तभी तो उस मोहब्बत की धागों की बंधन इतने मजबूत निकले की पाँच सालों की इंतज़ार और उस मोहब्बत पर तंज कसने वाली जुबान छोटी पड़ गई। अपनी पहली सालगिरह के दिन उम्र भर साथ-साथ चलने की वादे लिए हुए कदम जुदा हो गये थे। एक मोहब्बत फलने-फूलने से पहले विरानगी में धकेल दी गई थी, सिर्फ़ इसलिए कि असीरा ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी। नहीं, बात इतनी नहीं थी। ये तो राहील के घर वालों की तरफ से गढ़ा गया एक बहाना था दरअसल राहील की निकाह असीरा से पहले साजिया से हुई थी। साजिया और राहिल आपसी समझोते पर अलग हुए थे मगर फिर भी साजिया और उसके घरवालों ने राहील को तंग करने के लिए उसपर मुकदमा दर्ज़ कर दिया और इस बात की ख़बर असीरा को अपनी पहली सालगिरह के दिन हुई, जब कोतवाली से राहील के नाम से शमन और बुलावा आया।
वो राहील से खफ़ा होकर, उसी दिन अपने अम्मी के पास चली आई। उसे इस बात की तकलीफ़ नहीं थी वो उसकी दूसरी बीबी है, उसे ये खला की राहील ने सालभर उससे ये बात छुपाई रखी। और ये जायज भी था।
विश्वास और यकीं का नाम ही तो है मोहब्बत, और इस मोहब्बत के साथ वो राहील की जिंदगी का सबसे बड़ा हिस्सा भी तो थी। उसे अपने अतीत के बारे में असीरा को पहले ही बता देना चाहिए था। कोतवाली से वापस आने के बाद राहील असीरा को घर पर नहीं पाया तो सब समझ गया, किन्तु उसकी हिम्मत नहीं हो पाई कि जाकर उसका सामना करे।
राहील के घर वालों ने उल्टा असीरा पर ही तोहमत लगा डाली, जरुर इसी ने साजिया को चढ़ाया बढ़ाया होगा, अनपढ़ लोगों के पास दिमाग ही कितना होता है। लेकिन राहील अपने घरवालों की बातों से कभी इत्तेफ़ाक नहीं रखा। उसने हमेशा कोशिश की, असीरा से मिलकर उसे सारी बात बताये और उसे घर वापस ले आये मगर बात कचहरी तक पहुँच गई थी। साजिया से बिना कागज़ी तलाक़ लिए वो असीरा को अब घर नहीं ला सकता था। अलबत्ता कचहरी में कई बार पेशी हुई, लम्बे-लम्बे जिरह हुए परन्तु  नतीज़ा वही रहा। कानून के सामने उसकी एक न चली। पुरे पाँच सालों तक साजिया के घरवालों ने मुकदमों में उसे फँसाये रखा, अभी कल की बात है जब मुकदमे का वो रुका हुआ फ़ैसला आया और राहील को साजिया से तलाक़ मिली।
राहील ने बरसों से जमा कर रहे हिम्मत को इकठ्ठा करके आसीरा फ़ोन किया और माफ़ी माँगते हुए कहा “आ जाओ बेग़म बेमतलब की जुदाई बहुत हुई, हर रोज तुम्हारी मोहब्बत और यादों में मैं यहाँ मरता रहा हूँ।“ इस एक फ़ोन कॉल ने असीरा के इंतज़ार को मुकव्वल कर दिया था। 

अम्मी ने जब फिर आवाज़ लगाई तो वहीँ पाँच साल पहले की सी सजी असीरा उनके सामने आ खड़ी हुई। जुम्मन भाई की टैक्सी में अम्मी के साथ वो अपने घर वापस जाते हुए, आँखों में ख़ुशी की आँसू लिए बहे जा रही थी और अम्मी उसकी पीठ सहला कर माथे चूम रही है।              

Monday, July 25, 2016

“बंडेल लोकल” (कहानी).


मैं उसे बहुत प्यार करता हूँ, वो भी सिर्फ़ इसलिए की वो मुझे प्यार नहीं करती। वैसे भी वो मुझे प्यार करे भी तो क्यूँ, प्यार करने के लिए मुझमें कोई वजह तो होनी चाहिए। जैसे उसमें है कई सारी। अगर मैं उसकी खूबियों की गिनती करना शुरू करू तो कैलेंडर में दिन ख़त्म हो जाये, कुल मिलाकर कहूँ तो “मैं नील बट्टे सन्नाटा” और वो नीलम-पन्ना, हीरा-जवाहरात, इत्यादि इत्यादि।
हमारी, ओह सॉरी, मेरी प्रेम कहानी भी वहीँ से शुरू हुई, जहाँ से अमूमन शुरू होती है। नज़र से भाई और कहाँ से, नज़र की मार मारे ही तो मेरे  तरह न जाने यहाँ कितने ही है तो लो जी मैं भी आपकी जमात में शामिल हो गया। ताकि आपकी शिकायत उन लड़कियों तक पहुँचा सकूँ, जिसने नज़रों से हमारा बड़ी ही सफ़ाई से शिकार किया है। जिसने एक बार ये नहीं सोचा कोई बच्चा अपने बाप-माँ के  सपने को पूरा करने के लिए घर से निकला होगा, कोई पति बीबी को उसी तरह खुद को लौटा देने के लिए घर से निकला होगा, कोई मुझ जैसा सिर्फ़ सही सलामत वापस लौट आने के लिए घर से निकला होगा। मैं तो कहता हूँ, उनका तनिक भी भला न हो, वो रोये चीखे चिल्लाये, जैसे हम अपनी तन्हाइयों में रोते चीखते चिल्लाते है, उस दिन को याद करके जिस दिन हमारी नज़रें उन आफ़तों से टकराई थी।
ट्रेन का पहिया लिलुआ की प्लेटफार्म से खिसकना शुरू हो गया था। ट्रेन के बाहर नमक घुली हवा और अंदर दम घोंट देने वाली भीड़। अगर आप किसी कॉर्पोरेट कंपनी में इंटरव्यू के लिए जा रहे है तो मेरी सलाह माने कोलकाता की लोकल ट्रेन को अवॉयड करे, वरना ऑफिस पहुँचने-पहुँचने तक आप खुद ही इंटरव्यू के लिए रिजेक्ट हो जायेंगे। इसलिए चाहे कुछ भी हो जाए, मुझे सफ़र लटक कर ही क्यूँ न करना पड़े, मैं हमेशा गेट पर ही रहता हूँ। कम से कम खुद से की हुई इस्त्री की कड़क ऑफिस तक तो बरकरार रहे।
ट्रेन के खिसकते पहिये के साथ उसके कदमभी तेज़ हो रहे थे। वो भाग कर शायद लेडीज़ कम्पार्टमेंट तक पहुँचना चाहती थी, जो हमारे कम्पार्टमेंट से ठीक आगे था। किन्तु ट्रेन की स्पीड उसके क़दमों से ज्यादा तेज़ थी, ऐसे में उसे इस बंडेल लोकल को पकड़नी है तो लेडीज़ कम्पार्टमेंट तक पहुँचने का ख्याल ज़ेहन से निकालना पड़ेगा या फिर बंडेल लोकल में सफ़र करने का। ज्यों ही उसके कदम मेरे बराबर होने पर आये मैंने बिना सोचे समझे अपना हाथ उसकी ओर बढ़ा दिया, अब सब उसपर निर्भर था, या तो वो मेरा हाथ थामकर सफ़र करे या यही रहकर अगली ट्रेन का  इंतज़ार।
त्वरित में लिए गये मेरे फैसले को सही साबित करते हुए, उसने हाथ थाम लिया था और फिर मैंने एक झटके में खींचकर बना दिया था उसे बंडेल लोकल का सवारी। ट्रेन स्टेशन को छोड़ चुकी थी, और अंदर भीड़ अभी भी खुद को एडजस्ट करने पर लगी हुई थी। मजह दस से पंद्रह मिनटों का सफ़र होता है लिलुआ से हावड़ा का, मगर उस दिन पहली बार ऐसा लगा जैसे ये सफ़र कई घंटों में तब्दील हो जाए, मैं उसे आफ़त तो नहीं कहूँगा लेकिन मेरी नज़र अब उससे भीड़ की धक्कम धुक्की के बीच टकरा गई थी। मृगनी की तरह बड़ी-बड़ी आँखें, उन आँखों में आई लाइनर से की हुई हल्की सी काजल, ठोड़ी पर तिल, उपर के होंठ पर पसीने की सुरमई गुबार, घुंघरालु बाल और वेस्टर्न ड्रेसअप, इस लुक से वो किसी का भी क़त्ल कर सकती थी, फिर भला मेरी क्या विसात। मैं भी देखते ही ढेर हो गया । वो पहली लड़की मुझे ऐसी मिली थी, जिसके अंग-अंग और सुंदरता को उसकी सही जगह पर खुदा ने रखा था। 
नज़र टकराते ही मुस्कुराते हुए उसने आँखों के इशारे से मुझे “थैंक यू” कहा। जिसका रिप्लाई मैंने मुस्कुराते हुए सिर्फ इतना कह कर दिया “जी कोई बात नहीं”। बात तो सच में कोई नहीं थी लेकिन मेरे अगले कई दिन उसकी तलाश में जाया होने वाले थे। क्योंकि हमें कई बार कुछ चीज़ों का अहमियत उससे दूर हो जाने के बाद पता चलता है।
पांच मिनट के सफ़र में मैंने तक़रीबन पचास बार उसे देखा होगा, मगर हर दफ़ा उतना ही सतर्क होकर जितना पिछली बार उसे इत्तला हुए बिना देखा था। पता नहीं उसे मेरी इस हरकत का इल्म था भी या नहीं, मुझे तो लगता है नहीं ही होगा वरना वो मुझे भी टोक देती।
“दादा पहली बार किसी जवान लड़की को देख रहे हो क्या? नज़र तो संभाल लो अपनी यूँ लग रहा है जैसे मेरे देह के आर पार हो जाएगी।“
ट्रेन अगर स्लो होती तो वो अजनबी लड़का शर्तिया कूद जाता। हालाँकि उसने कहा तो था बड़े ही प्यार से किन्तु शर्म रखने वालों के लिए उसके कहे हुए शब्द चुल्लू भर पानी में डूब मरने जैसे थे। उस अजनबी लड़के के साथ उसके बेबाक इरादे और बोल्ड पर्सनालिटी की आंच मेरे जमीर तक भी पहुँच गई थी। मेरे फैले हुए होंठ सिकुड़ गये थे, जिस्म उसके बदन से एक पर्याप्त दुरी बनाने की कोशिश करने लगे। क्या पता उस लड़के की तरह वो मुझे भी कुछ सुना दे।
क्या तो मैं उससे बातें करने के बहाने खोज रहा था और हो क्या गया था? उस लड़के पर मुझे भी अब गुस्सा आने लगा था, मन तो हुआ की मैं भी उसे अंट शंट कुछ बोल दूँ “तुम्हारे घर में माँ-बहन नहीं है बे” या फिर एक लड़कें की हालत पर तरस खाते हुए कहूँ “भाई थोड़ा मेंटेन तो कर लेते, तुम्हारे चक्कर में अपना भी चांस गया”। मैंने कोशिश बहुत की पर मैं उस लड़के को कुछ कह नहीं पाया अल्फाज़ जैसे गूंगे हो गये थे।उ स आफ़त ने मेरे अंदर इतनी खौफ़ भर दी थी की मैं उससे भी कुछ बात नही कर पाया, डर और संशय के बादलों के साये में ट्रेन हावड़ा स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर तीन पर दाख़िल हो गई ।
ये वो वक़्त और जगह था, जहाँ पिछले स्टेशन पर शुरू मेरी कहानी खत्म होने वाली थी। मेरे दब्बूपन ने उसे आँखों से ओझल होने तक पीछा किया। स्टेशन आते ही वो भी मुझे भीड़ का महज एक चेहरा समझकर बिना कुछ बोले अपनी राह चल दी। यही फ़र्क होता है हम लड़कों में और लड़कियों में। हम आशावादी होते है और वे हमेशा अवसरवादी।
उसके जाते ही मुझे कित्ता अफ़सोस हुआ उसका अंदाज़ा मैं खुद नहीं लगा सकता, मेरे सामने वो गई तो थी अकेली लेकिन उसके पीछे-पीछे जैसे मेरा दिल भी चला गया था। अपनी पहली मुलाकात में उस बिन नाम की आफ़त ने मुझे बर्बाद कर दिया था और मैं अपना एकलौता दिल गंवा चुका था। काफ़ी देर लगा था मुझे ऑफिस तक पहुँचने लायक सामान्य होने में।
पूरे दिन ऑफिस में उसकी याद, उसका चेहरा मेरे काम पर हावी रहा। वैसे तो मुझे भी उसके पेटर्न को फॉलो करना चाहिए था, “रात गई बात गई”। मुझे भी उसे कोलकाता की भीड़ का एक आम चेहरा समझ कर भूल जाना चाहिए था। लेकिन उसकी हाथों के नर्म स्पर्श और मजबूत पकड़ ने उसे मेरे दिल के लिए आम कहाँ रहने दिया था, वो तो शाम होते होते मेरे लिए इतनी खास हो चुकी थी की मेरे दिल ने लाखों की भीड़ से उसे बिना नाम पता के ही ढूँढ निकालने का प्रण कर लिया था।
बाईस साल में दूसरी बार उस शाम मैं सही सलामत घर वापस नहीं लौटा था। स्कूल के दिनों में मेरे साथ ऐसा ही कुछ वाकिया हुआ था। ग़लतफ़हमी का शिकार कोई भी हो सकता है और फिर रोमी ने भी तो मुझे उलझा कर रखा था। पहले दिन देखते ही मुझे उससे प्यार हो गया था अगर वो सब पहले साफ़ कर देती तो मुझसे उस दिन छुट्टी के बाद उसका रास्ता में रोकने की गुस्ताखी नहीं होती।
“देखो रोमी सारा स्कूल जानता है की तुम हेडमास्टर की बेटी हो और शायद इसी डर से कई लड़कें तुम्हारे क़रीब आने से डरते है मगर मैं उन डरपोक लड़कों में से नहीं हूँ। मुझे तुम्हारा केशव के साथ बैठना जरा भी पसंद नहीं है। कल से तुम मेरे साथ बैठोगी वैसे भी मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ।“
मैंने रोमी का रास्ता रोकते हुए किसी स्क्रिप्ट की तरह एक साँस में ये डायलॉग चेंप दिया था। ये तो रोनित और उपरवाला ही जानता है, इसे बोलने के लिए मैंने कितने दिन रिहर्सल किया था। उसने हँसते हुए, मेरे फूले हुए गाल को खींचा और बोली “अरे मेरे लड्डू गोपाल, मैं जानती हूँ की पूरे स्कूल में तुम सबसे बहादुर लड़कें हो, मगर मैं तुमसे प्यार नहीं करती। ये तो तेरा भोलापन और सादगी मुझे भाती है इसलिए मैं तुमसे बात कर लेती हूँ। अगर आज के बाद तुमने केशव के बारे में कुछ भी बोला या आज जैसी कोई हरकत की तो मैं सीधे पापा से कह दूंगी की तुम मुझे हमेशा परेशान करते रहते हो।
ये बात सुनते ही मेरे पीछे खड़े रोनित ने सबसे पहले मेरा साथ छोड़ा था। और मेरा चेहरा रूठे हुए फूफा के जैसे हो गया था, जिसे बारात में उसके मन के मुताबिक़ कुछ मिला नहीं हो। मैं आजतक ये सोचता रहा की शायद उसके दिल में भी मेरे लिए कुछ है तभी तो वो मुझसे बात करती है लेकिन मेरी ये सबसे बड़ी ग़लतफ़हमी थी। वैसे भी मेरे जैसे गोल मटोल लड्डू गोपाल से वो क्यों प्यार करती। दिल टूट गया था उस दिन, माँ ढ़लती शाम तक दरवाजे पर खड़ी मेरा इंतज़ार करती रही थी और मैं न जाने कब अँधेरे में घर पहुँचा। उस रात मैंने विद्या की कसम खाई थी आज के बाद इन लड़कियों से कोसो दूर रहूँगा, पता नहीं आज फिर कैसे इसके चपेटे में आ गया।
नींद नहीं आ रही थी, बार-बार उस लड़की का चेहरा आँखों में उभर आता। करवट पे करवट और हर करवट पे सिर्फ़ एक ही सवाल “क्या कभी इन लड़कियों को भी, हम लड़कों के जैसे पहली नज़र में प्यार होता है?” शायद नहीं, क्योंकि वो हमारी तरह प्यार दिल से नहीं बल्कि दिमाग से करती है, “दिखने में वेल पर्सनालिटी का हो, रसूखदार हो, नखरे उठाने वाला हो और बात बात पर जानू बेबी कहने वाला हो” कुछ ऐसी शर्तें होनी चाहिए आजकल बॉयफ्रेंड बनने के लिए, और ये सब सिर्फ पहली नज़र में आमतौर पर आँकना संभव नहीं होता है।
वैसे भी आजकल दिल कौन देखता है, अगर पैसा है तो बहुत हद तक ये लड़कियाँ समझौता भी कर लेती है। पता नहीं वो किस हद तक समझौता करेगी मुझसे, मेरे पास तो देने के लिए तो सिर्फ़ दिल ही था जो वो पहले ही ले चुकी है।
दो दिन हो गये थे मुझे स्टेशन पर बंडेल लोकल की टाइम में उसे तलाशते। आज फिर सुबह वक़्त से पहले स्टेशन पर खड़ा था, अगर किस्मत ने साथ दिया तो आज मिल ही जाएगी। इसी पॉजिटिव सोच के साथ मेरी नज़र हर फीमेल चेहरे का बारीकी से एक्स-रे कर रही थी, थोड़ी सी भी संभावना या गुंजाईश दिखती तो उसे रीचेक करती। एक साथ पहली बार इतनी सारी लड़कियाँ मुझे खुबसूरत लग रही थी। लेकिन मुझे जिस एक चेहरे की तलाश है वो अब तक नहीं दिखी थी और बंडेल लोकल अपने निर्धारित समय से लिलुआ पहुँच चुकी थी। निराश मन से मैंने हमेशा की तरह अपनी जगह ली, जैसे ही ट्रेन खुलने को हुई तो मुझे वो दिखी। उसे देखते ही अपनी ही जगह पर खड़ा-खड़ा मैं उछल गया था। आज वो कुछ एक मिनट पहले थी इसलिए ट्रेन के पिक-उप पकड़ते-पकड़ते वो लेडीज कम्पार्टमेंट में सवार हो गई थी। उसने मुझे नहीं देखा किन्तु मैंने उसे पहचान लिया था।
कुछ काम दिखने में बहुत मुश्किल लगते है, लेकिन जब किस्मत साथ हो और शिद्दत सही हो तो उस काम में सफलता मिल कर ही रहती है। यकींन मानिये मुझे एक परशेंट भी विश्वास नहीं था की वो आज मुझे फिर दिखेगी, मेरे लिए उसकी तलाश उतनी ही मुश्किल थी जितनी अपनी पहचान खोकर खुद को ढूँढना।
आज मैंने ठान लिया था, हावड़ा स्टेशन पर उतरते ही उससे बात करूँगा। अगर सब ठीक रहा तो उसे कॉफ़ी के लिए भी अप्प्रोच करूँगा। हमेशा कम लगने वाला सफ़र आज अचानक से सदियों का लग रहा था, उपर से सिग्नल न मिलने के कारण ट्रेन आउटर पर खड़ी हो गई थी। आज जब वक़्त से पहले पहुँचनी चाहिए थी ट्रेन को कमबख्त आज ही देर कर रही थी।
बरहाल इंतज़ार के बाद मिलने का मज़ा कुछ और ही होता है इस ख्याल को दिल में लिए हुए मैं ट्रेन के स्टेशन पहुँचते ही पलक झपकते उतरा और लेडीज कम्पार्टमेंट के कुछ फ़ासले पर जाकर खड़ा हो गया। मेरे सफ़र को मंजिल तो मिल गयी थी अब देखना था की मेरे तीन तीनों के इंतज़ार को कोई मंजिल मिलती है या नहीं?
आज वो वेस्टर्न ड्रेस-उप में नहीं थी। हरे रंग के पटियाला सलवार और पीले रंग के समीज और कंधे से झूलता हुआ जूट का बेग, आँखों में वही हल्का सा काजल और उस दिन की तरह मन को मोहने वाली भींगी सी मुस्कराहट। वो कम्पार्टमेंट से उतरते ही फिर अपनी राह चल दी, इससे पहले की वो आज फिर आँखों से ओझल होती, मैं उसके पीछे हो लिया। 
“कैसे भी कर के आज मुझे अपने दब्बूपन से बाहर निकलना है, उससे बात करनी है। कैसे करूँ.. कैसे करूँ?“ 
मैं उसके पीछे खुद से गुफ्तगू करता हुआ बढ़ रहा था और वो मुझसे बेखबर अपनी धुन में चली जा रही थी। ऑफिस वक़्त से पहुँचने की टेंशन आज मैंने छोड़ दी थी, इस वक़्त  सबसे जरुरी काम था सिर्फ़ उससे बात करना मगर कैसे? उसी का जवाब नहीं मिल पा रहा था मुझे। स्टेशन से बाहर निकलते ही उसने एक भिखारी को कुछ सिक्के दिए और बदले में उससे ढ़ेरो सारी दुआं मिली, दुआओं की जरुरत तो वैसे मुझे थी वो भी सबसे ज्यादा। 
अचानक उसकी हील वाली सेंडल ने उसे धोखा दिया और वो लडखडा कर गिरने को हुई की मैंने उसे पीछे से थाम लिया। शायद उस भिखारी की दुआ खुदा ने मेरे लिए सुन ली थी, वो घबराई सी मेरी बाँहों में थी। उसकी आँखें मुझे देखकर हैरत से बड़ी हो गई थी। होंठ कुछ कहने के लिए मचल रहे थे। सच कहूँ खुदा ऐसे वक़्त में मेरी साँसें भी रोक देता तो मैं उससे शिकायत नहीं करता। लेकिन ये वक़्त और पल तो सिर्फ़ गुजरने के लिए बने है।
अगले ही पल शरमाते हुए खुद को सँभाला और मेरी बाँहों से जुदा हुई। और फिर वही तकल्लुफ के आलम “थैंक यू” लेकिन आज थैंक यू के साथ कुछ शब्द भी मेरे लिए उसके जुबाँ से फूटे थे।
“लगता है आपको मुसीबत में मसीहा बनकर सामने आने की दुआ मिल रखी है।“
“वो कैसे?” मैंने बात को बढ़ाने के लिए अपने दब्बूपन का सहारा लिया।
“दो दिन पहले आपने अपना हाथ देकर, मुझे ट्रेन पकड़वाई थी और आज बीच सड़क पर गिरने से बचाया, इससे क्या समझा जाय?“
“ये भी तो हो सकता है, उस दिन इत्तेफ़ाकन हमारी मुलाकात हुई हो और आज मैं जान बुझकर आपका पीछा कर रहा हूँ। “     
वो खिलखिला कर हँस दी, “अच्छा तो आप मजाकिया भी है” हँसते हुए उसने कहा।
“ये तो तब पता चलेगा, जब आप जैसी खुबसूरत लड़की किसी कॉफ़ी शॉप में मेरे साथ बैठी हो और वो कॉफ़ी की चुस्कियों के संग मेरी बातों पर खुलकर मुस्करा रही हो।“
“इसे आपका रिक्वेस्ट समझूँ या ख्वाहिश?“
“अगर आप एक्सेप्ट कर ले तो रिक्वेस्ट और नहीं तो जस्ट अ ख्वाहिश। बाय द वे आई ऍम अजय।“
“आप बड़े दिलचस्प इंसान लगते है अजय, वैसे मेरा नाम शैली है। आप जैसे इंसान के साथ कॉफ़ी पीने में मज़ा आएगा।“
थैंक यू .. शैली !! 
मैंने अपना सारा कॉंफिडेंट, फ़िल्मों का सारा ज्ञान, कहानियों के वो सीन जिसमें कोई लड़का किसी अजनबी लड़की से पहली बार एप्रोच करता है वो सारे पैतरे अपने हुनर के साथ उन लम्हों में झोंक दिया था। आज आर-पार की लड़ाई थी मेरे लिए।
“मगर सॉरी अजय .. कॉफ़ी अभी तो पोसिबल नहीं हो सकती, हाँ शाम में छह बजे अवनी रिवरसाइड मॉल के सी.सी.डी में, इफ यू हैव अ फ्री इवनिंग?“
“व्हाई नोट .. आई हैव, थैंक्स”।
फिर हम एक दुसरे को बाय कर अपनी-अपनी राह चल दिए। फ़िल्मों से मेरी अक्सर एक शिकायत रहती थी, कैसे पहली मुलाकात में ही कोई लड़की लड़के से सेट हो जाती है? जिसका जवाब आज मुझे मिल गया था, सब वक़्त और मौके की बात होती है दोस्त। मेरे एक करीब के भैया थे जिनके पास इन सवालों का एक सटीक जवाब होता था “सब भाग्य भोग की बात है”। ये तो तय था की भाग्य आज मेरे साथ है, अब देखना है भोग वाली बात उनकी, मेरे भाग्य के कितने साथ है? और फिर ये रील लाइफ नहीं रियल लाइफ है भाई। इतनी आसानी से यहाँ लड़की सेट नहीं होतीआम लड़कियों की तरह इसकी भी कुछ शर्तें होंगी जिसको पता लगाने में वक़्त तो लगेगा ही।
उसके हल्के से साथ पर मैं दिन भर बेमतलब का अपने ख्यालों में उड़ता रहा। जिस जवान लडकें के पासगर्ल फ्रेंड न हो, ये उस लडकें के लिए कितनी जिल्लत की बात होती है। ये जिसे फेश करना पड़ता है वही बता सकता है। जिस तरह अच्छे ड्रेस, स्मार्ट फ़ोन, अच्छी बाइक या कार आज स्टेटस सिम्बल है, ठीक वैसे ही गर्ल फ्रेंड होना ही आज हम जैसे लड़कों के लिए किसी स्टेटस सिम्बल से कम नहीं होता। और फिर मैं रोमी की गलती की सज़ा एक लम्बी उदास और वीरान जिंदगी गुज़ार कर दे चूका हूँ, अब तो मुझे मौका मिल रहा था रंगीन और हसीन जिंदगी जीने का।
“सर, दो बार चाय गर्म कर चुका हूँ। और बड़े साहब भी आपको याद कर रहे है।“
ऑफिस बॉय ने, मुझे अपने ख्यालों से निकालकर ऑफिस के उस टेबल पर ला कर पटक दिया। जिस पर रखी फ़ाइलें आज अचानक से मुझे नहीं सुहा रही थी। बड़े साहब ने ऑफिस पहुँचते ही मुझे जो काम दिया था, उसे भी अब तक पूरा नहीं कर पाया था। ऐसे में उनका बुलाने का मतलब सीधा और साफ़ था, “बेटा अजय तैयार हो जा, लड़की अभी ठीक से मिली नहीं की ऑफिस में वर्क का आउटपुट, आज से ही खराब होने लगा। शर्तिया, उस अड़ियल, टकले, साउथ इंडियन ने डांट सुनाने के लिए बुलाया होगा। साले ने हिंदी को एक अलग ही भाषा बना दिया है। मुझे एक बात समझ नहीं आती, जब हिंदी बोलना सही से नहीं आता तो बोलता ही क्यूँ है? तमिल, तेलगू या मलयालम ही बोल ले कम से कम उनकी डांट हमारे पल्ले तो नहीं पड़ेगी। नहीं उसे तो जब भी बोलना है तो हिंदी की इज्ज़त उतार कर ही।“
“यस सर” बिना नॉक किये मैं बेधड़क उनके केबिन में घुस गया था।
“ओह अजय, तुम आ गई प्लीज सीट।“
साला ज़रूर ज्यादा सुनाने वाला है, वरना आमतौर पर इतनी देर नहीं लगाता मुद्दे पर आने में। उसके कहने पर मैं सामने की चेयर पर बैठ गया था, अब प्रतीक्षा थी, इस बलि के बकरे को कटने की।
“यू नो अजय, ये मेरे हाथ में क्या होती?” उसने एक सफ़ेद से लिफ़ाफे को दिखाते हुए कहा।
भाई मेरा दिल तो आधा हो गया था। एक तो साले की शक्ल भी इतनी बुरी थी, उपर से बोलते वक़्त चेहरे पर एक ज़रा स्माइल नहीं। मुझे समझ नहीं आता ऐसे लोगों को उपरवाला ऐसे तैसे पैक कर जमीन पर क्यूँ भेज देता है, भाई और भी ग्रह है दुनिया वहाँ भेजे। कम से कम इनके चेहरे को देख कर एलियन समझकर हम खौफ़ में तो आ जाय। यहाँ तो अपनी ये इक्छा भी जता नहीं सकते है। मैं ही झूठी सी स्माइल लेकर। 
“व्हाट इज दिस सर?”
“थिंक .. थिंक।”
“थिंक .. थिंक, साला सेम इसी तरह थिंक .. थिंक कह के बनर्जी को टर्मिनेशन लैटर थमाया था, कहीं मुझे भी तो नहीं.. उपरवाले की सो(कसम) अगर ये मेरा बॉस नहीं होता तो इसी समय खींच के एक रेपटा देता कान के नीचे। अजीब सियापा था, मुझे समझ नहीं आ रहा था की क्या बोलू। पिछले दिए हुए उसके सारे काम तो टाइम लाइन पर पूरा कर दिया था, सिर्फ आज का ही काम अब तक पूरा नहीं कर पाया था। मैं खुद के अंदर पिछले कामों का लेखा जोखा देख रहा था। तभी उसके काले से चेहरे से सफ़ेद दांत बाहर आये।
“दिस इज योर प्रमोशन लैटर अजय, तुमको मेनेजर बना दी गई है। आज से तुम इस चेयर पर बैठती और मेरा काम संभालती। कांग्रट्स“
मैं गलत था, ये माहिर आदमी निकला यार। ज़रूर उसने कईयों को ऐसे गुड न्यूज़ दिया होगा। कुछ देर के लिए साले ने तो मेरी हवा टाइट कर दी थी। इस ख़ुशी को अपनाने में मुझे कुछ वक़्त लगा, एक–एक करके तमाम कलीग्स ने जब आकर बधाई दिए तो यकीं हुआ की बॉस ने सच में मुझे प्रमोशन दिया है। वक़्त आज जितना मेरे साथ था उतनी तेज़ भाग भी रहा था। अब वक़्त था अपनी खुशियों को दोगुना करने का, शैली से मिलकर। मैं सभी से अलविदा कह अवनी मॉल के लिए निकल गया।
सी.सी.डी में मैंने कोने की एक टेबल पकड़ ली। घड़ी में छह पर काँटा पहुँचने में अभी कुछ पन्द्रह मिनट बाक़ी थे। कुछ ऐसे वक़्त होते है जहाँ हम समय से आगे चलना पसंद करते है। मन खुश था सो बहुत सी बातें आ रही थी। शैली से क्या बात करूँगा, कैसे अपने दिल की बात उसके सामने रखूँगा लेकिन इन बातों के बीच एक डर भी बना हुआ था। उस स्कूल वाले हादसे का “कहीं फिर वैसा ही कुछ हुआ तो? नहीं मैं इस बार जल्दबाज़ी नहीं करूँगा। जबतक शैली को और उसकी जिंदगी के बारे में अच्छे से जान नहीं लूँगा, मैं आगे नहीं बढूँगा।“ अभी मैं शैली और अपने रिश्ते की शुरुआत के लिए सही जमीन तलाश कर ही रहा था की शैली ने यकायक आकर उसपर विराम लगा दिया।
“हाय अजय, आप तो वक़्त के बड़े पाबंद निकले। मुझे लगा था की मैं आपसे पहले पहुँची हूँ लेकिन यहाँ इंटर करते ही आपको देखकर मेरा भ्रम टूट गया।“
“हाँ, कुछ ऐसे वक़्त होते है जहाँ हम समय से आगे चलना पसंद करते है।“
“वाऊ, कितनी अच्छी सोच रखते है आप। अब तो ये श्योर हो गया मेरा आपके साथ कॉफ़ी पीने का फैसला बिलकुल सही था।”
“हा हा हा ..” हम दोनों एक साथ हँस दिए थे।
उस शाम, हम दोनों ने एक साथ घंटों वहाँ बिताये। वो मेरी कई सारी बातों पर कई बार खिलकर मुस्कुराई भी थी। उसकी बातें और उसका अल्हड़पन मुझे और घायल कर रहा था। लड़कियाँ इतनी भी बुरी नहीं होती है, हाँ वो इतनी अच्छी भी तो नहीं होती। नहीं तो वो मुझे कुछ तो खुद के पर्सनल लाइफ के बारे में बता देती, मैंने तरह तरह से कई दफ़े जानने की कोशिश की मगर हासिल सिर्फ इतना हुआ की वो एकऍफ़ एम चैनल में प्रोग्राम हेड है और अपने माँ बाबा के साथ लिलुआ में रहती है। हाँ एक बात हुई थी उस शाम जाते जाते उसने मेरी फ्रेंडशिप एक्सेप्ट कर ली थी, जब मैंने उसे ये बताया की तुम्हारा मिलना मेरे लिए आज लकी रहा, मुझे प्रमोशन मिली है। अब हम रोज रोज मिलने लगे थे। एक साथ बंडेल लोकल से आते और एक साथ ही जाते।
हमे साथ-साथ लगभग एक महीने गुजर गये थे, और अबतक मुझे वो सही मौका नहीं मिला था। हालाँकि इतने दिनों में इतना तो साफ़ हो ही गया था उसके लाइफ में कोई और लड़का नहीं है। न ही मैंने कभी उसे किसी लड़कें का जिक्र करते सुना और न ही कभी उसे किसी से बात करते। बल्कि उसकी कई हरकतें तो ऐसी थी, जो मुझे सीधा-सीधा प्रपोजल लगा था। मगर मैं जोश में होश या यूँ कहे शैली को नहीं खोना चाहता था। इसलिए जब तक साफ़ नहीं होगा, मैं अपने दिल की बात उसे नहीं कहूँगा। ये ठान लिया था।
ये तो थी दिमाग की शर्तें पर दिल तो जब भी उसके सामने होता, वो चाहता चीख चीख कर अपनी सारी बात बता दूँ। सो मैंने दिल और दिमाग के बीच खींच तान ज्यादा न बढ़ाते हुए, आज का दिन चुना था। आज मेरा बर्थडे है और इससे अच्छा वक़्त अपने प्यार का इजहार करने का नहीं हो सकता था। जगह भी मैंने वही सी.सी.डी की वाली चुनी, क्योंकि जहाँ से आपकी एक बार अच्छी शुरुआत मिल चुकी है, वो जगह आपको आगे भी एक नई शुरुआत के लिए मददगार ही साबित होती है ऐसा मेरा मानना था। रोज की तरह हम हावड़ा स्टेशन से अपने अपने ऑफिस के लिए जुदा हो रहे थे।
“अजय, शाम में हम आज सी.सी.डी मिल रहे है न?” शैली ने मेरे शाम के प्रोग्राम पर जोर डालते हुए कहा।
“ऑफ कोर्स शैली, आई हेव अ सरप्राइज फॉर यू।“
“ओह .. रियली।“
“यस शैली।“
“वेल देन, मैं भी तुमको एक सरप्राइज दूंगी, तैयार रहना”।
“व्हाट, प्लीज टेल व्हाट ..?”
“नो, नो ..अजय .. उसके लिए शाम तक तुम्हें इंतजार करना होगा।“
“ओके .. फिर हम शाम में मिलते है अपने-अपने हिस्से का सरप्राइज लेकर ..बाय” ।
और हम फिर अपने अपने राह चल दिए। बड़ी उधेड़बुन में मैंने दिन बिताया था, “पता नहीं शैली क्या सरप्राइज देगी.. ज़रूर वो कुछ अच्छा सा गिफ्ट लेकर आएगी”। मैं तयशुदा टाइम पर सी.सी.डी. पहुँच गया था। अब बस शैली के आने की देर थी। मन में एक अच्छी वाली फीलिंग्स थी की यहाँ से निकलने के बाद शैली मेरी गर्लफ्रेंड होगी। “मैं उन तमाम जोड़ों को चिढाऊंगा, जिसने आते जाते कभी ट्रेन में, कभी शौपिंग मॉल में, कभी मूवी हॉल में, मेरे अकेलेपन को मजाक की नजरों से ताड़ा था। मेरे फ़ोन के कांटेक्ट लिस्ट में भी किसी का नंबर जान नाम से सेव होगा। मैं भी आम लड़कों की तरह कान में लीड लागाये अपनी जी.ऍफ़ से घंटों बातें करूँगा। मेरे व्हाट्सअप्प पर भी किसी के मैसेज बार बार पिंग होंगे। मैं इतनी उम्र का भी नहीं हुआ था जितनी उम्र का वक़्त ने मुझे बना दिया था। आज फिर से अपनी उम्र के लकड़ों की तरह बन जाना चाहता हूँ, वो भी सिर्फ और सिर्फ शैली के लिए। ओह शैली, मैं बता नहीं सकता की मैं तुम्हें कितना मोहब्बत करने लगा हूँ।“
“कितना..”  यकायक आकर उसने मुझे चौंका दिया था।
“व्हाट .. “? मैंने हैरत से कहा, उसका कितना कहना यूँ लगा जैसे वो मेरे पीछे खड़ी होकर मेरी दिल की बातें सुन रही थी।
“आई मिंट, तुम्हें कितनी देर हुई, यहाँ आये हुए?”
“ओह”.. मैंने सुकुन का साँस लिया .. “यही कुछ दस पंद्रह मिनट्स”।
उसने मुझे बर्थडे विश किया और कहा “कुछ ही पलों में मैं तुम्हें वो सरप्राइज भी दूंगी” कहते कहते ही “लो सरप्राइज भी आ गया”। टेबल पर स्पेस बनाते हुए कहा।
मेरी नज़र उस ओर गई, जिधर देखकर उसने कहा की “लो सरप्राइज भी आ गया”। एक बड़ा ही हैण्डसम लड़का, अपने हाथ में एक पैकेट थामे मुस्कुराते हुए हम दोनों की ओर बढ़ा आ रहा था। उसने मेरे लिए केक का आर्डर प्लेस किया था, ये सोचकर इतना खुश था की दुनिया की सारी खुशियाँ उसके सामने छोटी थी। आपकी गर्ल फ्रेंड आपकी केयर करे, ये फीलिंग्स होना ही लड़के को ख़ुशी से भर देता है और यहाँ तो उसने मेरे लिए सरप्राइज केक भी अर्रेंजड किया था।
“थैंक गॉड, तुम टाइम पर हो सहज”। शैली ने उस लड़के के हाथ से पैकेट लेते हुए कहा।
“सहज” .. मेरे जुबान ने पूरी तरह से अफ्लाज़ नहीं उगले मगर उस लड़के का नाम होठों से बाहर आ गया था। एक जोर का झटका सा लगा था मुझे, उन दोनों की सहजता देखकर “क्या तुम एक दुसरे तो जानते हो”? बड़ी हिम्मत करके मैंने शैली से पूछा, जिसका जवाब “हाँ” मगर पहले केक काट लो फिर तुमको सहज से मिलाती हूँ।
किस केक कटवाने की बात कर रही थी, मैं उस घड़ी क्या महसूस रहा था। ये तो सिर्फ वही समझ सकता है, जो मेरे ही तरह अपने सपने के क़रीब पहुंचकर शीशे की तरह झन्न से टूट गया हो। मैं ब्लेंक हो गया था, उसने अब केक को टेबल पर रखा, कैंडल जलाया, मेरे हाथ में नाइफ थमाया, मैंने फूंक मारी फिर कब उसने बर्थडे सोंग गाया। मुझे कुछ एहसास नहीं, मेरी रूह ने तो जैसे जिस्म का साथ छोड़ दिया था। मेरी साँस चल रही थी और मैं वजूद मुर्दा था।
“आर यू आल राईट?”
उसने मेरे मुंह में केक का टुकड़ा डालते हुए, मुझे हिला कर कहा। मैंने हाँ में सर को हिलाया और मुंह खोलकर उस केक के टुकड़े को एक ज़हर का निवाला समझकर घोंट गया। फिर मेरे अंतिम क्रिया करम की रस्म अदायगी हुई।
“अजय, ये सहज है मेरा फिओंसी.. और सहज ये अजय जानते हो सहज जब तुम अचानक ट्रेनिंग पर चले गये तो मेरी मुलाकात अजय से हुई। अजय ने तुम्हारे एब्सेंट में मेरा बहुत ख्याल रखा, उसने तुम्हारी कमी मुझे एक दिन भी महसूस नहीं होने दिया और देखो अब हम एक अच्छे दोस्त भी बन गये है। बाय द वे, अजय तुम्हारे पास क्या सरप्राइज था?“ उसने सहज की ओर से अचानक मेरी ओर मुखातिब होकर कहा
“ओह हाँ, हाँ, मैं तो भूल ही गया था बताना.. मेरा ट्रांसफर हो गया है। मैं कोलकाता छोड़ कर जा रहा हूँ हमेशा हमेशा के लिए।“


और फिर मैं उसी समय बीच से ही उठकर बाहर आ गया। फिर वही सब कुछ मैं आशावादी बना रहा और वो आम लड़कियों की तरह अवसरवादी। इस बार मेरा दिल बहुत बुरी तरह से टूटा था, पता नहीं क्यों ऐसा करती है लड़कियाँ, क्या मिलता है उन्हें इससे। वो क्यूँ समझकर भी बहुत कुछ समझना नहीं चाहती। खैर जो हो मेरे लिए तो ये लड़कियाँ सिर्फ़ मतलबपरस्त और मौकापरस्त,जो हम जैसे भोले भाले लड़कों को सिर्फ यूज़ करना जानती है। और एक बात कहूँ तो दोस्तों मैं भी बहुत बड़ा डफ्फ़र था, जो ऐसी लड़कियों को कभी नहीं समझ सका। लेकिन जो हो, मैं आज भी शैली को बहुत प्यार करता हूँ