Friday, November 7, 2014

ज़िंदगी, ज़िंदगी


मेरे नाम को
भूली मेरी ज़िंदगी
मेरे रात को
भूली मेरी ज़िंदगी
मेरी सुबह को
भूली मेरी ज़िंदगी
मेरे ख्यालों को
भूली मेरी ज़िंदगी
मेरे सपनों को
भूली मेरी ज़िंदगी
मेरे अपनों को
भूली मेरी ज़िंदगी
मेरे दर्द को
भूली मेरी ज़िंदगी
मेरे ख़ुशी को
भूली मेरी ज़िंदगी
मेरे ग़म को
भूली मेरी ज़िंदगी
मेरे अहम को
भूली मेरी ज़िंदगी
मेरे अमीरी को
भूली मेरी ज़िंदगी
मेरे गरीबी को
भूली मेरी ज़िंदगी
टुटा तारा आसमान से
दुआ को
भूली मेरी ज़िंदगी
थी किस गम में
किस रंजिश को
भूली मेरे ज़िंदगी
कटोरे में थी चाँद
आसमान को
भूली मेरी ज़िंदगी
ज़िंदगी, ज़िंदगी
जब सोचा नहीं अब क्यों सोचता हूँ
क्या पास रहा क्या नहीं रहा
यादों पे सर रख के
जब वक़्त और वक़्त गुजरता रहा
ये आवारा ख्याल आता रहा
जिस डोली को पहुँचाना था
उसको ही कहार क्यों लूटता रहा
क्यों इश्क़ रातों को घूमता रहा
क्यों भूख मज़ारों में सोता रहा
क्यों रोटियाँ बिकती रही
क्यों अन्दर का मेरे बच्चा बिलकता रहा
क्यों कुत्ता भोंकता रहा
क्यों परिंदा उड़ता रहा
क्यों समुंदर शोर करता रहा
क्यों नदी शांत बहती रही
ख़ैर छोड़ो ज़िंदगी तुमको इनसे क्या
जब से भूख चीख़ के सोता रहा
मजार पे इश्क़ के
उस दिन से क्यों डिबरी जली नहीं
डेहरी पे किसी गरीब के
क्यों लुटते रहे लोग अपने ही करीब के
क्यों कोई बसाते रहे घर रकीब के
क्यों मेरे नाम को भूली मेरी ज़िंदगी
क्यों मेरे दर्द को भूली मेरी ज़िंदगी ...




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