ऐ मूरत !
शायद आज तुमने
कुछ कहा था मुझसे
अपनी वो बेचैनी
वो विडम्वना ,
जो सिर्फ और सिर्फ
मैं महसूस
कर सकता हूँ ,
कैसे पथ्थरों का भी
दिल रोता है
कैसे बूँदें अश्कों की
पथ्थरों की आँखों से
छलकता है
रंग लिप्त
उदाशीनता लिए ,
वो मैं अब समझ
सकता हूँ ,
क्यूँकी तूने आज
अपने दर्द की
हर ताबीर से रु-ब-रु
करवाया था मुझको
जिसको महसूस कर
मेरी काया ने भी
अश्क बहाये थे,
"क्या दिल सिर्फ
इंसानों का ही होता है
क्या वजूद के लिए
सिर्फ इंसान ही लड़ते है
क्या प्रेम करने का हक़
सिर्फ इंसानों को ही होता है"
ऐसे तेरे कई अनगिनत
सवाल
जिसके जवाब की शक्ल में
मेरे पास
लज्जा के सिवाये
कुछ नहीं था ,
मुझे मालूम है
तुझे भी प्रेम हो चला है
किसी इंसान से
जो तुझे
सिर्फ व सिर्फ
चट्टान का महज
एक टुकड़ा समझता है
पर मैं कह दू
मेरे दोस्त
हम इंसान
उसी चट्टान की बनाई
मूरत को पूजते है,
अधीर मत हो
अपने प्रेम को वो रूप दो
जो तुझे
सिर्फ पत्थर समझे
वो भी
तुझे कुछ यूँ ही पूजे
इतनी बात मेरी सुन
वो थोड़ी खिलखिलाई
और फिर बोली
तूने इंसान होके भी
हम चट्टानों को
इतनी अच्छी तरह
से समझा है
"काश मेरा ये प्रेम तुमसे होता"
मैं हँसा
और मन में बोला
काश मेरी प्रेमिका तुम जैसी होती
जो खुले मुँह ये कह देती
"काश मेरा ये प्रेम तुमसे होता" ..
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