शायद मैं जल रहा हूँ,
लोग हँसते है,
मुझे इश्क़ के सिवा कुछ न आया,
ऐ काश !
कहीं से आके
ऐसे में तू समझा जाती "इनको"
जितना भी सीखा तुमने
तुझे बहुत है आया,
की लोग हँसते है ...
मुझे इश्क़ के सिवा कुछ न आया,
कम कैसे हैं ये तासीर इश्क़ के
जब खूं के जैसे ताबीर अश्क के
खुद समझ कर
जब औरों को ये समझा न पाया,
फ़कत गुलिश्तां में तो गुल भी जीते है
क्यों काँटों को कोई देख न पाया,
की लोग हँसते है ...
मुझे इश्क़ के सिवा कुछ न आया,
झाँक अपने में तोहमत खेर जलील-ए-नज़र
तुझे क्या मिला मुझे क्या मिला नूर-ए-हसर
उड़ा के खिल्लियाँ
जब तू खुद मुख़्तसर खिल न पाया,
उम्र भर खंगालते रहे गैरों को
क्यों कभी अपने अस्क को तू छू न पाया,
की लोग हँसते है ...
मुझे इश्क़ के सिवा कुछ न आया !
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