एगो बात छय, दूगो बात छय और सब बात छय .... ठस, इनीम धिनीम, कहकर अखबार का टुकड़ा उठाया और पढ़ने लगा “लालू है
चालू, बिहार को बना भालू, खाए छय सफालू, चंडाल चौकरी आक थू” ...
दीपक के चाय
दुकान पर मेरी नज़र जब रघुआ पर पड़ी तो मुझे हँसी आ गई, उसकी अजीब सी हरकतों ने वहाँ पर
बैठे अन्य लोगों के साथ मेरा ध्यान भी अपनी ओर खींचा था। मेरे ही तरह और कई लोगो ने भी उसकी हरकतों पर एक फ़ास्ट ट्रैक
कोर्ट के जैसे फैसला सुनाते हुए कहा ”पागल है साला .... पागल”।
“रघु ... हे
रे रघु.. चाय लाय जो” दीपक चा ने आवाज़ लगा कर रघुआ को चाय ले
जाने को कहा।
रघु ने आवाज़
आने के दिशा की ओर मुड़ कर हँसते हुए देखा, फिर दोनों हाँथों को मोड़ कर धीरे-धीरे से उठा
और कदम बढ़ाते हुए दीपक के करीब पहुँच कर कहा “ई जहर के
प्याला पी कर के ह्म्म्मे शिव बनबे, पर कौन सा शिव? उ भोला और सब चालू, चंडाल चौकरी आक थू”...।
चाय ले कर रघु
वापस मेरे सामने वाले तख्ते वाले
ब्रेंच पर बैठ गया, और प्यासे बछड़े के जैसे चाय घोंटने लगा।
मैं भी एक और चाय मँगा उसको घूरते हुए सोचने लगा “क्या यह
सचमुच का पागल है, या पागलपन का नाटक कर रहा है? खैर, जो भी हो, उसने दो बार
मुँह खोला और अपने व्यंग से नेता, प्रशासन, भगवान और समाज पर थूक कर, सब की ऐसी की तैसी कर दिया।
यह साधारण बात नहीं थी।” पागलपन में जो हरकतें करते हुए उसने व्यंग किया था, वह व्यंग मेरे मस्तिष्क में जड़े
जमाने लगा था, उसके वजूद को लेकर। सहसा वह ब्रेंच से उठा और सुभाष चौक की ओर दौड़ लगा दिया, इससे पहले मैं कुछ समझ पाता, गाड़ियों की आवाजाही के भीड़ में वह मेरे आँखों
से ओझल हो गया।
"दीपक चा, जरा इधर आइये" मैंने आवाज लगाया।
वे मेरी आवाज़ सुनकर बोले ”कुछ और चाहिए?” "न न..आप बस यहाँ आइये, आपसे कुछ बात करनी है।"
मैंने उत्तर दिया।
दीपक चा की
चाय दुकान मधेपुरा के मेन मार्केट में नामी तो नहीं थी, किन्तु उनके दुकान पर हमेशा भीड़ लगी रहती थी। उन्होंने भीड़ लगाने के लिए
कलर टीवी जो लगा रखा था। जिसपर हमेशा फिल्म चलती रहती और लोग फिल्म का मज़ा उठाते
हुए, गिलास के गिलास चाय पीते रहते। मुझे याद है, जब कभी मेरे पास पैसे नहीं होते, तो वे मुफ्त में
चाय पिला दिया करते थे। काफी बड़ा दिल है उनका, इसलिए तो
उन्होंने रघु को भी चाय पिलाया था।
दीपक चा
मेरे सामने खड़े होकर बोले, “हाँ,
बोल ... की बात?”
“पहले बैठ त जा” मैंने तख्ते को अपने करीब खींचते हुए कहा “उ पागल्बा कैय रहे”
"ओह
.. उ रघुआ रहे, कि भैले जे,
तू ओकरा बारे में पूछ रहल छि?
"भैले
कुच्छो न .. यूँ ही .. बस जाने के इक्छा भैले। सच कहिये त उ बड़ा ही दिलचस्प और
संवेदनशील इंसान लागले हमरा।"
"उ त
छेबे कर ले .."
"कि
मतलब ?"
"मतलब
उतलब छोड़, अभी दुकान दारी के टाइम छे, दिमाग ख़राब मत कर। बाद में कभी फुर्सत से बतैबो।"
मैंने ज्यादा तंग करना उस वक़्त ठीक नहीं समझा, इसलिए रात को बतलाने का वादा ले कर चला आया। घड़ी का कांटा सुबह के नौ से घूमकर रात के नौ पर जब पहुँचा, मैं घर से निकल कर दीपक चा के दुकान की ओर चल दिया। दीपक चा दुकान बढ़ाने की तैयारी कर रहे थे, उन्होंने मुझे देखते हुए कहा “तू आ गेली, चल बढ़िया कर ली। अब ऐली हँ त, तनी मदत कर दे।” मदद की बात सुनकर, मैंने उनका साथ देते हुए दस मिनट में दुकान बढ़ा दिया। दुकान बढ़ने के बाद, हम दोनों बाहर खुले आसमान के नीचे कुर्सी डाल कर दूकान के सामने बैठ गये।
मार्च का
महीना, हवाओं में फागुन की मादकता, सड़क के उस तरह बजरंगबली का मंदिर, आने जाने वाले इक्का-दुक्का आदमी वहाँ रुक कर, अपने
आगे की जीवन यात्रा के कुशल मंगल की कामना सड़क के इस
ठेकेदार से कर आगे बढ़ते रहे, और मैं उन सब को निहारते हुए
सोच रहा था कि कल के आये भूकंप से मंदिर लगभग झुक ही गया है, कल तो जैसे लग रहा था मंदिर गिर ही जायेगा, शुक्र है
गिरा नहीं।
दीपक चा भी
मंदिर की ही ओर देख रहे थे। मैंने
कहा “दीपक चा बतबा .. रघु के बारे में अब।
क्या बताये,"- उन्होंने मंदिर की ओर इशारा कर कहा “इस उपर वाले ने भी उसके साथ इंसाफ नहीं किया”?
मैं समझा
नहीं, इसका मतलब?
ठीक है, मैं संक्षेप में सुनाता हूँ, जिससे
तुम समझ सको, क्योंकि तुम्हारी चाची घर पर मेरा इंतजार
कर रही होगी।
ओ हो.. चाची, कोई बात नहीं आप संक्षेप में ही सुना दीजिये।
मुझे याद है, चार साल पहले के सोमवार की वह सुबह, जब
किसी ग्राहक ने दुकान पर कहा “आज रघु के केस की आखिरी सुनवाई है। आज उसे सज़ा मिल जायेगी।”
ग्राहक से यह सुनते ही, मैं दुकान तुरंत बढ़ा
कर कोर्ट पहुँच गया। जून का महीना चल रहा था, इसलिए कोर्ट सुबह-सुबह ही खुल जाता था। सेशन कोर्ट के उस छोटे से रूम में मुझे बड़ी ही मुश्किल से जगह मिली थी। वह भी एक चपरासी को पैसे दे कर। मेरे साथ वकील
और रघु के कुछ रिश्तेदार, जज और रघु के आने का इंतजार कर रहे थे। करीब साढ़े सात
बजे माथुर साहब(जज) अपने चश्मे को पोंछते हुए
कोर्ट रूम में आये और ठीक उनके पीछे हथकड़ी से
बंधा रघु हँसता हुआ दाखिल हुआ।
करवाई शुरू
हुई, रघु को कटघरे में खड़ा किया गया। कटघरे
में खड़े होते ही रघु ने कहा “जज साहब एगो बात छय, दूगो बात छय और सब बात छय .... ठस ।”
माथुर साहब
अपना चश्मा थोड़ा नीचे सरका कर, रघु पर
तिरछी नजर डाल कर हँस दिये। माथुर साहब की हँसी इस बात
की सूचक थी कि वह भी समझ चुके है, रघु यादव पागल हो गया है।
आधे घंटे
वकीलों के गहमा गहमी के बाद माथुर
साहब ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा "रघु यादव वल्द सरयू यादव को बैकुंठ सिंह
के हत्या का दोषी माना जाता है, जैसा कि उसने पहले ही इकबाले
जुल्म कर लिया है और साक्ष्य भी यही दर्शाता है कि वह अपराधी है। इसलिए ये कोर्ट उसे चौदह साल सश्रम कारावास की सज़ा सुनाती है। विपरीत इसके उसका
कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है और उसके आज की मानसिक हालत को मद्देनजर रखते हुए, कोर्ट उसे तात्कालिक जमानत देते हुए मानसिक चिकित्सा
कराने की पेशकश करता है, अगर भविष्य में रघु ठीक होता
है, वह इस मानसिक बीमारी से निकल पाता है, तो सामान्य होते ही इसे अपने किये गये गुनाह के बदले सज़ा भोगनी पड़ेगी।"
मुझे तो पहले
लगता था, वह पागल नहीं है। मौत के सजा से बचने के लिए, यह नाटक कर रहा है। मगर मेरा यह सोचना गलत था। मैं उससे मिलने एक
बार जेल गया, अपने इन्हीं सवालों का जवाब पाने। उस वक़्त उसने मुझे पहचाना नहीं परन्तु जब मैंने यूँ ही एक सवाल सब्जेक्ट
के किताब से किया, तो उसने कॉलेज के दिनों के तरह ही बड़े
आराम से जवाब दे दिया। यह सुन कर मैं दंग हो गया। मेरे दिमाग में उसके पागलपन को लेकर असमंजस की भावनाएं और गहरी हो गई। इसलिए मैं वहाँ से आकर डॉक्टर मिथलेश के पास गया, और
उन्हें जब यह सारी बात बतायी, तो उन्होंने कहा “हाँ यह एक मानसिक बीमारी है। एक तरह का पागलपन ही कहा जा सकता है। जिसमें
इंसान अपनी तात्कालिक जिंदगी भूल जाता है और इस बीमारी के शिकार होने से पहले उसने
जो सीखा या पढ़ा होगा, या किताबी ज्ञान हासिल किया होगा वह
उसे इस बीमारी के दौरान याद आता रहता है। इसलिए तुमने
जब सवाल किया उसने एक झटके में जवाब दिया, इससे यह पता चलता है वह किसी भी चीज को
अपने अंदर कितने अच्छे से रखता होगा। ऐसे केस में मरीज के ठीक होने की संभावनायें होती है मगर जिस वजह से याददास्त गई
है वह वजह वापस मिल जाये तो ” ।
रघु के परिवार
वालों ने कोर्ट के आदेशनुसार उसे कांके के पागल खाने में भर्ती करवाया, लेकिन वह
वहां से बार-बार भाग जाता था। रघु के इस रवैये से थक हार कर अस्पताल वालों ने उसे
परिवार के हवाले कर दिया गया। ऐसी हालात में वह घर पर भी कहाँ टिकने वाला था। उसे
तो पागल आशिक के जैसे सड़कों का ख़ाक छानना है।
ओह ... पर दीपक चा हुआ क्या था रघु के साथ और वह इस हालत तक कैसे पहुँचा?
जिस बैकुंठ
सिंह की हत्या का इल्जाम इस पर लगा था। एक समय रघु उसकी बहन रीना से प्यार करता था। रीना,रघु के साथ टी.पी. कॉलेज में पढ़ती थी। उन दोनों की मुलाकात ग्रेजुएशन के फर्स्ट इयर के हिंदी ओनर्स के प्रथम
क्लास में हुई, जब मणिभूषण वर्मा जी हिंदी का क्लास ले रहे थे।
वर्मा जी की
क्लास की प्रतीक्षा सबों को रहती है, धारा प्रवाह बोलना, छात्रों के प्रति आत्मीयता,
विषय पर उनकी गहरी पकड़ ने उन्हें छात्रों
का चहेता बना दिया है। गंभीर
से गंभीर विषय की सहज अभिव्यक्ति उनकी खासियत है। छात्रों की नज़र मेरे साथ दरवाजे पर टिकी, उपस्थिति
पंजी के साथ वर्मा जी के दाखिल होते ही सभी उठ खड़े हुए। वर्मा जी ने हँसते हुए बैठने को इशारा किया।
उपस्थिति लेने के उपरांत, उन्होंने विद्यापति
का काव्य परिचय देने के पूर्व, उनकी प्रचलित इन पंक्तियों को
रखा ...
असक लता
लाओल सजनि
नैनक नीर
पटाई,
से ही फल
अब तरुनित भल सजनि
आँचर तर न
समाई ।
इन पंक्तियों में एक ओर जहाँ नारी के पीड़ा को अभिव्यक्ति मिली है, वहीँ बाल विवाह से उत्पन्न होने वाले दुष्परिणाम को भी कवि ने रेखांकित किया है। किन्तु यहाँ भी पीड़ा में कवि ने अपूर्व सौंदर्य का दर्शन कराया है। यहाँ कवि की विलक्षण कल्पना और उनकी पैनी दृष्टि और मांसलता के प्रति सामान्य जिज्ञासा सहज दिखाई पड़ती है। यह स्वाभाविक है षोडशी बाला के प्रति किस ह्रदय में काम नहीं जगता। फुलवारी का माली ही यदि अनुपस्थित हो तो फूलों को लुटने की प्रवृति तो लोगों में होगी। इतना सहज है कि सौंदर्य के प्रति आकर्षण स्वाभाविक है।
लेक्चर देते
हुए, वर्मा जी ने रघु को अचानक उठा कर एक
सवाल पूछा, और उसका जवाब सुन कर प्रोफेसर साहब मंत्रमुग्ध हो
गये, रघु ने इतने अच्छे से
जो जवाब दिया था। प्रोफेसर ने लड़कियों के कतार से रीना
को उठाकर कर पूछा क्या तुम उस लड़के की उत्तर से सहमत हो?
रीना ने कहा “मैं इतेफाक नहीं रखती किन्तु एक हद तक सहमत हूँ, उनके दिए जवाब से”।
"श्रीमान
... मणिभूषण जी, अगर आप का क्लास ख़त्म हो गया हो तो मुझे मौका दे, बच्चों को इतिहास मुझे पढ़ाना है।
"
प्रोफेसर के
साथ हम सभी ने जब उस आवाज़ की ओर मुड़ कर देखा तो क्लास रूम के दरवाजे पर जनार्दन
बाबू खड़े थे। अगली क्लास उनकी होनी थी। हाँ
मैं भी इसी क्लास में बैठा था। उन दोनों के साथ मेरा भी
ग्रेजुएशन चल रहा था।
मणिभूषण बाबू
ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, महोदय आइये,
आइये, मैं तो यूँ ही बच्चों से सवाल जवाब कर
रहा था। फिर वह हम लोग से मुखातिब
होते हुए बोले “आगे कल करते है” और
क्लास रूम से निकल गये ।
उस दिन पुरे
क्लास में रघु रीना को कनखियों से देखता रहा, वह थी ही इतनी खुबसूरत कि रघु के साथ क्लास के और लड़के भी प्रोफेसर से नज़र
बचा के उसकी ओर देख लेते। उस दिन रीना हरी कुर्ती और
लाल चूड़ी दार पजामा पहनी थी। अठारह वर्ष की उमर में आकर
और कालजे में होने के बाद भी उसे चेहरे पर लीपा पोती करने का शौक नहीं था। वह बिना मेक-उप के ही अजंता की कोई जीवित मूरत लगती। उसकी देह-व्यास खजुराहो की कलाकिर्तियों की याद दिलाती थी। क्लास समाप्त होने के बाद रघु बड़ा हिम्मत कर के रीना के पास गया और कहा ”धन्यवाद रीना जी एक हद तक सहमत होने के लिए, मेरा
नाम रघु यादव है, अगर आपको ऐतराज न हो तो क्या मैं पूछ सकता
हूँ कि आप क्यों नहीं इत्तेफाक रखते मेरे दिए गये उस जवाब से?”
लड़कियों से
बात करने का तरीका अच्छा है? मगर मैं तुम
लड़कों के झांसे में फँसने वाली नहीं हूँ। रीना ने रघु
से कहा, इससे पहले कि वह कुछ और बोलती उसके ही पीछे खड़ी उसकी सहेली ने कहा ”अरे बता दो रीना, वरना इन लड़कों को रातों को नींद
नहीं आएगी”।
रास्ते से भटक
कर रघु के लिए ऐसी सोच रखना, रघु
को नगंवार गुजरा। उसने माफ़ी मांगते हुए रीना से कहा “माफ़ करना मुझे लगा कि आपके तर्क को जान कर कुछ सीखने को या मुझे मेरी कमियों का जानने का मौका मिलेगा, मगर तुम तो और
लड़कियों की तरह खाली निकली”।
यह कह कर रघु
उलटे पाँव वहाँ से चला गया। किन्तु
रघु की बात ने रीना को उसके लिए सोचने पर मजबूर कर दिया। उसने ऐसा क्यों बोला? रीना
किसी नतीजे पर पहुँचती उससे पहले उसकी दूसरी सहेली ने उसे हिलाते हुए कहा “कहाँ खो गई रीना मैडम, कहीं कॉलेज के सबसे तेज़ लड़के
रघु से मिलकर, तुमको भी उससे क्लास लेने की युक्ति तो नहीं
सुझ रही है।”
अरे नहीं ...
मुझे भला किसी मदद की क्या जरुरत? वह होगा कॉलेज का तेज़-तड़ाक लड़का, मगर मैं किसी से कम
हूँ क्या ?
उस रात नींद
रघु जैसे लड़कों की नहीं उड़ी बल्कि रीना की उड़ी थी। उसे पूरी रात अफ़सोस होता रहा की उसने रघु को क्या समझा और वह क्या निकला,
उसे रघु के साथ ऐसे बात नहीं करनी चाहिए थी? रात
किसी तरह बिता कर वह अगले दिन कॉलेज में रघु से मिलकर
माफ़ी माँगी और दोस्ती कर ली। धीरे-धीरे यह दोस्ती प्यार
के शक्ल में बदल गया।
एक दिन इन
दोनों की प्यार की खबर रीना के भाई बैकुंठ सिंह को लगी। उसने पहले तो आग बबूला होकर रीना को डांटा फिर कालेज जाने
से मना करते हुए कहा ”थोड़ा सा तो अपने बाप-दादा के इज्ज़त का
ख्याल करती, तुमने तो वर्षों से बनाई मेरी भी इज्ज़त को ख़ाक
कर दी। तुमने सोच कैसे लिया वो सरयू का बेटा इस घर का दामाद बनेगा। अरे जिसके पास
एक साँझ खाने के लिए पैसे नहीं है। जो अपना व अपने परिवार का पेट बीड़ी बांध-बांध
कर बड़े मुश्किल से चलाता है, वह कैसे तेरा ...। बेहतर होगा
ये फितूर उतार दो”।
मगर भैया
...
अगर मगर मत
करो, जितना बोल
रहा हूँ उतना ही कान खोल कर सुन लो। वे लोग न ही हमारे बिरादरी के है और न ही
हमारे बराबरी के, समझी की न ।
बैकुंठ सिंह
ने उसी दिन रीना का बियाह सहरसा के भूषण सिंह के छोटे भाई
राकेश से तय कर दिया। राकेश जो कि पूर्णिया के बैंक में असिस्टंट मनेजर था। रीना
को इसकी जानकारी छेका के दिन हुई। जब लड़के वाले रीना को छेंकने आये। रीना तैयार
नहीं थी, मगर रघु की जान के सलामती के लिए अपने भाई बैकुंठ
सिंह के सामने वह झुक गयी।
इस बात की ख़बर
जब रघु को लगी तो गुस्से में तमतमाता हुआ वह रीना के घर पहुँच गया। जहाँ उसकी मुलाकात रीना से तो नहीं हो पाई मगर
बैकुंठ सिंह से हो गई। दोनों में रीना को लेकर काफी तू तू मैं मैं हुई। आखिर में
रघु को वहाँ से खाली हाँथ वापस आना पड़ा।
एक सप्ताह
तक रघु रीना से मिलने के लिए पागलों के तरह तड़पता रहा परन्तु वह मिल नहीं पाया।
रीना उसे मिलती कैसे रघु जिस दिन रीना के घर पर गया था उसके ही अगले दिन रीना की
शादी सिहेश्वर मंदिर में राकेश के साथ जबरदस्ती करवा दी गई। रीना शादी के रात ही
सहरसा आ गई थी। इसलिए रघु उसे ढूंढ नहीं पा रहा था। वह रीना के वियोग में पागल सा
हो गया था, न कॉलेज ही
जाता, न कुछ ओर ही करता पूरा दिन चुप-चाप खामोश पड़ा रहता।
रीना के शादी
के एक सप्ताह के बाद मंगलवार का वह दिन था, जब ख़बर आई कि रीना ने पंखे से झुल कर अपनी जान दे दी। रीना के मौत के खबर
से पूरा मुहल्ला समाज सदमें में पड़ गया। उसने तो अपने
प्यार के खातिर अपनी जान दे दी मगर रघु के बारे में नहीं सोचा कि उसके चले जाने से
उसका क्या होगा। मुझसे नहीं रहा गया मैंने यह खबर जा कर रघु को सुनायी। रघु जो कि रीना के वियोग में पहले से पागल था मेरी बात सुन और सदमे में
चला गया। चिल्लाते चीखते हुए मेरे सामने ही उस वक़्त अजीब हरकतें करने लगा था,
जिसे देख कर मैं डर से वहाँ से भाग आया।
दुर्भाग्यवश अगले ही दिन रघु ने बैकुंठ
सिंह की हत्या कर दी और थाने जा कर अपना जुर्म
काबुल कर खुद को पुलिस के हवाले कर दिया। चार साल जेल
में रीना के बिना, उसके ही यादों में खोया एक काबिल नौजवान,
बिरादरी और स्टेटस के लिए बलि चढ़ कर पागल हो गया। क्या होता बैकुंठ
सिंह अगर अपनी बहन का ब्याह उससे कर देता तो? एक भाई को बहन की ख़ुशी के अलावा क्या चाहिए बेवकूफ पैसों के खातिर तीन
जिंदगियाँ बर्बाद कर दिया।
अचानक एक तेज़
आवाज़ हुई, कुछ लोग आवाज़ की ओर भागे। लगभग
समाप्त हुए कहानी को छोड़ कर, मैं और दीपक चा उस आवाज़ की ओर
भागे। उस आवाज़ वाली जगह पर पहुँचने के बाद हमने देखा रघुआ जख्मी सड़क पर लेटा हुआ
है। एक ट्रक ने उसे कुचल दिया था। लोगों की भीड़ उमड़ी हुई थी मगर किसी ने उसे
अस्पताल तक पहुँचाना सही नहीं समझा। वहाँ मौजूद भीड़ उसे देख कर मुँह फेर कर एक दुसरे से कहता “रघुआ पगलवा ..
मर गया”। दीपक चा के साथ मैं भी रघु के पास बैठा, उसके आँखें खुली थी और साँसें सीने में दफ़न हुई पड़ी थी। वह वाकई में मर
चूका था। परन्तु उसके खुली आँखों में कई सवाल थे। जो जवाब चाहते थे। “क्या प्यार करना गुनाह है, या गरीब होना, क्या मैं पागल था या पूरी दुनिया पागल थी, या ...
एगो बात छय, दूगो बात छय और सब बात छय .... ठस ।।
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