Sunday, January 26, 2014

क़त्ल हुई मैं फिर "वीरभूम" में ...

बिस्तर पे सुन्न लेटी
मैं पूछ रही थी
लहुलुहान हुई पड़ी इंसानियत से,
वो प्लास्टिक की गुड़िया सुनहरे बालों वाली
किसने दिया था बचपन में मुझको,
ये कह कर की यह तू है.
देख तेरे हाँथ खुले हुए है तू आज़ाद है
तुझपे कोई बंदिश नहीं है
तुझे छोटे कपड़े पहने की भी छूट है
तुझे प्रेम करने का भी हक़ है
इस गुड़िया के जैसे,
तू अपना घरोंदा का खेल खुद ही खेलना
जब तुम बड़ी हो जाना तब,
पर तुम कभी क्यों रो रही हो ?
थोड़े से चोट लगने पर
जबकि हमने मना किया था न
लड़कों वाले खेल मत खेलना
क्योंकि तुम एक लड़की हो,
देख गाँव के मुखिया चाचा भी आये है
तेरे रोने की आवाज़ सुन के
और ये पड़ोस के सभी चाचा भाई सब आये है
तुझको चुप कराने तुझको मनाने,
चलो अब चुप हो जाओ और
जाओ अपने सखियों संग खेलने लड़कियों वाली खेल,

आज मुझे याद आ रही है
वो बचपन की झूठी बातें
जो मुझे बहलाने के लिए कहे गए थे,
जो मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल थी,
क्योंकि वही मुखिया चाचा वही पड़ोस के चाचा भाई ने
मुझको कालिख बना
खुद का मुँह काला किया कल के ही दिन
जबकि न मैंने छोटे कपड़े पहनी थी
न कोई और मर्यादा ही तोड़ी थी
हाँ मैंने सिर्फ प्रेम की थी
खुद से की थी ..  और सब से की थी,
पर, क्या प्रेम करना सजा है ?
अगर सजा है तो
क्यों इन लोगों ने उनका सजा नहीं दिया जिसने ये प्रेम बनाया ?
छोड़ो ...
ये सोच कर क्यों खुद को और दुःख देना,
मैंने बचपन की उस गुड़िया को
पुरे कपड़े पहना दी हूँ
हाँथों और पावँ में बेड़ियाँ बांध दी हूँ
और माथे पे लिख दी हूँ
क़त्ल हुई मैं फिर "वीरभूम" में
इस खोखली दुनिया के हाँथो
जो इंसानियत को लात मार
झूठी पुरुषार्थ को ढ़ोती है,
भूल के यह की
इसके पुरुषार्थ का अस्तिव हम नारी से ही है !!

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