हर रात मुझसे उलझता है क्यूँ कोई,
मेरी नींदे छीन के अपने होने का एहसास देता है क्यूँ कोई !
है जब पता उनको मेरे बेचैनियों का,
फिर मेरा चैन लेता है क्यूँ कोई !
में ढूंढ़ता हूँ हाथों के लकीरों में बार बार नाम जिनका,
जाने क्यूँ ..जान के ये, अपनी पहचान छुपता है क्यूँ कोई !
हर रात मुझसे उलझता है क्यूँ कोई,
मेरी नींदे छीन के अपने होने का एहसास देता है क्यूँ कोई !
खामोशियों में मेरे आते है जिनके ख्याल अक्सर,
पास होक भी वही दूर होने का एहसास जताता है क्यूँ कोई !
भटक के कहाँ आ निकला हूँ जहाँ अपना दीखता नहीं है कोई,
फिर हँस के मुझसे मेरे गुमनामी का पता पूछता है क्यूँ कोई !
आ गई है जिनके बदहाली में,घर के दीवारों पे बहुत सारे दरारें,
ऐसे में बिना बुलाये उन दरारों से झांकता है क्यूँ कोई !
हर रात मुझसे उलझता है क्यूँ कोई,
मेरी नींदे छीन के अपने होने का एहसास देता है क्यूँ कोई !!
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