Monday, January 13, 2014

सुनहरी हंथेली ...

हो सके, तो
अपने सुनहरी हंथेलियों पे
एक हाशिया सा
लकीर खींच लेना तुम,
और
उस हासिये पे
मुझे व मेरे प्रेम को रख देना,
बाँकी बचे हिस्से पे
अपनी कानों की बाली के आकार के
दो चार गोल परिधि बना लेना,

मैं अपने हिस्से से
तुझे अपलक ताका करूँगा
और तुम,
परिधि बदल बदल के
उसके गोलाईयों से मुझे ताकना,

संवाद एक दूसरे तक पहुँचाने के लिए,
अपने गावं के पुराने खो से दो परवा ले आऊँगा,
जो एक तेरे पास और एक मेरे पास रहेगा,

जब कभी तेरे साँसें अधीर हो जाये
मुझसे बात करने को,मिलने को
तो तुम
उस गोल परिधि के दायरे से
उन्हें मेरा नाम कह कर उड़ा देना,

मैं जो हमेशा से
तेरे इंतज़ार में हूँ,
उस परवे को देख कर
तेरी दी गई सारी हदें तोड़ के आ जाया करूँगा,
फिर मिलकर तुझसे
तेरे अधीर साँसों को
तब तलक स्थिर करता रहूँगा,
जब तलक
तेरा मन और तेरे हंथेली का दायरा
पुर्णतः मेरे प्रेम में सिमट न जाये,

तेरे प्रेम में समर्पित
मेरे मन व  साँसों की ओर से
और मैं क्या कहूँ,
हाँ एक बात जरुर कहना चाहूँगा
मैं अपने हिस्से के परवे को कभी नहीं उड़ाऊँगा
चाहे भले मेरी साँसें कितनी ही अधीर क्यूँ न हो जाये,
क्योंकि मुझे पता है
तुम मेरे प्रेम मैं कुछ भी कर सकती हो,
सिर्फ और सिर्फ
अपने बनाये हदें को तोड़ नहीं सकती हो,

इसलिए आज तुझसे गुज़ारिश है
तुम अपने बनाये गोल परिधि मैं रहो,
मेरे प्रेम के साथ ,
और मैं,
तेरे दी गई इस हाशिये में
तेरे प्रेम के साथ रहता हूँ ... प्रेयसी !

5 comments:

  1. प्रेम का उन्माद कभी भी कुछ भी कराता है ...
    गहरा एहसास लिए लाजवाब रचना ...

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    1. दिगंबर नसवा जी शुक्रिया आपका भी तहेदिल से !!

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  2. इसलिए आज तुझसे गुज़ारिश है
    तुम अपने बनाये गोल परिधि मैं रहो,
    मेरे प्रेम के साथ ,
    और मैं,
    तेरे दी गई इस हाशिये में
    तेरे प्रेम के साथ रहता हूँ ... प्रेयसी !
    ....लाज़वाब.....

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    1. कैलाश शर्मा जी बहुत बहुत आभार आपका भी !!

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  3. आभार आपका मिश्रा राहुल जी ... इस रचना को चर्चा मंच में शामिल करने क लिए !! इसी प्रकार स्नेह बनाये रखे !!

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