में हूँ तन्हा पर अकेला नहीं !
पता नहीं, ये दिल चाहता क्या है,
हर पल खुद से उलझता क्यूँ है !
कहने को हूँ में तन्हा पर अकेला नहीं,
मंजिल है पर रास्ते नहीं.
इस आवारगी में कहाँ चला, किधर पंहुचा,
कुछ पता नहीं, कुछ पता नहीं !!
शाम होते ही सवेरे की तलाश रहती है,
सवेरे होते ही अँधेरे की याद आती है,
क्यूँ मुकव्वल हुआ न मेरी जिन्दगी,
यही सवाल हमेशा खुद से रहती है,
अब तक क्या खोया क्या पाया,
कुछ पता नहीं, कुछ पता नहीं !!
साहिल पे खड़ा हूँ, टूटी कस्ती को साथ लिये,
इस चाहत में की कोई मांझी ढूंढ़ लूँगा, और खुद को उस दूर किराने पे कर लूँगा, जहाँ खुशियों की बस्ती है, हर चेहरे पे प्यार है, क्या मिल पायेगा वो जहाँ, कुछ पता नहीं, कुछ पता नहीं !!
अजय ठाकुर