तुम क्यों नहीं
चली आती हो
इस कटीले बार के
इस पार
जहाँ मेरे निगाहों का
ठहराव बसता है
जहाँ एक लगन से
मेरा प्रीत
तेरा इंतजार करता है
साँझ के सिंदूरी आलमों से
करके लड़ाई
रातों को मेरा दिल जगता है
और क्या क्या
मैं बताऊँ तुमको ..
जो तुम ही तो कहती रहती हो
मैं तुमको खुद से जादा जानती हूँ
फिर क्यूँ ..
मेरे बिस्तरों पे
मेरे अकेलेपन की सिलवटें
रोज सुबह को मिला करती है
तकियों के रुइओ से
मेरे आँसुओं की बू आती है
क्या यहाँ भी तुमको
मेरे लेखन कला का नाटक दीखता है
अगर ऐसा है तो
मैं और खुद के बारे में लिख नहीं पाऊँगा
तुमको खुद आके
मेरे प्रेम को परिभाषित करना होगा
और साथ ही
मेरे दिल को दिखाना होगा
जैसे मैं बेचैन हूँ
जीवन के इस कटीले बार के
इस पार
तू भी इतना ही बेचैन है उस पार
अब देर न कर
तू चली आ ..
अधीर मेरे साँसें
मेरे सीने को कोसती है
तेरे विरहा की अग्नि में ...
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