Monday, November 24, 2014

एक दफा फिर !!

वो तेरे नज़रों से उतरता हुआ सुर्ख रंग 
मेरे इश्क़ का 
जैसे काले बादलों ने खुद को समेटना शुरू कर दिया हो 
ये सोचकर कि अब कोई बारिश नहीं होगी 
आस की वो कश्ती 
जो मैंने उतारा था कभी तेरे संग बारिश के पानी में 
किसी किनारे तक नहीं पहुँच पाएगी 

जो भी था सब सही था  
वही था 
पर
कोई रंग होले होले उतर रहा था 
ये क्या था ?
जो मुझे पता होके भी अनजान सा दिख रहा था  

पर जो भी था 
जो भी है 
मेरी तमनायें तेरे संग आज भी समुन्दर के 
गहराईयों में उतरना चाहता है
कुछ अनसुलझे सवालों का जवाब ढूँढ़ना चाहता हैं 
न जाने क्यूँ ?
शायद इस ख्याल में 
कि काश किसी सीप के अंदर 
वो सारा मंजर मिल जाये 
जो खुशनुमा था 

जब रात के काले अँधेरे में चाँद 
दूध सी झलकती थी 
मैं होले से बाहें थामे उसको ज़मीं पे उतारता था 
हवाएँ सर्द होके हमारा आलिंगन करती थी 
फलक से सितारें अपनी साँसें थामे 
हमारे इस मिलन को सुबह तलक तकता था 
और तुम मेरे पनाहों के गिरफ़त सिमटी थी 

वो क्या था 
वो मंजर क्या था 

आज इन बीते लम्हों का अवसाद भर है मेरे जेहन में 
पर ख्वाहिशें वही है, हसरतें भी वही है 
कि फिर वो काली रात हो 
इस बार तुम अपनी पूरी उर्जा और रंग समेट कर 
एक दफा फिर ज़मीं पर आओ 
ताकि मैं अपने जिस्म से रूह और साँसों को निकाल सकू 
और तेरे नाजुक हाँथों में रख सकू 
जो तेरे बिना जिन्दा होके भी आज मुर्दा है !!

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