ढूंढ़ते ढूंढ़ते ये क्या आवारगी ढूंढ़ ली है,
की तेरी जुदाई ने सनम मेरी जान ली है,
कितनी मासूम है ये तेरे होने का एहसास,
जैसे रूह ने एक ओर जिस्म ढूंढ़ ली है,
ढूंढ़ते ढूंढ़ते ये क्या आवारगी ढूंढ़ ली है ...
कैसे जिऊँ तेरे हंसी से होके दूर,
जब इस पैर ने एक जमी ढूंढ़ ली है,
क्यूँ पड़ा है इस वक़्त पे तेरे चिलमनो का पेहरा,
जब मेरी नज़र ने जिन्दगी की सकल ढूंढ़ ली है,
ढूंढ़ते ढूंढ़ते ये क्या आवारगी ढूंढ़ ली है...
तू छुपते छिपाते चाँद के तरह आजा,
देख मैंने तेरे लिए एक रात ढूंढ़ ली है,
में पूछूँगा न तेरे से कोई सवाल,
आज इस कदर तेरे जुदाई में मैंने हर जवाब ढूंढ़ ली है
ढूंढ़ते ढूंढ़ते ये क्या आवारगी ढूंढ़ ली है .... !!
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